बसंत पंचमी ( भारतीय प्रेम दिवस ) बीत गया है ,पर बसंत चल रहा है और वेलेंटाइन डे आने वाला है ..यानी फूल खिले हैं गुलशन गुलशन ..अजी जनाब खिले ही नहीं है बल्कि दामों में भी आस्मां छू रहे हैं ,हर तरफ बस रंग है , महक है ,और प्यार ही प्यार बेशुमार . …वैसे मुझे तो आजतक ये प्यार का यह फंडा ही समझ में नहीं आया ….कहीं कहा जाता है ..प्यार कोई बोल नहीं ,कोई आवाज़ नहीं  एक ख़ामोशी है सुनती है कहा करती है …तो कहीं कहा जाता है ….दिल की आवाज़ भी सुन ….

अजीब कन्फ्यूजन है …वैसे अगर आप गौर फरमाएं तो प्यार की परिभाषाएं कुछ इस तरह भी हो सकती हैं .
 
एक नन्हे बच्चे के लिए माँ है प्यार …
स्कूल जाता है तो स्कूल की  छुट्टी है प्यार..
थोड़ा और बड़ा होता है तो टीचर है प्यार…
एक कुंवारे के लिए एक करोणपति की इकलौती बेटी है प्यार
और एक नवयुवती के लिए कोई मिस्टर परफेक्ट है प्यार.
एक गृहणी के लिए सुकून के दो पल हैं प्यार
एक पति के लिए पत्नी का मौन है प्यार.
एक अधेड़  पुरुष के लिए किसी कमसिन का हेल्लो हो सकता है प्यार
एक कवि के लिए चाँद है प्यार
और एक पाठक के लिए कवि की कविताओं से बच पाना है प्यार .

तो जी प्यार एक, रूप अनेक टाइप बात है कुछ. ..जरा सोचिये  वेयर इस द टाइम टू  हेट, व्हेन देयर इज सो सो मच टू  लव …
यूँ  मुझे इस प्रेम उत्सव से ज्यादा प्यार  रंग उत्सव से है जिसका ऑफिशियल  आगाज बसंतपंचमी से  हो जाता है ...खासकर कुमायूं में तो हो ही जाता है. जहाँ बचपन में मनाई होली की तस्वीरें अब तक मेरे ज़हन में ताज़ा हैं. वहां बसंतपंचमी से ही होली की बैठकें शुरू हो जाती थीं .यानी बारी बारी हर एक के घर में बैठक होती जहाँ होली की टोली/मंडली हारमोनियम ,ढोलक के साथ पहुँचती और ” जल कैसे भरूँ जमना गहरी ” और ” काली गंगा को कालो पानी ” की सुर लहरियां गूंजने लगतीं, फिर  जलपान के साथ संध्या का समापन होता और यही कार्यक्रम होली तक जारी रहता. .फिर होली वाले दिन भी ऐसी ही टोली में सब निकलते और नाचते गाते  एक एक के घर जाते एक दूसरे को अबीर गुलाल लगाते और फिर वह भी टोली में शामिल हो जाता ..मैंने आजतक इतनी साफ़ सुथरी ,सभ्य ,सुघड़ और रोचक होली और कहीं नहीं देखी .


कुमाऊँनी होली बैठक .
फिर पहाड़ों  से निकल कर मैदानों में आये तो देखा होली का विकराल रूप. जितने तथाकथित सभ्य लोग उतना ही असभ्य  होली मनाने का तरीका .जहाँ जब तक कीचड़ में न फैंका जाये किसी का फगवा पूरा नहीं होता था.रंग ,कीचड़,कोलतार जो मिले पोत दो. होली से एक दिन पहले तैयारी में और दो दिन बाद के , सही दशा में आने में बेकार …पर फिर भी होली है भाई होली है
पर सबसे यादगार रही उसके बाद मोस्को के होस्टल में  मनाई गई होली जहाँ किसी भी तरह का रंग ,गुलाल का इस्तेमाल संभव नहीं था. तो शुरुआत तो हुई हम लड़कियों की  लिपस्टिक से सभी कुछ बहुत ही सभ्य तरीके से चल रहा था लिपस्टिक से टीके लगाये जा रहे थे ज्यादा से ज्यादा उसी से मूंछे दाड़ी बना दी जा रही थीं. अब वो जाने होली की खुमारी थी या विनाश काले विपरीत बुद्धी ,अचानक एक महाशय को जाने क्या सूझा, दाल गरम करते दूसरे महानुभाव पर जरा सा पानी छिड़क दिया… और बस.. फिर तो  लेकर उन्होंने दाल का पतीला ही पहले वाले पर उलट दिया और जी शुरू हो गई दाल,, चावल , मसालों की खाती पीती होली .दाल चावल,सब्जी  और मसाले ख़तम हो गए तो .तो फ्रिज से  निकाल कर हर चीज़ इस्तेमाल की गई और एक बार फिर सदियों बाद भारत में ना सही पर भारत वासियों ने दूध दही की नदियाँ बहा दीं .होली का खुमार उतरा तो समझ में आया कि ये स्व: निर्मित नदिया अपने आप तो सागर में मिलने से रहीं इन्हें इनके गंतत्व तक पहुँचाना भी हम ही को पड़ेगा और फिर हुआ सफाई अभियान और एक हफ्ते तक कमरे से लेकर कपड़ों तक में मसाले की सुगंध आती रही. घर का राशन ख़तम हो गया वो अलग.पर होली मन गई और बहुत खूब मन गई .और मिल गया एक मनपसंद त्यौहार मनाने का आत्मिक सुख..
जी हाँ हमें पता है कि होली अभी दूर है …पर हमने सोचा कि होली पर तो रंग बिरंगी रचनाओं से ब्लॉगजगत सराबोर रहेगा . और हम भी व्यस्त रहेंगे ये रंग  भरा त्यौहार मनाने में , अंग्रेजों के गोरे गालों पर गुलाल वैसे भी बहुत खिलता है..तो हम अपने ब्लॉग पर  अबीर ,गुलाल का एक टीका अभी लगा देते हैं .
आप सभी को रंगों भरे इस मौसम की बहुत बहुत शुभकामनाएं. .
पिछले साल की होली