लन्दन के एक मंदिर में त्यौहारों पर लगती लम्बी भीड़
त्यौहार पर मंदिर में लगती लम्बी भीड़, रंग बिरंगे कपड़े, बाजारों में, स्कूल के कार्यक्रमों में बजते हिंदी फ़िल्मी गीत,बसों पर लगे हिंदी फिल्म और सीरियलों के पोस्टर.और कोने कोने से आती देसी मसालों  की सुगंध .क्या लगता है आपको किसी भारतीय शहर की बात हो रही है.है ना? जी नहीं यहाँ भारत के किसी शहर की नहीं बल्कि दुनिया के प्रसिद्द महानगर, विश्व का व्यावसायिक मदीना, और राजसी ठाट वाट के लिए प्रसिद्द लन्दन की बात हो रही है.यकीन नहीं होता ना ? पर सच मानिये  लन्दन एशियाना हो चला है.

फैशन और आधुनिकता के लिए भारत ही क्या पूरा एशिया ही पश्चिम से प्रभावित रहा है.पश्चिमी लिबासों 
की होड़ हम हमेशा ही करते आये हैं.परन्तु कम से कमतर होते काले और स्लेटी कपड़ों से विपरीत अब लन्दन फैशन के लिए पूर्व की ओर देख रहा है. यह बात पिछले दिनों लन्दन में हुए फैशन वीक के दौरान सामने आई, जहाँ पीटर पिलोटो के जापान संस्कृति से प्रभावित रंग विरंगे फूल पत्तियों वाले प्रिंटेड परिधानों ने धूम मचा दी.
पीटर पिलोटो के जापानी कलेक्शन (तस्वीर इवनिंग स्टेंडर्ड से साभार )
यूँ तो एक कॉस्मोपॉलिटन शहर होने के नाते लन्दन में सभी समुदायों के उत्सव पूरे जोश औ  खरोश  से मनाये जाते हैं.परन्तु क्रिसमस या वेलेंटाइन डे जैसे पश्चिमी उत्सवों को पूरी दुनिया में प्रचारित करने बाद अब लन्दन में इन पर इतना उत्साह देखने को नहीं मिलता यूँ इसकी एक वजह आर्थिक मंदी भी हो सकती है.
जहाँ वेलेंटाइन डे जैसे अवसरों पर भारत में सुरूर चढ़ने लगा है, लोग बावले हुए जाते हैं और  सड़कें ,बाजार , रेस्टोरेंट ओवर फ्लो होते रहते हैं,.वहीँ लन्दन में इस बार वेलेंटाइन डे बहुत ही सुस्त रहा.ना बाजारों,दुकानों में रौनक थी, ना रेस्टोरेंट्स में जमघट.यहाँ तक कि एक सर्वे के मुताबिक उस मंगलवार को ( वेलेंटाइन डे ) डोमिनोज ने अपने इतिहास में सर्वाधिक पिज्जा बेचे.किसी पब में जाकर महंगा डिनर करने की बजाय लोगों ने इस बार घर में टी वी के आगे बैठकर पिज्जा खाकर यह दिन गुजारा.वहीँ रॉयल मेल के कार्ड का वितरण बेहद ही कम रहा. और एक उपहारों की दूकान की विक्रेता के अनुसार इस साल का वेलेंटाइन डे अब तक का सबसे सुस्त वेलेंटाइन था .कोई उत्साह नहीं ,कोई उत्सवी भोजन नहीं, कोई उपहारों पर खर्चा नहीं.हाँ नवरात्रि और करवा चौथ जैसे त्योहारों पर स्थानीय मंदिरों में बाहर सड़क तक लम्बी लम्बी लाइन अवश्य देखी गई. नवरात्रों में जगह जगह गरबा के आयोजन होते हैं.और दिवाली जैसे त्यौहार पर तो रौशनी और आतिशवाजी का नजारा नए साल से भी अधिक रंगीन नजर आने लगा है.भारत से घूमने आये लोग अब यह कहते पाए जाते हैं कि भारतीय त्योहारों की छटा देखनी हो तो लन्दन आना चाहिए.
भारत में अंग्रेजी धुनों पर डिस्को में थिरकती युवा पीढी और अंग्रेजी में गिटर पिटर करने को उच्च स्तरीय समझने वाले लोगों को अब लन्दन में शायद सांस्कृतिक झटका लगे, क्योंकि हिंदी को भी हिंगलिश की तरह इस्तेमाल करने पर आमदा भारत में रहने वाले भारतीयों से इतर लन्दन के स्कूलों में सार्वजनिक मीटिंग के दौरान “जय हो” बजता है.और स्कूल के सभी बच्चे उसपर थिरकते देखे जा सकते हैं.बिना हिंदी गीतों के कोई भी स्कूली सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे पूरा ही नहीं होता.यहाँ तक कि लन्दन में पले बढे प्रखर बच्चे “जी सी एस सी” में एक विषय के तौर पर हिंदी लेते हैं और “ए *” से उसे पास करते हैं. जगह जगह होते हिंदी सम्मलेन और हिंदी फिल्मों ,हिंदी गीतों की लोकप्रियता के बाद स्कूलों में हिंदी को एक वैकल्पिक भाषा के रूप में एक विषय के तौर पर लिया जाने लगा है.
बेशक आजकल भारत में बनने वाली हर दूसरी हिंदी फिल्म में लन्दन का जिक्र हो परन्तु २०१२ ओलम्पिक की ओर बढ़ते लन्दन की बसों पर नई हिंदी फिल्मो और सास बहूँ वाले हिंदी सीरियल के विज्ञापन चस्पा नजर आते हैं.डर लगने लगा है कि जल्दी ही कहीं सास बहू के झगडे यहाँ भी कहानी घर घर की न हो जाये.
पहले से ही लन्दन भारतीय व्यंजनों का शौक़ीन रहा है. पूरे लन्दन में भारतीय रेस्टोराँ की भरमार है और भारतीय टेक अवे तो हर मोड पर मिल जाते है.इंडियन करी तो ब्रिटिश भोजन का ही एक अहम हिस्सा है.और अब लन्दन के नव निर्मित आलीशान माल्स में भारतीय स्टाल की भागेदारी भी लगातार बढती ही जा रही है. चिकन टिक्का और कबाब के बाद अब भारतीय मिठाइयों और चाट के स्टाल भी अब इन माल्स की शोभा बढ़ा रहे हैं.
ऐसा नहीं है कि सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर ही लन्दन में एशिया का प्रभाव बढ़ रहा है ..बल्कि अब तो लगता है कि लन्दन की समस्याएं भी एशियन होने लगी हैं.जहाँ एक ओर लन्दन में पानी की कमी से होने वाले सूखे की अधिकारिक घोषणा कर दी गई है. पर्यावरण सचिव कैरोलिना स्पेलमन ने लोगों से पानी को किफ़ायत से खर्च करने को कहा है.वही बेरोजगारी, महंगाई , शिक्षा संस्थानों की कमी, निजी स्कूलों का बढता चलन और महँगी दर महँगी होती शिक्षा जैसी समस्यायों से लन्दन लगातार जूझ रहा है. सरकारी अस्पतालों और चिकित्सा व्यवस्था का तो आलम यह है कि साफ़ तौर पर सुना जाने लगा है कि बेहतर और जल्दी इलाज चाहिए तो निजी संस्थानों पर जाइये.एक समय में उम्दा और आधुनिक सुविधाओं वाले इलाज के लिए लन्दन का रुख करने वाले भारतीय अब जच्चगी जैसे सामान्य कार्य के लिए भी वापस अपने देश की उड़ान भरते नजर आते हैं.
शिक्षा के क्षेत्र में भी बढती प्रतियोगिता, निजी स्कूलों का बढता फैशन और महंगाई की हदों को छूती हुई उच्च शिक्षा को देखते हुए वह दिन भी दूर नहीं लगता जब शिक्षा के लिए भी लन्दन से लोग भारत की और मुड़ने  लगेंगे. और भारत अपने अतीत के जगत गुरु होने की भूमिका फिर से निभा पायेगा या नहीं यह देखना दिलचस्प होगा.
अब यह परिस्थितियां सामयिक हैं या वाकई तस्वीर बदल रही है यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा.फिलहाल तो लन्दन आने वाले ओलम्पिक के लिए उत्सुक है जहाँ आरंभिक उत्सव में भारत और एशिया का भी मोहक कार्यक्रम होने की सम्भावना है.अब बेशक हम भारतीय डूबते सूर्य की दिशा में हुंकार लगाते रहें पर कम से कम लन्दन तो उगते सूर्य की दिशा में नजरें उठाये “जय हो” कहता दिखाई देता है.