मुझसे एक बार जिंदगी ने 

कहा था पास बैठाकर।
चुपके से थाम हाथ मेरा 
समझाया था दुलारकर।
सुन ले अपने मन की, 
उठा झोला और निकल पड़।  
डाल पैरों में चप्पल 
और न कोई फिकर कर।   
छोटी हैं पगडंडियां,
पथरीले हैं रास्ते,
पर पुरसुकून है सफ़र.
मान ले खुदा के वास्ते।
और मंजिल ?
पूछा मैंने तुनक कर. 
उसका क्या ?
कभी मिली है किसी को?
बोली जिंदगी चहक कर।    
दिखे राह चलते जहाँ, 
पा लेना उसे वहाँ ।
मैं कुछ कसमसाई, 
थोड़ा डगमगाई, 
फिर भी गेहूं के आगे 
गुलाब चुन न पाई. 
अब राह कुछ सरल है 
मंजिल की तलाश जारी है
मन है यूँ ही भटका हुआ 
जिंदगी की प्यास तारी है.