मेट्रो के डिब्बे में मिलती है
तरह तरह की जिन्दगी ।
किनारे की सीट पर बैठी आन्ना
और उसके घुटनों से सटा खड़ा वान्या    
आन्ना के पास वाली सीट के
खाली होने का इंतज़ार करता
बेताब रखने को अपने कंधो पर
उसका सिर
और बनाने को घेरा बाहों का।
सबसे बीच वाली सीट पर
वसीली वसीलोविच,
जान छुडाने को भागते
कमीज के दो बटनों के बीच       
घड़े सी तोंद पे दुबकते सन से बाल   
रात की वोदका का खुमार.
खर्राटों के साथ लुढका देते है सिर
पास बैठे मरगिल्ले चार्ली के कंधे पे         
तो उचक पड़ता है चार्ली                  
कान में बजते रॉक में व्यवधान से।
और वो, दरवाजे पर किसी तरह
टिक कर खड़ी नव्या                                  
कानों में लगे कनखजूरे के तार से जुड़ा
स्मार्ट फ़ोन हाथ में दबाये
कैंडी क्रश की कैंडी मीनार बनाने में मस्त
नीचे उतरती एनी के कोट से हिलक गया
उसके कनखजूरे का तार
खिचकर आ गई डोरी के साथ
तब आया होश जब कैंडी हो गई क्रश।
सबके साथ भीड़ में फंसे सब
गुम अपने आप में       
व्यस्त अपने ख्याल में
कुछ अखबार की खबर में उलझे
दुनिया से बेखबर।
और उनके सबके बीच “मैं “
बेकार, बिन ख्याल, बिन किताब
घूरती हर एक को
उन्हें पढने की ताक़ में. 
(उपरोक्त सभी नाम काल्पनिक हैं , इनका किसी जाति,धर्म,या समुदाय से मिलान सिर्फ इत्तेफाकन होगा। 🙂 )