पिछले कुछ दिनों बहुत भागा दौड़ी में बीते .२४ जून से २६ जून तक बर्मिघम  के एस्टन यूनिवर्सिटी में कुछ स्थानीय संस्थाओं और भारतीय उच्चायोग के सहयोग से तीन दिवसीय “यू के विराट क्षेत्रीय हिंदी सम्मलेन २०११” था .और हमारे लिए आयोजकों से फरमान आ गया था कि आपको भी चलना है और वहाँ अपना पेपर  पढना भी है. अब क्या बोलना / पढना है वह तो हम पर छोड़ दिया गया परन्तु हमारे लिए जो सबसे बड़ी चुनौती थी, वो ४ दिन के लिए घर बार छोड़ कर जाने की थी.जैसे ही सुना घरवालों ने तो त्राहि – त्राहि सी मच गई .परन्तु उस सम्मलेन में बड़े बड़े गुणीजनों और बुद्धिजीवियों से मिलने का लोभ हम छोड़ नहीं पा रहे थे.फिर बात हिंदी की हो और बाइज्जत बुलाया जाये तो भला कैसे पीछे रहा जा सकता है. तो हमने ऐलान कर दिया कि जो भी हो हम तो जा रहे हैं. आप लोग काम चलाओ जैसे भी हो. और हम निकल पड़े.काफी बड़ा सम्मलेन था भारत से डॉ. पंचाल, डॉ. पालीवाल, रूस, इजराइल, डेनमार्क, आदि से विद्वान् और हिंदी के प्राध्यापक, केम्ब्रिज के प्रोफ़ेसर एश्वार्ज कुमार और बहुत से स्थानीय गुणीजन ,वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार आये थे अपना अपना व्याख्यान देने. और इन सबके साथ हमें भी अपना व्याख्यान देना था. सो जी हमने भी वेबपत्रकारिता को बनाया मुद्दा और डंके की चोट पर कह दिया कि ” वसुधैव कुटुम्बकम ” के नारे को आज की तारीख  में कोई चरितार्थ करता है, तो वो है वेब पत्रकारिता.

वैसे वहां जो भी बोल रहा था डंके की चोट पर ही बोल रहा था.किसी ने कहा कि देवनागरी लिपि सर्वोत्तम लिपि है. तो कोई कह रहा था कि हिंदी की दुर्दशा के लिए मैकाले साहब जिम्मेदार हैं .कोई हिंदी शिक्षण के परंपरागत तरीके को ही  सही ठहरा रहा था. तो कोई ठोक ठोक कर कह रहा था कि नया ,आधुनिक और तकनिकी तरीका अपनाना चाहिए.

खैर कहा जो भी गया हो .एक बात जो साफ़ साफ़ निकल कर सामने आई वह यह कि, कौन कहता है कि युवा वर्ग हिंदी नहीं सीखना चाहता.?हो सकता है भारत में ऐसा हो, क्योंकि वह तो इंडिया बन चुका है.और भारत से आये कुछ युवा प्रतिभागी ये कहते भी पाए गए कि भाई आपलोग कुछ ज्यादा ही भारतीय हो. हम तो यहाँ आपके साथ निभा ही नहीं पा रहे हैं.परन्तु यू के भारतीय युवाओं में पूरा जोश देखा गया वे हिंदी बोलना, लिखना,पढना तो क्या हिंदी में सोचना भी चाहते हैं और उन्होंने सम्मलेन में भी बढ़- चढ़ कर हिस्सा लिया. हाँ इतना जरुर था कि पाठ्यक्रम और शिक्षण प्रणाली वे कुछ यहाँ के परिवेश के अनुकूल चाहते हैं. इसलिए सम्मलेन के आखिरी दिन उनकी और सभी प्रतिभागियों की सभी बातों पर गौर करके सम्मलेन में सर्व सम्मति से एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसपर ध्यान देने का और क्रियान्वित करने का भारत से आईं विदेश मंत्रालय की “डिप्टी सेकेट्री  हिंदी” ने पूरा पूरा आश्वासन भी दिया.
वैसे जैसा कि आमतौर पर होता है, यहाँ भी मीडिया की अच्छी खबर ली गई. जैसे- भाषा इतनी अशुद्ध क्यों है, ख़बरों को किस तरह परोसा ( थोपा ) जाता है, रिपोर्टरों का स्तर क्या है. आदि आदि जिनके जबाब भी मीडिया वालों ने अपने ही तरह से ही दिए.

कहने का मतलब यह कि सम्मलेन काफी सफल और सार्थक रहा उस पर रोज शाम को सत्रों के अंत में सांस्कृतिक कार्यक्रम और मन भर कर गप्पें. नतीजा यह कि २७ तारीख तक दिमाग कहाँ है और उसके ऊपर की खोपड़ी कहाँ पता नहीं चल रहा था.उसपर उसी दिन शाम को लन्दन में कथा यू के- के सम्मान समारोह में भी जाना था जहाँ विकास झा को उनके उपन्यास मेक्लुसकी गंज के लिए सम्मानित किया जाना था. पर भला हो अन्ताक्षरी बनाने वाले का और सफ़र में उसे खेलने की परम्परा चलाने वाले का .बर्मिंघम से लन्दन तक का सफ़र एक साथ एक कोच में अन्ताक्षरी खेलते कैसे बीता और दिमाग की सभी बत्तियां कैसे अपने ठिकाने आईं पता ही नहीं चला फिर हम सीधे वहीँ से चले गए हाउस ऑफ़ कॉमंस कथा यू के-के सम्मान समारोह में और उसके बाद रात्रि भोज. फिर रात के १२ बजे पहुंचे घर.जिसके बाद शुरू करने थे सारे पेंडिंग काम और फिर २ दिन बाद होने वाले वातायन सम्मान की तैयारियां जिसका ब्यौरा आपको अगली पोस्ट में देंगे .फिलहाल आप हमारी इस चार दिवसीय यात्रा की तस्वीरें देखिये.

कोच और हम सब.
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