क्यों घिर जाता है आदमी,
अनचाहे- अनजाने से घेरों में,
क्यों नही चाह कर भी निकल पाता ,
इन झमेलों से ?
क्यों नही होता आगाज़ किसी अंजाम का
,क्यों हर अंजाम के लिए नहीं होता तैयार पहले से?
ख़ुद से ही शायद दूर होता है हर कोई यहाँ,
ख़ुद से ही शायद दूर होता है हर कोई यहाँ,
इसलिए आईने में ख़ुद को पहचानना चाहता है,
पर जो दिखाता है आईना वो तो सच नहीं,
तो क्या नक़ाब ही लगे होते हैं हर चेहरे पे?
यूँ तो हर कोई छेड़ देता है तरन्नुम ए ज़िंदगी,
यूँ तो हर कोई छेड़ देता है तरन्नुम ए ज़िंदगी,
पर सही राग बजा पाते हैं कितने लोग?
और कौन पहचान पाता है उसके स्वरों को?
पर दावा करते हैं जैसे रग -रग पहचानते हैं वे,
ये दावा भी एक मुश्किल सा हुनर है,
ये दावा भी एक मुश्किल सा हुनर है,
सीख लिया तो आसान सी हो जाती है ज़िंदगी,
जो ना सीख पाए तो आलम क्या हो?
शायद अपने और बस अपने में ही सिमट जाते हैं वे
और भी ना जाने कितने मुश्किल से सवाल हैं ज़हन में,
और भी ना जाने कितने मुश्किल से सवाल हैं ज़हन में,
जिनका जबाब चाह भी ना ढूँड पाए हम,
शायद यूँ ही कभी मिल जाएँ अपने आप ही,
रहे सलामत तो पलकें बिछाएँगे उस मोड़ पे…
वाह , शुरुआत कविता से की थी। बहुत खूब!
शुक्रिया
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वाह …बहुत सुन्दर रचना??
शुक्रिया
2009
मैं पैदा ही नहीं हुई थी ब्लॉग की दुनिया में
आभार दीदी..
परिचय हेतु
सादर..
आभार आपका
बहुत सुंदर रचना
कौन भला किसको पहचानता है ?
चेहरे सबके छुपे होते हैं मुखौटों में
कौन किसके बारे कितना जानता है ?
सटीक अभिव्यक्ति ।
बहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति ..