अभी तक नस्लवाद का इल्जाम पश्चिमी विकसित देशों पर ही लगता रहा है.आये दिन ही नस्लवादी हमलों के शिकार होने वालों की खबरे आती रहती हैं. कभी ऑस्ट्रेलिया से, तो कभी ब्रिटेन से तो कभी अमेरिका से. पर क्या कभी आपने सुना या सोचा कि अंग्रेज़ भी कभी इस नस्लवाद का शिकार हो सकते हैं.कुछ अजीब लगता है ना ? पर आजकल यही समाचार सुर्ख़ियों में है. लन्दन में मशहूर एक सेंडविच कंपनी पर यह आरोप लगाया जा रहा है कि वह ब्रिटेन वासियों को अपने यहाँ नौकरी नहीं देती.उनकी अर्जी बिना विचार के ही ख़ारिज कर दी जाती है.और ब्रिटेन में इस प्रसिद्द चैन दुकान में जहाँ पौलेंड, स्वीडन, इटली ,नेपाल हर जगह के लोग हैं वहां केवल  १ या २ ही ब्रिटिशर्स ( ब्रिटेन में पैदा होने वाले ) दिखाई देते.उस पर भी उनका कहना है कि उनके साथ वहां पक्षपात किया जाता है.बेशक वहां अंग्रेजी ही काम की भाषा है पर वह कम ही बोली जाती है.उन्हें एक बाहरी इंसान की तरह वहां महसूस होता है.
जबकि इस कम्पनी का कहना है कि ऐसा कुछ नहीं है.उनके पास ब्रिटिशर्स की बहुत कम अर्जियां आती हैं.और जो आती हैं वे उनमें काम के जरुरी घंटों के प्रति लचीलापन कम होता है.

असल में समस्या यह है कि बाहर से आये लोगों में अंग्रेजो के मुकाबले काम के प्रति ज्यादा समर्पण देखने में आता है वे अपना कार्य ज्यादा निष्ठा से करते हैं और कम कीमत पर करते हैं. वहीँ अंग्रेज पहले तो इस तरह के कामों में रूचि ही नहीं रखते और यदि करना भी पड़े तो इस न्यूनतम कीमत पर तो कभी तैयार नहीं होते.पहले इस तरह की समस्या इसलिए नहीं थी कि आर्थिक हालात ठीक थे.उन्हें काम करने की जरुरत ही महसूस नहीं होती थी.और इतिहास गवाह है कि यदि काम करना ही पड़े वे सिर्फ प्रवन्धक / संचालक ही बनना चाहते हैं उससे नीचे के काम करना ही वह नहीं चाहते.और करें भी क्यों जन्म से लेकर बुढ़ापे तक सरकार उन्हें पालती है.और काम ना मिले तो घर बैठे रोजगार भत्ता भी देती है.फिर उन्हें क्या जरुरत है कि कॉफ़ी शॉप में जाकर सेंडविच बनायें.पर अब हालात बदल गए हैं आर्थिक मंदी के चलते बहुत से भत्ते बंद कर दिए गए हैं.अत: काम करना तो अब मजबूरी है परन्तु मानसिकता इतनी जल्दी नहीं बदलती.अत: जाहिर है बाहर के लोगों के मुकाबले ब्रिटिशर्स काम के प्रति कम जोशीले और कम निष्ठावान साबित होते हैं. 
पर भला अपनी कमजोरियों को कब कोई मानता है. यह कोई समझने को तैयार नहीं कि जब अपने लोग काम करना ही नहीं चाहते तो उन्हें काम मिलेगा कैसे.यूँ यह समस्या शायद हर देश के महानगर की भी है.जहाँ काम की तलाश में बाहर से लोग आते हैं.इसे मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में भी मैंने महसूस किया .जहाँ दिल्ली में ज्यादातर जगहों पर दूरस्थ उत्तर पूर्वी राज्यों के युवाओं को ख़ुशी से संतुष्टि पूर्वक,मेहनत और निष्ठा से काम करते देखा क्योंकि अपने घर से बाहर आकर वहां रहने के लिए काम करना उनके लिए जरुरी है .वहीँ खुद दिल्ली के युवा अपनी रंगीनियों में डूबे अपने लायक रोजगार ना मिलने की दुहाई देते दिखे और मुंबई में बाहर राज्यों से आने वालों के काम के प्रति रोज ही कुछ ना कुछ सुनने में आता ही रहता है.बहुत साधारण सी बात है, कि हर व्यापारी अपनी कंपनी में निष्ठावान, मेहनती, खुशमिजाज,फ्लेक्सिबल  और सस्ता कर्मचारी चाहता और उसे जहाँ भी यह सब कम कीमत पर मिलता है वह उसे काम देता है. ब्रिटेन और अमेरिका सरीखे देशों में भी यह बात काफी समय से सुनने में आती रही है कि दूसरे देशों से आये हुए लोग सभी नौकरियां पा जाते हैं जबकि अपने ही देश के युवक बेरोजगारी की समस्या से जूझते रहते हैं.आर्थिक मंदी के इस दौर में यह समस्या बढती ही जा रही है.और इसका सारा दोष बाहरी नागरिकों पर थोप दिया जाता है. तो क्या वाकई नस्लवादी अब खुद इसके  शिकार हो रहे हैं ? या जरुरत है उन्हें अपनी सदियों से चली आ रही मानसिकता बदलने की .वक़्त को समझने की, यह समझने की कि प्रतियोगिता के इस युग में सिर्फ इतना काफी नहीं कि आप एक विकसित देश में या महानगर में पैदा हुए हैं .जरुरी है काम करना और लगन और निष्ठा से काम करना.जरुरत है समय के अनुसार वर्क कल्चर को समझने की.