काव्य का सिन्धु अनंत है
शब्द सीप तल में बहुत हैं।
चुनू मैं मोती गहरे उतर कर
ऊहापोह में ये कवि मन है।
देख मुझे यूँ ध्यान मगन
पूछे मुझसे मेरा अंतर्मन,
मग्न खुद में काव्य पथिक
तुम जा रहे हो कौन पथ पर
तलवार कर सके न जो पराक्रम
कवि सृजन यूँ सबल समर्थ हो
भटकों को लाये सत्य मार्ग पर
तेरी लेखनी में वो असर हो
कल्पना के रथ पर सवार कवि!
जा रहे हो कौन पथ पर।
भावनाओं से ह्रदय भरा है
उस पर धरा का ऋण चड़ा है
एक अमानुष बदल सके तो
समझो काव्य सृजन सफल है
रस ,छंद में उलझ कवि तुम
जा रहे हो कौन पथ पर….