करी खा तो सकते हैं पर सूंघ नहीं सकते .
ब्रिटेन में करी का काफी प्रचलन  है. जगह जगह पर भारतीय और बंगलादेशी टेक आउट कुकुरमुत्तों की तरह खुले हुए हैं और यहाँ के निवासियों में करी का काफी शौक देखा  जाता है …पर समस्या तब खड़ी होती है जब उन्हें करी खाने से तो कोई परहेज नहीं पर करी की सुगंध से परहेज हो. एक समाचार पत्र की एक खबर के मुताबिक ब्रिटेन के एक प्राइमरी  स्कूल की एक  टीचर को २ साल के लिए सस्पेंड कर दिया गया है क्योंकि उसने कुछ बच्चों पर इसलिए एयर फ्रेशनर छिड़क दिया था क्योंकि उनपर से करी की दुर्गन्ध आ रही थी …इससे पहले इस अध्यापिका को एशियन  बच्चों पर रंगभेदी टिप्पणियाँ करने का आरोप लग चुका है परन्तु वह साबित नहीं हो सका अब उसका कहना है कि बंगलादेशी /एशियन (यहाँ भारतीय,बंगलादेशी,पाकिस्तानी,श्रीलंकन सबको सम्मिलित रूप से एशियन पुकारा जाता है )  बच्चों से प्याज और करी की दुर्गन्ध आने के कारण उसने उन बच्चों पर एयर फ्रेशनर का छिडकाव किया. हालाँकि इन बच्चों में कुछ बच्चे नॉन बंगलादेशी भी बताये जाते हैं और उनके अभिभावकों का कहना है कि इस अध्यापिका को २ साल के लिए ही नहीं पूरे जीवन के लिए इस नौकरी से सस्पेंड किया जाना चाहिए.
हालाँकि यह पहली खबर नहीं जो मैंने पढ़ी है इससे पहले भी कई बार इस तरह की ख़बरें  प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सामने आती रहीं हैं ..एक बार मेरे अमेरिका प्रवास के दौरान एक भारतीय कंपनी ने अपने कर्मचारियों को एक मेल भेजा जिसमें हिदायत दी गई थी कि कृपया सभी अपना पर्सनल हाइजीन मेंटेन करें   ..हुआ यह था कि एक क्लाइंट ने एक भारतीय कर्मचारी के साथ मीटिंग करने से इसलिए मना कर दिया था कि उसके शरीर से दुर्गन्ध आती है,और उसके साथ खड़े रहकर उसके लिए बात करना मुश्किल होता है .ये बातें पढ़ – सुनकर जाहिर तौर पर किसी भी भारतीय का खून खोल उठेगा परन्तु प्रश्न उठता है कि क्या  “एशियन वाकई बदबूदार होते हैं ?वो भी इतने कि सामने वाले की बर्दाश्त से बाहर की बात हो जाये …निश्चित ही ये बात हमें कहीं से पचने वाली नहीं लगती क्योंकि हमने भारत में तो कभी इस समस्या से किसी को दो चार होता हुआ नहीं देखा .परन्तु अगर हम ठन्डे दिमाग से सोचें तो कुछ बातों पर विचार कर सकते हैं हालाँकि ये बातें किसी भी तरह इस अध्यापिका के इस कृत्य को जस्टिफाई नहीं कर सकतीं.
  इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता हम एशियन /भारतीय के भोजन में प्रयुक्त होने वाले मसालों की सुगंध बहुत ही तीव्र होती है  और हो सकता है उन मसालों के आदी जो लोग नहीं होते उनके लिए वह सुगंध असहनीय हो जाती हो, जिस तरह से हममे से बहुत से लोगों के लिए चीनी भोजन की सुगंध या शकाहिरियों के लिए मांसाहारी भोजन  की सुगंध असहनीय होती है .फिर भोजन में प्याज ,लहसुन  की अधिकता जाहिर है आपके सांस को भी प्रभावित करती है ..और यह कहने में मुझे कोई गुरेज़ नहीं कि अधिकाँश भारतीय उसके लिए चुइंग गम तक चबाना भी गवारा नहीं करते.जाहिर है इसका खामियाजा सामने वाले को भुगतना ही पड़ता है .यहाँ तक कि घर में बने खाने की वजह से मसालों की सुगंध कई बार कपड़ों तक में बस जाती है और शरीर पर चुपड़ा गया नारियल  का तेल बेशक हमें सुगंध प्रतीत होता हो, पर किसी के लिए वह सुगंध असहनीय भी हो सकती है .पर उसके लिए भी कोई उपाय करना कुछ लोग  अपनी शान के खिलाफ समझते हैं .बात भी ठीक है आखिर क्या खाया जाये, कब खाया जाये  या क्या लगाया जाये ये हमारा मूल अधिकार है और अपने देश से बाहर आकर हम अपना ये अधिकार गँवा तो नहीं देते…परन्तु हम ये भूल जाते हैं कि एक पब्लिक प्लेस में काम करने पर या वहां शामिल होने पर वहां उपस्थित लोगों के बारे में सोचना भी हमारे अधिकारों के नहीं तो कर्तव्यों के अंतर्गत जरुर आता है ..जैसे कोई हमें हमारे मसालेदार खाना खाने से नहीं रोक सकता वह अवश्य ही हमारी आजादी का हिस्सा है ..परन्तु हमारी वह  आजादी वहां ख़तम हो जाती है जहाँ से किसी और  की नाक शुरू होती है .ऐसा नहीं है की बाकी देशवासी खाने में इत्र डाल  कर कहते हैं या उनके शरीर से दुर्गन्ध नहीं आ सकती परन्तु सार्वजानिक स्थान पर लोगों के बीच वे  इससे बचने के उपाय करने में गुरेज़ नहीं करते यानी  शिष्टाचार के नाते हम और कुछ नहीं तो अपने साथी कर्मचारी की खातिर खाने के बाद एक चुइंग गम  और कपड़ों पर डियोडरेन्ट का इस्तेमाल तो कर ही सकते हैं.जैसे बाकी के लोग करते हैं
मुझे याद आ रहा है एक मजेदार किस्सा जब एक अन्तराष्ट्रीय उड़ान  के दौरान हमारे कुछ भारतीय साथी जहाज के ही गेलरी में पोटली खोलकर घेरा बनाकर बैठ गए कि “माँ का दिया हुआ खिचडी खाना है..जाने फिर कब मिलेगा” .अब क्योंकि उस उड़ान में ९९% भारतीय ही थे इसलिए किसी ने प्रत्यक्ष रूप से कोई आपत्ति नहीं जताई परन्तु अगर उस उड़ान में  कुछ वेदेशी यात्री भी होते तो जरा सोचिये क्या हालत होती उनकी. क्या अपने साथी यात्रियों की सुविधा का ख्याल रखना हमारे शिष्टाचार के अंतर्गत नहीं आता?
निश्चित तौर पर उस अध्यापिका का वह व्यवहार किसी भी तरह से उपयुक्त नहीं कहा जा सकता और उसे उसकी सजा भी मिली ..और निश्चित ही उस  अमेरिकेन क्लाइंट का वह वक्तत्व अपमान जनक था ..पर क्या एक सभ्य देश के सभ्य नागरिक होने के नाते  हमारा यह कर्तव्य नहीं बनता कि दुसरे देश में उस देश के मुताबिक अपने व्यवहार और थोडा ढाल सकें..जिस तरह अपने घर में हम कैसे भी रहे परन्तु घर से  बाहर निकलते वक़्त , शिष्टाचार वश कुछ सामान्य मापदंड का हम पालन करते हैं . उसी तरह दुसरे देश में रहने पर ,वहां के लोगों के बीच काम करने पर ,वहां के नागरिकों के प्रति  कुछ तो शिष्टाचार हमारा भी बनता ही है