जीवन की रेला-पेली है.
कुछ चलती है, कुछ ठहरी है.
जब मौन प्रखर हो व्यक्त हुआ
कहा वक्त ने हो गई देरी है.

अब भावों में उन्माद नहीं
क्यों शब्दों में परवाज़ नहीं
साँसे कुछ अपनी हैं बोझिल
या चिंता कोई आ घेरी है
जब मौन प्रखर हो व्यक्त हुआ
कहा वक्त ने ,हो गई देरी है.

थे स्वप्न अभी परवान चढ़े
हुए थे मन तृण बस अभी हरे
अवसादों का पाला छाया
या फिर ये रात घनेरी है
जब मौन प्रखर हो व्यक्त हुआ
कहा वक्त ने हो गई देरी है.

नहीं रवि की  ज्योति मंद  है
नहीं ‘चन्द्र  की आभा कम है
मन-रश्मि क्यों फिर मद्धम है
क्यों आँख हुई नम मेरी है
जब मौन प्रखर हो व्यक्त हुआ
कहा वक़्त ने हो गई देरी है.

बहुत बहुत आभार गिरीश पंकज जी का, जिन्होंने मेरी अनगढ़ पंक्तियों में मात्राओं का सुधार कर इसे गीत बनाने की कोशिश की .