बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा। न जाने क्यों नहीं लिखा। यूँ व्यस्तताएं काफी हैं पर इन व्यस्तताओं का तो बहाना है. आज से पहले भी थीं और शायद हमेशा रहेंगी ही. कुछ लोग टिक कर बैठ ही नहीं सकते। चक्कर होता है पैरों में चक्कर घिन्नी से डोलते ही रहते हैं. न मन को चैन, न दिमाग को, न ही पैरों को. तीनो हर समय चलायमान ही रहते हैं. पर लिखना कभी इनकी वजह से नहीं रुका। वह चलता ही रहा,कभी विषय भी ढूंढना नहीं पड़ा.  उठते , बैठते , खाना पकाते , झाड़ू मारते, बर्तन धोते, टीवी देखते यहाँ तक कि डिलीवरी बैड पर दर्द सहते और सोने की कोशिश करते भी, कुछ न कुछ लिखा ही जाता रहा, कभी कागज़ पर तो कभी मन पर.

परन्तु आजकल न जाने क्यों, न लिखने के बहाने ढूंढा करती हूँ. विषय ढूंढने निकलती हूँ तो सब बासी से लगते हैं. वही स्त्रियों पर अत्याचार, वही मजबूर बीवी और माँ, वही एक दूसरे को काटने- खाने को दौड़ते बुद्धिजीवी, वही छात्रों- बच्चों को सताती शिक्षा व्यवस्था, वही चूहा दौड़ और वही कभी इधर तो कभी उधर लुढ़कते हम. क्या लिखा जाए इन पर? और कब तक ? और आखिर क्यों ? जब भी मस्तिष्क को स्थिर कर कुछ लिखने बैठती हूँ, ऐसे ही न जाने कितने ही सवाल गदा, भाला ले हमला करने लगते हैं.और मैं उन सवालों के जबाब ढूंढने के बदले उन हमलों से बचने की फिराक में फिर यहाँ – वहाँ डोल जाती हूँ. मुझे समझ में नहीं आता आखिर क्यों मैं लिखूं ? किसके लिए ? क्योंकि जिसके लिए मैं लिखना चाहती हूँ उन्हें तो मेरे लिखने न लिखने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

टीवी पर चल रहा है महाभारत और दृश्य है द्रोपदी के अपमान का, सर झुकाये खड़े हैं पाँचों योद्धा पति और न जाने कितने ही महा विद्द्वान ज्ञानी। मुझे आजतक नहीं समझ में आया कि आखिर ऐसी भी क्या मजबूरी थी कि सब मौन थे. क्यों नहीं एक- एक आकर खड़ा हो सकता था सामने लड़ने को मरने को ?

यह सदियों पहले की कहानी है परन्तु समाज का स्वरुप, ये मजबूरियाँ आज भी वही हैं-

अभी कुछ दिन पहले ही एक मित्र ने एक संभ्रांत तथाकथित बेहद पढ़े लिखे परिवार और समाज में उच्च – जिम्मेदाराना ओहदे पर आसीन एक पिता की एक बेटी पर हुए बहशियाना व्यवहार का किस्सा सुनाया। वो बच्ची जी रही है ऐसे ही टूटी हुई, अपने पति का ज़ुल्म सहती हुई परन्तु उसके संभ्रांत परिवार को ही उसकी परवाह नहीं।

एक और, दो बच्चों की पढ़ी लिखी माँ सह रही है अपने ही घर में अनगिनत शारीरिक और मानसिक अपमान। उसमें पीस रहे हैं बच्चे, स्कूल में फ़ैल हो रहे हैं, परन्तु नहीं निकलना चाहती वह उस नरक से. न जाने क्यों? क्या मजबूरी है ?

आत्मविश्वास की कमी, समाज का डर, उन अपनों की इज्जत का खौफ जिन्हें उसकी इज्जत की परवाह नहीं। आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी की घुट्टी हमारे समाज की रगों में है कि सदियां दर सदियाँ बीत जाने पर भी असर ख़त्म नहीं हुआ.

और अब ये नन्ही बच्चियों पे होते दुष्कर्म, दरिंदगी की हद्द तक. पर गुनाह की बात छोड़ कर होती है उससे जुड़ी हर बात पर चर्चा. स्थान पर, धर्म पर, कारण पर , कपड़ों पर, परिवेश पर, राजनीति पर. बस अछूता रह जाता है तो ‘गुनाह’.

मैं सुनती हूँ ये किस्से, लिखती हूँ, समझाती हूँ, साधन भी जुटाती हूँ अपनी तरफ से. लेकिन क्या होता है कोई परिणाम? सब कुछ रहता है वहीँ का वहीँ और मेरा , उसका, इसका, उनका, सबका लिखना – रह जाता है बस, कुछ काले अक्षर भर. इति हमारे धर्म की, हमारी अभिव्यक्ति की प्यास की, एक स्वार्थ की पूर्ती भर. जैसे वे मजबूर रो लेती हैं हमारे समक्ष, हम रो लेते हैं लिख कर.

बस इससे ज्यादा कुछ है क्या ? फिर क्या लिखूं? क्यों लिखूं ? लोग मुझसे पूछते हैं कि मैं हिंदी में क्यों लिखती हूँ? मैं जबाब देती हूँ क्योंकि मुझे अच्छा लगता है. तो क्या सिर्फ खुद को अच्छा लगने के लिए लिखती हूँ मैं? मुझे आज भी याद है पत्रकारिता की पढाई के दौरान एक प्रोफ़ेसर का एक खीज भरा वक्तव कि “ये विदेशी छात्र रहते यहाँ हैं और लिखना चाहते हैं अपने देश पर” तो क्या लेखन, विषय और सरोकार बंधे होते हैं सीमाओं में?

इन्हीं सवालों के जबाब ढूंढ रही हूँ आजकल।  मन उलझा है, जल्दी ही कुछ सुलझेगा उम्मीद पर दुनिया ही नहीं मैं भी टिकी हूँ।