कोई आपसे कहे कि लंदन की थेम्स से आजकल गंगा – जमना की खुशबू आ रही है तो क्या आप यकीन करेंगे? शायद नहीं, शायद क्या, बिलकुल नहीं करेंगे। क्योंकि ज़माना कितना भी आगे बढ़ गया हो इतना तो अभी नहीं बढ़ा कि नदियों की खुशबू सात समुन्द्र पार मोबाइल से पहुँच जाए. परन्तु लंदन में दस दिन से ऐसा ही कुछ नजर आ रहा है. लगता है लन्दन के दिल में “छोटा भारत” नामक नगर बसा दिया गया है. असल में बात यह है कि थेम्स के किनारे बने साउथ बैंक के इलाके में आजकल साउथ ईस्ट मेला लगा हुआ है. जिसमें पन्द्रह मई से पच्चीस मई तक भारत, पाकिस्तान, , श्रीलंका, बंगलादेश आदि देशों से सम्बंधित लगातार गतिविधियां और कार्यक्रम हो रहे हैं. पूरा इलाका एशियाना बना हुआ है. 

एशियाई मूल के कलाकारों का हुनर हो या ब्रिटेन में एशियाई लोगों की समस्या या उपलब्धियां सभी पर विभिन्न चर्चाओं से साउथ बैंक सेंटर गूंजता रहता है. 
कोहिनूर, कराची, अफगानिस्तान की लोक कथाएं, भारतीय संगीत और नृत्य का जादू, युवाओं का बैंड या फिर बीबीसी में एशियन, कोई भी विषय इस मेले से अछूता नहीं है. और किसी भी कार्यक्रम में सीटें खाली मिलें ऐसा भी नहीं है. जाहिर है कि बहुसांस्कृतिक इस शहर के लोग वाकई इतने संस्कृति प्रिय हैं कि एक ही जगह पर पूरे दक्षिणी एशिया को देखने और समझने का मौका वे महँगी टिकट के वावजूद भी छोडना नहीं चाहते. 
रॉयल फेस्टिवल हॉल में घुसते ही कानों में पुराने हिंदी फिल्मों के मधुर गीतों की ध्वनि पड़ती है. मैं उत्सुकता वश उस तरफ कदम बढाती हूँ तो पुरानी फिल्मों के पोस्टर से सजा एक बड़ा सा कोना दिखाई पड़ता है और उसके सामने महफ़िल को सजाने के पूरे इंतजाम गद्दे और मसंद लगा कर किये गए हैं. पता चलता है वहाँ हिन्दुस्तानी संगीत का कोई कार्यक्रम होने वाला है. मैं उसका समय पता कर आगे बढती हूँ तो रिवर साइड टेरेस कैफे पर समय- समय पर विभिन्न संगीत समूहों द्वारा प्रदर्शन की पूरी लिस्ट की एक बुकलेट मिलती है. यानि १० दिन तक थेम्स के सानिध्य में संगीत लहरियों से रूह को सहलाने के पूरे प्रबंध हैं. एक फब्बारे को पार कर आगे बढती हूँ तो दो दिन के लिए कुइन एलिजाबेथ हॉल में जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल होने की सूचना देता एक बड़ा सा पोस्टर दिखाई पड़ता है. कुछ इंग्लैंड से और कुछ भारत से आये प्रतिष्ठित व्यक्तियों, वी एस नायपॉल से लेकर शबाना आज़मी तक की सूची को पढ़ती हुई मैं अंदर घुसती हूँ तो वहाँ एक छोटा सा भारत बसा हुआ दिखाई पड़ता है. सामने दीवार पर हिंदी, पंजाबी, उर्दू फिल्मों के पोस्टर, भारतीय संस्कृति को दर्शाने के लिए कुछ खास सामान और स्पीकर पर आती हुई भारतीय संगीत ध्वनि. कहीं महाभारत पर चर्चा है तो कहीं नारीवाद पर, कहीं हिन्दुस्तानी भाषा पर तो कहीं बॉलीवुड पर. कुछ क्षण के लिए यकीं नहीं होता कि इस जगह के बाहर कोई दूसरा देश है. 
परन्तु यह काफी नहीं है.दूसरी तरफ देखिये तो एशियाई व्यंजनों की खुशबू बेचैन किये रहती है. एक बड़े से इलाके में विभिन्न दक्षिणी एशियाई व्यंजनों के छोटे- बड़े स्टाल रही सही कसर भी पूरी कर देते हैं. हर स्टाल पर व्यंजन प्रेमियों की भीड़ और बड़े चाव से भेलपूरी, पानी पूरी और कबाब , बिरयानी का लुत्फ़ उठाते देशी विदेशी नागरिक – वसुधैव कुटुम्बकम की धारणा को चरितार्थ करते दिखाई पड़ते हैं. देशी व्यंजनों के नाम अपने खास अंदाज में उच्चारित कर उसका स्वाद पूछते विदेशी ग्राहक, चाय, मेंगो लस्सी और पकोड़ों के जल्दी जल्दी खतम होते स्टॉक और हाथ में डोसे, जलेबी के पैकेट लिए बैठने की जगह तलाशते लोग, ऐसा माहौल बना रहे थे कि १० दिन के लिए थेम्स के किनारे इस खूबसूरत इलाके में सच में गंगा जमना बहा दी गई हो. या फिर पूरे दक्षिण एशिया को छोटा सा करके कुछ दिन के लिए यहाँ स्थापित कर दिया गया हो. किसी शायर ने क्या खूब कहा है – 
नींद मिट्टी की महक सब्ज़े की ठंडक, 
मुझ को मेरा घर बहुत याद आ रहा है.
जो भी हो पर अंग्रेजी बहार के इस मौसम में अपनी मिट्टी की खुशबू लिए यह दस दिन का महोत्सव एशियाई मूल के लन्दन वासियों के लिए, एक वतन से आए हवा के झोके सा तो अवश्य ही है. 
जैसे कि कैफ़ी आज़मी कहते हैं –
मेरा बचपन भी साथ ले आया 
गाँव से जब भी आ गया कोई.