जब से इस दुनिया की आधी आबादी ने अपने अस्तित्व की लड़ाई आरम्भ की तब से अब तक यह लड़ाई न जाने किन किन मोड़ों से गुजरी। कभी चाहरदिवारी से निकल कर बाहर की दुनिया में कदम रखने के लिए लड़ी गई, कभी शिक्षा का अधिकार मांगती, कभी अपने फैसले खुद करने के लिए लड़ती तो कभी कार्य क्षेत्र में समान अधिकारों की मांग करती। अपने लिए न्याय की मांग करती ये लड़ाई आधुनिक समय में काफी हद तक आगे निकल आई. परन्तु कालांतर में आते आते इसने अपना मूल मकसद खो दिया और एक इंसानी आस्तित्व की लड़ाई, दूसरी आधी आबादी से बराबरी की होड़ की लड़ाई बन गई. अब सवाल यह नहीं बचा कि सही क्या है? अधिकार क्या हैं ? आजादी क्या है? सवाल बचा तो सिर्फ यह कि वे यह कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं ? उन्हें ये मिलता है तो हमें क्यों नहीं ? और हमारे इस आधुनिक समाज में आधुनिकता की परिभाषा मानसिक और नैतिक आजादी न होकर सिर्फ कपड़ों, खाना पीना और भोग विलास या तफरी तक सिमित रह गई.
अब उसे शिक्षा प्राप्त करने से कोई रोकने वाला नहीं है. शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ उसने अपनी योग्यता न साबित की हो. वह आर्थिक रूप से सम्बल हुई तो अपने फैसले लेने का अधिकार भी उसने पाया। अपने पैरों पर खड़ी हुई तो अपने जीवन को अपनी मर्जी से जीने का हक़ उसने लिया। आज इस दुनिया के अधिकतर समाजों में कानूनी रूप से यह आधी आबादी पूर्णतया स्वतंत्र है. कानूनी रूप से उसे वे सभी अधिकार प्राप्त हैं जो एक पुरुष को हैं.
इस अधिकार का पश्चिमी देशों में तो महिलाओं ने खुल कर उपयोग किया खुद को सामाजिक ही नहीं आतंरिक रूप से भी आजाद करने में वे काफी हद तक सफल रहीं।एक स्वछन्द , आत्मनिर्भर जीवन जीने में अब वह आमतौर पर कोई रूकावट महसूस नहीं करतीं हैं. हालाँकि कुछ समस्याएं अभी भी हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से इन समाजों में भी अब तक पाई जाती हैं. परन्तु हमारे (एशियाई )भारतीय समाज में यह स्वतंत्रता जैसे अभी तक अपने सही गंततव तक पहुँचने में असफल प्रतीत होती है. हमारे देश में भी नारी ने स्वतंत्रता हासिल तो कर ली, लड़ कर पुरुषों के समान सारे हक़ भी ले लिए परन्तु कहीं न कहीं आधुनिकता की इस दौड़ में मानसिक,और संवेदात्मक रूप पुरुषों की बराबरी करने में वह अब भी पीछे रह गई है.
आज आधुनिक नारी के नाम पर वह आधुनिक लिबास पहनने लगी, स्वछन्द विचरण करने लगी, खुद कमा कर अपना जीवन अपनी मर्जी से तो जीने लगी परन्तु भावात्मक रूप से फिर भी स्वतंत्र नहीं हो पाई. आज भी जब इस आधुनिक नारी को प्रेम में असुरक्षा महसूस होती है तो वह टूट जाती है. आज भी अपने साथी को अपने से दूर जाते देश वह बर्दाश्त नहीं कर पाती। और आज भी प्रेम में असफलता और असुरक्षा उसके लिए सबसे बड़ा अवसाद और विषाद का कारण होता है. वह दिमाग से तो जीत जातीं हैं पर दिल के हाथों मार खा जातीं हैं.
फिर बेशक हम किसी भी समाज या परिवेश में रहें उस भावात्मक गुलामी से नहीं निकल पाते।
मुझे याद आ रहा है अभी पिछले कुछ समय का ही लंदन का एक वाकया। जब एक एशिया मूल की एक अत्याधुनिक युवती ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसे अपने प्रेम प्रसंग का समाज और परिवार के समक्ष उजागर हो जाने का डर था.
भारत में तो ना जाने कितनी आधुनिक और आर्थिक रूप से सफल कही जाने वाली महिलायें प्रेम में असफल हो कर या तो आत्महत्या कर लेती हैं या फिर इस असफलता और असुरक्षा को न झेल पाने के कारण अवसाद का शिकार हो दिमागी रूप से बीमार हो जाती हैं. अत्याधुनिक कहे जानी वाली भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री और हमारे समाज के उच्च और शिक्षित वर्ग में, दिव्या भारती, ज़िया खान और हाल में सुनंदा पुष्कर जैसे कितने ही ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे। दुर्भाग्यवश आधुनिकता के बढ़ने से साथ साथ ऐसे हादसों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है.
शायद समय आ गया है जब हम यह विचार करें कि आधुनिकता का अर्थ आखिर है क्या।आधुनिक कपड़े पहनकर, शराब सिगरेट पीकर या डिस्को में जाकर हम खुद को स्वतंत्र आधुनिक नारी का तमगा नहीं दे सकते। नारी तब आजाद होगी जब वह अपने मन से अपने दिमाग से आजाद होगी। जब वह भावात्मक रूप से भी उतनी ही मजबूत और समर्थ होगी जितनी वह शारीरिक और आर्थिक रूप से है. जिसदिन उसे अपने साथी की वेवफाई आत्महत्या करने को या पागल हो जाने को मजबूर नहीं करेगी। जिसदिन वह अपनी भावनाओं पर काबू पाकर आगे बढ़ना और लड़ना सीख लेगी हमारे समाज की नारी उसदिन आधुनिक और स्वतंत्र होगी।
फिलहाल तो अपने समाज में नारी की अवस्था पर यह फिकरा याद आता है कि – लड़कर पुरुषों की बराबरी तो कर लोगी पर उनके जैसा कड़ा जिगरा कहाँ से लाओगी ?
अब उसे शिक्षा प्राप्त करने से कोई रोकने वाला नहीं है. शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ उसने अपनी योग्यता न साबित की हो. वह आर्थिक रूप से सम्बल हुई तो अपने फैसले लेने का अधिकार भी उसने पाया। अपने पैरों पर खड़ी हुई तो अपने जीवन को अपनी मर्जी से जीने का हक़ उसने लिया। आज इस दुनिया के अधिकतर समाजों में कानूनी रूप से यह आधी आबादी पूर्णतया स्वतंत्र है. कानूनी रूप से उसे वे सभी अधिकार प्राप्त हैं जो एक पुरुष को हैं.
इस अधिकार का पश्चिमी देशों में तो महिलाओं ने खुल कर उपयोग किया खुद को सामाजिक ही नहीं आतंरिक रूप से भी आजाद करने में वे काफी हद तक सफल रहीं।एक स्वछन्द , आत्मनिर्भर जीवन जीने में अब वह आमतौर पर कोई रूकावट महसूस नहीं करतीं हैं. हालाँकि कुछ समस्याएं अभी भी हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से इन समाजों में भी अब तक पाई जाती हैं. परन्तु हमारे (एशियाई )भारतीय समाज में यह स्वतंत्रता जैसे अभी तक अपने सही गंततव तक पहुँचने में असफल प्रतीत होती है. हमारे देश में भी नारी ने स्वतंत्रता हासिल तो कर ली, लड़ कर पुरुषों के समान सारे हक़ भी ले लिए परन्तु कहीं न कहीं आधुनिकता की इस दौड़ में मानसिक,और संवेदात्मक रूप पुरुषों की बराबरी करने में वह अब भी पीछे रह गई है.
आज आधुनिक नारी के नाम पर वह आधुनिक लिबास पहनने लगी, स्वछन्द विचरण करने लगी, खुद कमा कर अपना जीवन अपनी मर्जी से तो जीने लगी परन्तु भावात्मक रूप से फिर भी स्वतंत्र नहीं हो पाई. आज भी जब इस आधुनिक नारी को प्रेम में असुरक्षा महसूस होती है तो वह टूट जाती है. आज भी अपने साथी को अपने से दूर जाते देश वह बर्दाश्त नहीं कर पाती। और आज भी प्रेम में असफलता और असुरक्षा उसके लिए सबसे बड़ा अवसाद और विषाद का कारण होता है. वह दिमाग से तो जीत जातीं हैं पर दिल के हाथों मार खा जातीं हैं.
फिर बेशक हम किसी भी समाज या परिवेश में रहें उस भावात्मक गुलामी से नहीं निकल पाते।
मुझे याद आ रहा है अभी पिछले कुछ समय का ही लंदन का एक वाकया। जब एक एशिया मूल की एक अत्याधुनिक युवती ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसे अपने प्रेम प्रसंग का समाज और परिवार के समक्ष उजागर हो जाने का डर था.
भारत में तो ना जाने कितनी आधुनिक और आर्थिक रूप से सफल कही जाने वाली महिलायें प्रेम में असफल हो कर या तो आत्महत्या कर लेती हैं या फिर इस असफलता और असुरक्षा को न झेल पाने के कारण अवसाद का शिकार हो दिमागी रूप से बीमार हो जाती हैं. अत्याधुनिक कहे जानी वाली भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री और हमारे समाज के उच्च और शिक्षित वर्ग में, दिव्या भारती, ज़िया खान और हाल में सुनंदा पुष्कर जैसे कितने ही ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे। दुर्भाग्यवश आधुनिकता के बढ़ने से साथ साथ ऐसे हादसों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है.
शायद समय आ गया है जब हम यह विचार करें कि आधुनिकता का अर्थ आखिर है क्या।आधुनिक कपड़े पहनकर, शराब सिगरेट पीकर या डिस्को में जाकर हम खुद को स्वतंत्र आधुनिक नारी का तमगा नहीं दे सकते। नारी तब आजाद होगी जब वह अपने मन से अपने दिमाग से आजाद होगी। जब वह भावात्मक रूप से भी उतनी ही मजबूत और समर्थ होगी जितनी वह शारीरिक और आर्थिक रूप से है. जिसदिन उसे अपने साथी की वेवफाई आत्महत्या करने को या पागल हो जाने को मजबूर नहीं करेगी। जिसदिन वह अपनी भावनाओं पर काबू पाकर आगे बढ़ना और लड़ना सीख लेगी हमारे समाज की नारी उसदिन आधुनिक और स्वतंत्र होगी।
फिलहाल तो अपने समाज में नारी की अवस्था पर यह फिकरा याद आता है कि – लड़कर पुरुषों की बराबरी तो कर लोगी पर उनके जैसा कड़ा जिगरा कहाँ से लाओगी ?
“India unlimited” में प्रकाशित।
स्त्री प्रत्येक निर्णय लेने से पूर्व बस इतना मनन कर ले कि अगर उस स्थिति में पुरुष होता तो क्या करता ,उसे स्वयं ही समझ में आ जाएगा अभी कितनी स्वतंत्र हो पाई है वह ,सोचने, समझने, करने और निभाने में ।
एक दम सही कहा शिखा….मानसिक रूप से सुदृढ़ और स्वतंत्र होना ज़रूरी है….
तुमने जिन औरतों के उदहारण दिए उनका आत्महत्या करना सचमुच उद्वेलित करता है….
बहुत बढ़िया आलेख…मन में उथल-पुथल मचा दी.
अनु
सहमत हूँ |
सधे हुए विचार …..
असहमति की कोई गुंजाइश नहीं है. नपा तुला!
बहुत सही …होना तो ऐसा ही चाहिए मगर नारी है ही ईश्वर की बनाई हुई भावपूर्ण मूर्ति की तरह और उसका भावनात्मक रूप से कठोर हो जाना असंभव सी बात लगती है। निर्विवाद रूप से श्रेष्ठ आलेख…
शिखा जी , बहुत ही सही सवाल उठाया है आपने ।
अधिकार के निष्कर्ष सहजीवन को पददलित करने के पहले रुक जायें, तभी सुख संभव।
कुछ हद तक हमारा परिवेश … पारिवारिक ढांचा, जाने अनजाने हम भी जिम्मेवार हैं इसके लिए क्योंकि लड़की का लालन पालन वैसा नहीं करते जो उन्हें मानसिक रूप से मजबूत बनाए …
जिस दिन वह अपनी भावनाओं पर काबू पाकर आगे बढ़ना और लड़ना सीख लेगी हमारे समाज की नारी उसदिन आधुनिक और स्वतंत्र होगी….
ताजा प्रकरण याद आ गया सुनंदा पुष्कर का ! मानसिक दृढ़ता भी आवश्यक है !
सुचिंतित आलेख !
jis din wo apny man apni bhawanao par samchit control karna seekh jayegi tab sahi mayano main wo aagy badh jayegi………….
ऎसी भी क्या होड़ !
बिना किसी पूर्वाग्रह के, यथार्थ के धरातल पर सार्थक विवेचन!!
जिसदिन उसे अपने साथी की वेवफाई आत्महत्या करने को या पागल हो जाने को मजबूर नहीं करेगी। जिसदिन वह अपनी भावनाओं पर काबू पाकर आगे बढ़ना और लड़ना सीख लेगी हमारे समाज की नारी उसदिन आधुनिक और स्वतंत्र होगी।
बिलकुल यथार्थ विश्लेषण ….. जब तक मानसिक रूप से दृढ़ता नहीं आएगी तब तक स्वतंत्रता भी नहीं मिलाने वाली …
हालांकि परिस्थितियाँ अब काफी बदल गई हैं और महिलाएं भी भावनात्मक रूप से मज़बूत हुई हैं , फिर भी प्रेम की यही भावनाएं उन्हे पश्चिमी महिलाओं से अलग करती हैं ! एक तरह यह अच्छा ही है , वरना क्या फर्क रह जायेगा ! लेकिन आत्महत्यायें बढ़ी हैं , ऐसा तो नहीं लगता ! अब लड़कियां तलाक लेने मे भी नहीं हिचकती और जिंदगी मे आगे बढ़ जाती हैं !
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ट्रेन छूटे तो २ घंटे मे ले लो रिफंद, देर हुई तो मिलेगा बाबा जी का ठुल्लू मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
यथार्थ…….
"फिर बेशक हम किसी भी समाज या परिवेश में रहें उस भावात्मक गुलामी से नहीं निकल पाते।
मुझे याद आ रहा है अभी पिछले कुछ समय का ही लंदन का एक वाकया। जब एक एशिया मूल की एक अत्याधुनिक युवती ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसे अपने प्रेम प्रसंग का समाज और परिवार के समक्ष उजागर हो जाने का डर था. "
…. यही सच है ….सटीक लेख …..
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स्त्री के सामने इतनी चुनौतियाँ हैं कि उनसे जूझते-जूझते चुकने लगती है ,एक और मुश्किल अपनी बात खुल कर किसी से कह नहीं पाती -द्विधा में कि कोई उसे समझेगा भी या उसे ही दोषी ठहरा देगा .सबसे अधिक आलोचना ,और शंकाएँ ,स्त्रियों की ओर से ही उठाई जाती हैं हताशा में अकेली पड़ कर क्या पता उसके मन में क्या आ जाए और वह क्या कर डाले .
.यथार्थ से परिचय कराता आपका यह आलेख बहुत ही अच्छा लगा।बहुत ही सुदर अभिव्यक्ति। मेरे नए पोस्ट Dreams also have life पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।
Manu ka yah manav putra niras nhi ,nav dharma pradip avasay jlega…..
nari jabtak pana chahegi use kuchh hath nahi ayega .jo kuchh wo pana chahti hai use mila hua hi hai han pane ki chahat me wo khoti chali jati hai.jiwan asurakchhit hai aur yehi uski kubsurti hai.surakchhit jiwan me jiwan kahan hota hai?kisi methe pokhar ko charo taraf pathharaon se gher diya jaye to pani ka jiwan kahan phir?pani ki surakchha se pokhar to dam tor dega na shikha ji?karne se jyada mahatypurn hota hai hona.jivan ke un rangon ki charcha to hoti hi nahi jinka charcha lajimi hai.budhi sastra se thora satark rahne ki jarurat hai.dekhiye,jo chijen dikhti hain wo hoti nahi hain aur jo hoti hain dikhti nahi hain…..totli zaban se bachha kuchh kahe aur maa ke palle na pade to usme bachhe ka keya dosh?.samajh rahin hain na?zaruri hai.ek lamha ankaha sa—–dr manoj singh.astrologermanbaba@gmail.com 09934018642.
kahne ko cheharon ka kafila hai.
har koi kahin na kahin mubtaka hai.
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