सृष्टि की शुरुआत से ही दो तरह के मनुष्यों का उदय हुआ , एक नर और एक नारी। जो शारीरिक रूप से एक दूसरे से भिन्न थे. अत: उन्हें मानसिक और भावात्मक रूप से भी एक दूसरे से भिन्न मान लिया गया. जॉन ग्रे ने तो अपनी प्रसिद्द पुस्तक में यहाँ तक कह डाला कि स्त्री और पुरुष अलग अलग गृह के निवासी हैं और पूरी तरह एक दूसरे से भिन्न हैं. जहाँ स्त्री शुक्र गृह से आई है जहाँ के निवासियों का सम्बन्ध सुंदरता से है, वहीँ पुरुष मंगल गृह का निवासी है जहाँ के लोग सख्त और व्यावहारिक  हैं.यहाँ तक तो कोई समस्या नहीं थी कि चलो ठीक है दो तरह के हैं परन्तु हैं तो मनुष्य ही, कार्य अलग अलग हैं दोनों के, परन्तु महत्व तो दोनों का ही है.. समस्या तब उत्पन्न हुई जब समाज पुरुष प्रधान बना, पितृसत्तात्मक समाज ने घोषणा कर दी कि पुरुष मानसिक व् शारीरिक रूप से स्त्री से ज्यादा मजबूत है. और स्त्री का काम सिर्फ स्वयं को तथा घर को संवारना है, कोई भी बुद्धि वाला काम वह नहीं कर सकती। “दिस इज मेंस वर्ल्ड” और यहाँ स्त्रियां सिर्फ सजावटी वस्तु और पुरुष के मनोरंजन का साधन मात्र हैं।  

समान मिट्टी में जन्म लेने वाली दुनिया की आधी आबादी के लिए यह विभाजन असह्य  था, अत: उसने इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठानी आरम्भ की. स्वयं को मानसिक रूप से पुरुष के समकक्ष, समान या बेहतर साबित करने की उसने जी जान से कोशिश की, और काफी हद तक सफल भी हुई. हर क्षेत्र में हर स्थान पर उसने पुरुष के सामने अपनी काबिलियत सिद्ध की और तब से अब तक उसका यह संघर्ष लगातार जारी है.

परन्तु नारी वादियों की इस पुरजोर कोशिश के बाद भी अभी ऐसा बहुत कुछ है जो उनकी सारी मेहनत और सारे संघर्ष को धता बता कर जॉन ग्रे की थिओरी को सच बताने पर तुला हुआ है. इस आधी आबादी की कुछ आबादी ऐसी है जो यह साबित करने पर तुली हुई है कि स्त्रियों का काम सिर्फ संजना संवारना और सुन्दर दिखना है और यही करना उन्हें भाता भी है.

इस विचार धारा के साक्षात उदाहरण आजकल काफी तादात में देखने में आने लगे हैं. 

जहाँ लडकियां खुद को एक गुड़िया की तरह पेश करना चाहती हैं और इस जीती जागती गुड़िया बनने के लिए किसी भी हद  तक गुजर जाती हैं. 


इस तरह के उदाहरण पहले जापान में ही अधिकतर देखे जाते थे परन्तु अब ये यूरोप और अमेरिका के भी देशों में तेजी से फैलते जा रहे हैं.

हाल में ही कैर्लिफोनिया की ३८ वर्षीय बलोदी बेन्नेट ने खुद को बार्बी डॉल जैसा बनाने के लिए अपने शरीर पर ना जाने कितनी सर्जरी कराईं हैं, हजारों पौंड्स खर्च किये हैं. और तो और खुद को इस नकली रूप में ढालने के लिए वह नियमित रूप से  Hypnotherapy के सेशन लेती हैं जो उन्हें इस गुड़िया की तरह ही बिना दिमाग का और कंफ्यूज बनाने में मदद करता है. उनके हिसाब से वह अपने इस प्रयास में सफल भी हो रही हैं. धीरे धीरे वह कंफ्यूज हो रही हैं. उनका दिमाग कम हो रहा है. अब वह एअरपोर्ट पर किसी को लेने जाती हैं तो भूल जाती हैं कि आगमन पर जाना है या प्रस्थान पर. अपनी माँ के घर जाने में रास्ता बार बार भूल जाने से उन्हें ३ घंटे लगते हैं जहाँ वह अपनी पूरी जिंदगी रही हैं. बेन्नेट की जिंदगी का मकसद अब सिर्फ यही है कि लोग उन्हें एक प्लास्टिक की सेक्स डॉल के रूप में देखें जिसे सुन्दर दिखने और खरीदारी करने के अलावा और कोई काम नहीं आता. और अपने इस कार्य से वे बेहद खुश हैं.



ऐसा ही एक और उदारहण ब्रैडफोर्ड (यु के) की २१ वर्षीय ब्लोंड लहराई हैं जो दिन के ४ घंटे अपने आप को बार्बी डॉल बनाने में ही लगाती हैं, नकली पलकों से लेकर कुंतल भर मेकअप की पुताई करके वह जीती जागती बार्बी का खिताब पा गई हैं. 

वहीँ यूक्रेन की मॉडल वलेरिया लुक्यानोवा तो इंसानी बार्बी के तौर पर पूरी दुनिया में प्रसिद्द है. उनके मुताबिक पूरी तरह बार्बी डॉल बनने के लिए उन्होंने खाना पीना तक त्याग दिया है और सिर्फ हवा एवं रौशनी पर ज़िंदा रहती हैं. 
दक्षिणी लंदन की १५ वर्षीय वीनस को यह भूत सवार है और इससे उसकी माँ को भी कोई एतराज़ नहीं। वीनस इस पर अपना ऑनलाइन टूटोरियल चलाती है और आखिरी गणना के अनुसार इसमें उसके ३०,००० दर्शक थे और उसकी सोशल साईट पर २०, ००० फोलोवेर्स हैं. यानि मोहतरमा बहुत प्रसिद्द हैं और अपनी इस अवस्था से बेहद खुश हैं. जाहिर है यह सामान्य लड़कियों की तरह स्कूल नहीं जा सकतीं, इसीलिए इन्हें घर में ही पढ़ा लिया जाता है.

ऐसे ही ना जाने और कितने ही उदाहरण हैं और इनकी संख्या भी लगातार बढ़ रही है.खुद इनके मुताबिक लोग इनका यह रूप बहुत पसंद करते हैं और लडकियां इनकी तरह ही बनना चाहती हैं.सजना और सुन्दर लगना इनका आखिरी ध्येय है इसके अलावा वे कुछ नहीं करना चाहतीं और बस अपनी इन्हीं तस्वीरों को बेच कर उन्हें आमदनी  होती है.

आखिर ऐसा क्या जूनून है जो इतनी तकलीफें, खर्चे और सर्जरी के बाद भी ये स्त्रियां एक बे दिमाग, और प्लास्टिक की सजावटी  गुड़िया बनने पर उतारू हो जाती हैं. शायद बचपन में खेला गया गुड़ियाओं का खेल और उन गुड़ियाओं की सुंदरता इन्हें इन गुड़ियाओं जैसा ही बनने के सपने दिखाती है. 

खुद को प्लास्टिक की खूबसूरत गुड़िया बनाकर ये मुँह चिढ़ाती हैं उन सभी नारी वादी संघर्षों को जो नारी को एक सजावटी और बनावटी वस्तु नहीं, एक तेज़ दिमाग और कामकाजी मनुष्य सिद्ध करने की कोशिश में लगातार जूझ रही हैं. पार्लियामेंट और बड़े कॉपरेट हाउस के उच्च पदों पर स्त्री की कम संख्याओं को लेकर संघर्ष कर रही हैं. अपने आप को काफी हद तक पुरुषों के समान काबिल साबित करने के बाद भी जिनका संघर्ष अभी थमा नहीं है, अभी भी जिन्हें पूर्णत: न्याय नहीं मिला है. और ये प्लास्टिक की इंसानी गुड़ियाएं हैं कि जैसे तुली हुईं हैं, यह साबित करने पर कि हम तो एक ऐसे गृह के निवासी हैं जिन्हें सुन्दर लगने और सजावटी वस्तु बनने के अलावा न कुछ आता है, न किसी और काम के काबिल हैं और न ही कुछ और करना चाहती हैं.