चल पड़े जिधर दो डग मग में 

चल पड़े कोटि पग उसी ओर.
ये पंक्तियाँ बचपन से ही कोर्स की किताबों में पढ़ते आ रहे थे .गाँधी को कभी देखा तो ना था. पर अहिंसा और उपवास से अंग्रेजी शासन तक का तख्ता पलट दिया था एक गाँधी नाम के अधनंगे फ़कीर से वृद्ध ने. यही सुनते आये थे. अंग्रेजों की गुलामी से आजादी तो मिल गई परन्तु इस प्रगति शील देश में भ्रष्टाचार की प्रगति भी होती गई. और इसी बीच अचानक एक ७२ साल वृद्ध ने भ्रष्टाचार के खिलाफ गाँधी वादी अनशन की घोषणा कर डाली.रोजमर्रा के कामो में भी भ्रष्टाचार से जूझने  वाली जनता को अचानक इस वृद्ध में गाँधी दिखाई देने लगे .जन आन्दोलन की ऐसी आंधी चली कि जिन युवाओं ने कभी गाँधी को देखा ना था.शायद कभी जाना भी ना था. उन्हें लगा कि गाँधी ऐसे ही होते हैं. वही अवस्था, वही तरीका. अब तो दशा सुधरकर ही रहेगी, किसी ने हाल ही में ईजिप्ट  में हुई जनक्रांति का हावाला दिया. तो किसी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ गाँधीवादी आन्दोलन का. और एक जन सैलाब इस अभियान से जुड़ गया.  इसे जनक्रांति का आगाज़ माना जाने लगा .
पहली बार लगा कि मीडिया अपना काम कर रही है. किसी लाला या नेता की भाषा नहीं बोल रही. पहली बार किराये की भीड़ नहीं बल्कि आम जनता का सैलाब दिखाई दिया , पहली बार किसी आन्दोलन में आगजनी नहीं हुई, पुतले नहीं फूंके गए ,निर्दोषों पर लाठियां नहीं बरसीं .और पहली बार देश का युवा वर्ग भारी संख्या में इस अहिंसावादी आन्दोलन का हिस्सा बन गया .इस आशा में कि गाँधी जी के अनुयायी अन्ना, गाँधी ही के तरीके से अब व्यवस्था सुधार कर ही रहेंगे.लोकपाल बिल के आते ही जादू की  छड़ी से सब अचानक सुधर जायेगा.और फिर वे भी एक सुव्यवस्थित और न्यायप्रिय समाज का हिस्सा होंगे.पर उन्हें क्या पता था कि भले ही गाँधी की नीयत में कोई खोट ना हो.परन्तु कुछ खास प्रिय लोग और कृपा पात्र उनके भी थे. जिन्होंने उनकी आड़ में अपनी रोटियाँ जम कर सेकीं.उन्हें क्या पता था कि इस समिति के सदस्य अचानक कहाँ से आये ?और उन्हें किस तरह चुना गया?. वे क्यों ये सोचते  कि समिति के सदस्य भी वही सब नहीं करेंगे  जो अब तक सरकारी महकमो में होता आया है. उन्हें तो बस अन्ना में अपने राष्ट्रपिता का रूप दिखाई दिया और उसी के पीछे वे हो लिए.
हर अखबार , हर नुक्कड़ हर चैनल पर बस अन्ना…  अन्ना…..और अन्ना … .अंतर्जाल भी बिछ गया अन्ना और आन्दोलन के लेखों से. हर कोई बस लिख रहा था और लिख रहा था अन्ना पर. और जिस शिद्दत से लिख रहा था और इस आन्दोलन में अपनी उपस्थिति दिखा रहा था अगर उसका एक चौथाई भी काम अपने सरकारी मकहमे में बैठ कर अपने कर्तव्यों के पालन के लिए किय होता तो शायद एक ७२ वर्षीय वृद्ध को भूखे पेट अनशन पर बैठना ही ना पड़ता. 
परन्तु हमारे देश में तो यही रिवाज़ है जो जोर से बोलता दिखा उसी के पीछे हो लिए .बिना ये सोचे कि अचानक इस आन्दोलन की किसी को भी सूझी कैसे? बिना ये जाने कि इसके व्यवस्थापकों ने इसकी व्यवस्था कब और कैसे की . हम ये क्यों सोचे कि बला की ढीट सरकार अचानक से कैसे इतनी मुलायम हो गई कि इस आन्दोलन का पक्ष लेने लगी और जिस देश में अनगिनत मुद्दे और केस सालों साल चला करते हैं वहीँ ये सरकार तुरंत ही अन्ना की शर्तें क्यों मान गई. तुरत फुरत में ही समिति बन गई. कोई यह सोचने को तैयार नहीं कि वे सब कौन है …अरे जाने दीजिये उन्हें. अगर जनता के हुजूम में पत्थर फेंक कर भी समिति का सदस्य चुना जाता तो हमारे भृष्ट प्रशासन में पहुँचते ही वह भी खरबूजे की तरह रंग बदल लेता और यहाँ तो उसी प्रशासन और राजनीति की चाशनी में पके हुए योद्धा हैं सब. क्या गारंटी है कि वे पाक साफ़ निकल आयेंगे.
जो भी हो …जो भी मकसद हो इस आन्दोलन का …और जो भी परिणाम निकले.
 मुझे बस एक बात अच्छी लगी कि जो भी हुआ शांति पूर्ण तरीके से हुआ और देश के हर वर्ग और आयु का व्यक्ति उसमें शामिल था.
और डर है तो वह भी एक, कि इतनी शिद्दत और लगन से युवाओं ने इस आन्दोलन में हिस्सा लिया ,आशाएं उनके मन में जगीं,सपने जगे …अगर यदि वे टूटे तो……इस देश का युवा टूट जायेगा …और यदि ऐसा हुआ तो …ये देश कहाँ बच पायेगा...