10वीं 12वीं का रिजल्ट आया. किसी भी बच्चे के 90% से कम अंक सुनने में नहीं आये. पर इतने पर भी न बच्चा संतुष्ट है न उनके माता पिता। इसके साथ ही सुनने में आया पिछड़ी पीढ़ी का आलाप कि हमारे जमाने में तो इसके आधे भी आते थे तो लड्डू बांटते थे. 
यह मुझे कुछ ऐसा ही लगता है जैसे हमारे माता -पिता हमें जेब खर्च देते हुए कहा करते थे – ” हमें पांच पैसे मिलते थे रोज स्कूल जाते समय, वे काफी होते थे और अब तुम लोगों को पांच रुपये में भी शिकायत है” 
तब बच्चों का जबाब यही हुआ करता था कि तब उन पांच पैसे में आपकी इच्छा पूर्ती हो जाती थी. आप जो चाहते थे वह उनसे पाया जा सकता था. परन्तु अब पांच रुपये में कुछ भी नहीं आता.
तो क्या यही स्थिति शिक्षा की हो गई है. मुद्रा की गिरावट की तरह ही शिक्षा का स्तर भी गिरा है. क्योंकि तब पास होने वाला बच्चा भी अपना मकसद पा जाता था. पहली श्रेणी में पास होने वाला अपनी पसंद का संस्थान और विषय पा जाता था. परन्तु अब 90% वाले को भी न तो इच्छित विषय मिलता न संस्थान और नौकरी की तो खैर बात ही छोड़ दो.
अब सवाल यह उठता है कि –
इन नंबरों की भरमार में क्या ज्ञान भी उतना ही है?
यह 90% उन 60% से कितने बेहतर हैं?
यदि बेहतर हैं तो फिर उन्हें वह क्यों नहीं मिलता जिसके वे लायक हैं ?
और यदि बेहतर नहीं हैं तो नंबरों की इस रेस का मतलब क्या है?
क्योंकि यह तो पक्का है कि अब के बच्चे पहले के बच्चों के मुकाबले मेहनत बहुत अधिक करते हैं. हड्डियां गलाकर थोक में नंबर लाते हैं. परन्तु फिर भी नतीजा कुछ नहीं निकलता। आखिर क्यों ?
बच्चों में बढ़ता तनाव, अवसाद, असंतोष और ये नंबरों की दौड़ से उत्पन्न आत्महत्या की प्रवर्ति इन सबकी जिम्मेदार है हमारी शिक्षा व्यवस्था.
हम ले दे कर माता पिता पर इसका सारा दोष मढ़ देते हैं कि वे बच्चों पर अतिरिक्त बोझ डालते हैं. या वे अपने सपनो कि पूर्ती अपने बच्चों के माध्यम से चाहते हैं. पर क्या वाकई माता – पिता का इतना दोष है? क्या वे इस व्यवस्था के अनुसार चलने के लिए मजबूर नहीं हैं? आखिर किस माता – पिता को शौक होता है अपने बच्चों पर बोझा लादने का. हर इंसान अपने बच्चे का सुनहरा भविष्य चाहता है और उसके लिए उससे जो भी बन पड़ता है वह करता है. फिर कमी कहाँ हैं ? समस्या क्या है ? 
समस्या हमारी शिक्षा व्यवस्था की जड़ में ही है. नर्सरी में दाखिले से लेकर कॉलेज के दाखिले तक मची हुई भागम भाग की है. जरूरत इस गल चुकी शिक्षा व्यवस्था को जड़ से उखाड कर दूसरी रोपने की है. 
वर्ना अपने बेहतर समाज के लिए जिन संस्थानों से हम सुनहरे भविष्य के लिए सोना निकालना चाहते हैं वहाँ से सोने का पानी चढ़ा हुआ तांबा ही मिलेगा।