“एक अनुचित और नियम के विरुद्ध स्थानांतरण में,मैंने शासन के कड़े निर्देश का उल्लेख करते हुये ऐसा करने से मना कर दिया। तो महाशय जी ने कलेक्टर से दबाव डलवाया तो मैंने डाँट खाने के बाद लिखा – “कलेक्टर के मौखिक निर्देश के अनुपालन में …. अब मुझे पता है फिर मुझे बहुत बुरी लताड़ पढ़ने वाली है. यहाँ जीना है तो, न चाहते हुए भी बॉस की उचित अनुचित सब बातें माननी ही होती हैं.”

एक दिन एक मित्र ने अपनी व्यथा मुझसे उपरोक्त शब्दों में जाहिर की, मेरा मन उसी दिन से इस झंझावत में उलझा हुआ था, मैं इसपर कुछ लिखना चाहती थी। परन्तु मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इस बॉसिज्म की उत्पत्ति का स्रोत कहाँ है। भारत में तो इसका यह रूप कभी देखने को नहीं मिला करता था। हाँ राजा महाराजाओं के राज्य में, उनका हुकुम चला करता था।परन्तु आम लोगों के बीच यह बॉस संस्कृति शायद नहीं थी।   ज़ाहिर है  कि इसका आगमन भी हमारे यहाँ पश्चिम से आये महानुभावों के साथ ही हुआ होगा। कुछ दिमागी घोड़े दौड़ाये और खोजबीन की तो पता लगा कि इसके बीज अमरीका में उगे थे. वहां बॉसिज्म की परिभाषा कुछ इस तरह इजाद हुई थी – A situation in which a political party is controlled by party managers/ bosses.यानि विशुद्ध राजनैतिक। 

यहीं से इसके बीज उड़ते हुए बाकी दुनिया में फैले होंगे और फिर अंग्रेजों के साथ उनकी “सर” संस्कृति के द्वारा इसने हमारे देश में घुसपैठ की होगी। परन्तु फिर भी काफी हद  तक यह शक्ति या संस्कृति राजनैतिक क्षेत्रों तक ही सिमित थी। फिर इसने सरकारी क्षेत्रों में प्रवेश किया और न जाने कब और कैसे धीरे धीरे जीवन के बाकी क्षेत्रों में भी इसका पदार्पण  होता चला गया।  आलम यह कि जीवन के हर पहलू में यह शब्द इस तरह समा गया कि हर व्यक्ति किसी न किसी का बॉस बनने की इच्छा करने लगा और यह बॉसी आचरण इस कदर फैला कि अपना मूल अर्थ ही खो बैठा। राजनैतिक अधिकार और पावर से निकल कर इसने तानाशाही और मन्युप्लेशन का सा रूप ले लिया।

इसके साथ ही “बॉस इज ऑलवेज राईट” इस सूक्ति का जन्म हो गया. परन्तु बॉस या सर इस शब्द ने इतनी लम्बी यात्रा या इतना विकास शायद सिर्फ भारत में ही किया क्योंकि जहां से यह पनपा था वहां तो प्रत्यक्ष रूप से यह दिखाई ही नहीं पड़ता। उदाहरण के तौर पर – यहाँ के लोग जब भारत से आये कर्मचारियों को बॉस के नाम से थरथराते देखते हैं तो हँसते हैं। उनका कहना होता है कि भारत में बॉस के नाम पर उन्हें वे वजह पावर  दिखाने का शिगूफा है , और लोग उसका पालन भी करते हैं। परन्तु यहाँ बॉस कोई हौवा नहीं आपका ही एक साथी है।
पश्चिमी देशों में मानव अधिकारों के उदय के साथ ही इस शब्द का भी प्रभाव कम हो गया। जहां राजनीती में प्रजातंत्र ने अपनी जगह बनाई वहीं कॉपरेट जगत में एक नए स्लोगन ने जन्म लिया  – आप कंपनी के लिए नहीं, बल्कि कम्पनी के साथ काम करते हैं” यहाँ कोई बॉस नहीं होता सब कुलीग होते हैं। यूं अधिकारिक तौर पर हर कर्मचारी के ऊपर एक कर्मचारी होता है जिसे उससे अधिक अधिकार या पॉवर प्राप्त होता है। परन्तु उनका उपयोग वह अपने पदहस्त किसी कर्मचारी से अपनी किसी भी जायज या नाजायज मांग को पूरा करवाने में नहीं कर सकता।

हालाँकि अप्रत्यक्ष रूप से बॉसिज्म हमेशा चलता रहा परन्तु परेशानी की स्थिति में इसके निराकरण का अधिकार हमेशा कर्मचारियों के पास होता है।इसका जितना परेशानी भरा रूप भारत में देखने को मिलता उन पश्चिमी देशों में नहीं मिलता जहां से इसका जन्म हुआ। 
उदाहरण के तौर पर अभी कुछ दिन पहले ही मेरी एक महिला मित्र जो भारत में ही एक कम्पनी में काम करती हैं।अपने बॉस से बेहद परेशान थीं। वह अपने पद के अधिकारों का प्रयोग अपने गलत इरादों को पूरा करने के लिए कर रहा था। और इनकार की दशा में उसे वेवजह मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ रही थी। वह इन हालातों से लड़ रही थी, परन्तु इससे छुटकारे के लिए उसके हिसाब से सिर्फ दो ही  रास्ते थे, या तो वह उस बॉस की बातें मान ले या फिर वह नौकरी ही छोड़ दे। क्योंकि उस छोटी सी कम्पनी में उसकी शिकायत करने से भी कुछ नहीं होने वाला।

उसकी इस बात पर मुझे कुछ साल पहले लन्दन में ही एक भारतीय कम्पनी में हुआ एक वाकया याद आया। जहाँ कंपनी की एक महिला कर्मचारी ने अपने तथाकथित एक बॉस की शिकायत एच आर में की थी कि वह बात करने के दौरान उसे वेवजह स्पर्श कर रहा था। इस बात के कई पहलू हो सकते थे। यह लड़की की गलतफहमी भी हो सकती थी। परन्तु शिकायत को गंभीरता से लिया गया और उस बॉस से न सिर्फ लिखित में माफी नामा लिया गया बल्कि उसका उस साल का अप्रेजल भी खराब किया गया और उसे पदावनति कर वापस भारत भेज दिया गया।

ऐसे में जब एक भारतीय मित्र यह कहते हैं कि “रोज बॉस की डांट खाने की तो आदत पड़ गई है बस इतनी ख्वाइश है कि कुत्ते की तरह न लताड़ा जाए” तो मैं सोचती हूँ आखिर क्यों हम ही अब तक ढो रहे हैं यह बॉसिज्म ???