क्या चाहा था, बहुत कुछ तो चाहा ना था
क्या माँगा था खुदा से, बहुत कुछ तो माँगा ना था.
जो मिला ख़ुशनसीबी थी पर थी, गम के आँचल से लिपटी,
लगा बिन मांगे मोती मिला, पर था नक़ली वो मालूम ना था.
हर सुख मिला पर था आँसुओं की आड़ में,
हर फूल मिला पर था काटों के साथ में,
पर जो चाहा था तहे दिल से,
इस जहाँ का वो दस्तूर ना था,
एक छोटा सा सपना इस ख़ुददार दिल का ,
बस हक़ीक़त को मंज़ूर ना था.
आज़ बहुत तन्हा महसूस करते हैं ,
ख़ुदगरज़ों की इस भीड़ में ख़ुद को,
बहुत बेबस पाते हैं हम, रिश्तों के बाज़ार में ख़ुद को,
इस भीड़ से दूर एक कोने की थी आरज़ू,
कोई जहाँ तो चाहा ना था,
बाज़ार से दूर एक घर की थी तमन्ना,
कोई बुलंद क़िला तो माँगा ना था.
सह लेते हर दुख तकलीफ़ हम,
जो मिलता वो एक दिले सुकून,
पलकों पे बैठाते उनको,
जो देते वो एक नॅन्हा सा सुख,
छोटी सी जज़्बे की किरण माँगी थी,
कोई सितारा तो माँगा ना था,एek
एक इंसान की थी आरज़ू ,
किसी खुदा को तो पुकारा ना था.