वैसे तो हमारे देश में घोटालों की कोई एक परिभाषा नहीं ,कोई सीमा नहीं है. हमेशा नए नए और अनोखे से नाम कानो में पड़ जाते हैं. परन्तु पिछले दिनों कुछ इसतरह के मामले सुनने में आये कि लोकतंत्र से ही विरक्ति सी होने लगी है .लोकतंत्र के सबसे मजबूत खम्भे पर बैठे लोग हों या हाथ में कलम की तलवार लिए सामाजिक बुराइयों का गला काटने वाले .आम जनता को अवसाद से उबारने का बीड़ा उठाये साधू संत हों या देश की सर्वोच्च सेवा के तथाकथित उच्चाधिकारी.सबने मिलकर लोकतंत्र को ही ढाल  बना कर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र  के परखच्चे उड़ा  दिए हैं..

पल में तोला पल में माशा 

गिरगिट की सी चाल है इनकी .
कभी इस पलड़े तो 
कभी उस पलड़े   ,

थाली के बैगन सी गति है इनकी .
दिल अंदर से काला है और
दिमाग जटाओं में जकड़ा है
घर फूंक तमाशा देख रहे
ना कोई मर्यादा इन संतों की .
कुछ बैठ चतुर्थ स्तंभ   पर
दलाली देश की खा जाएँ 

जितनी  बड़ी लॉबिंग करें
उतनी ऊँची कुर्सी पा जाएँ .
आज प्रीत किसी  से जुडी  गहन
कल बैर कौन सा हो जाये,
इसकी सुन ली उससे कह दी
कान के कच्चे सब बन जाएँ
कहने पर जब आते हैं
संस्कार सभी चुक जाते हैं
लगाम जुबाँ पर.न कलम पर
बस सरेआम शोर मचाते हैं
चारे से लेकर खेलों तक
जहाँ मंडी सब घोटालों की 

जय बोलो भई जय बोलो 
ऐसे लोकतंत्र वालों की .
(तस्वीरें गूगल से साभार )