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हिंदी समिति के २० वर्ष पूरे होने के उपलक्ष  में वातायन,हिंदी समिति और गीतांजलि संघ द्वारा दिनांक ११,१२,और १३ मार्च को क्रमश: बर्मिंघम ,नॉटिंघम और लन्दन में  अन्तराष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन आयोजित किया गया. जिसका मुख्य विषय था विदेश में हिंदी शिक्षण और इस सम्मलेन में भारत सहित यू के  और रशिया के  बहुत से हिंदी विद्वानों  ने भाग लिया जिनमें अजय गुप्त, पद्मेश गुप्त, डॉ.सुधीश पचौरी, तेजेंदर शर्मा, बोरिस ज़खारिन, ल्युदमिला खाख्लोवा, के के श्रीवास्तव, वेद मोहला,प्रेम जन्मजय,डॉ रामचंद्र रे, गौतम सचदेव, आनंद कुमार, अशोक चक्रधर,बागेश्री चक्रधर,रमेश चाँद शर्मा, देविना ऋषि, सुरेखा चोफ्ला, तितिक्षा, बालेन्दु दधीचि आदि शामिल थे.
लन्दन के नेहरु सेंटर में आयोजित इस समारोह के ३ सत्र थे .पहला सत्र हिंदी के विद्वानों  से यू के के हिंदी शिक्षकों  की चर्चा का था जिसकी अध्यक्षता गौतम सचदेव जी ने और सञ्चालन वेद मोहला जी ने किया इस पैनल  में भारत और रशिया  के हिंदी के विद्वान  सम्मलित  थे जिन्होंने यू के में हिंदी शिक्षण से  सम्बंधित सभी विषयों पर चर्चा की.
दूसरा सत्र  हिंदी शिक्षण में इन्टरनेट ,बेबसाईट एवं नई वैज्ञानिक तकनीकि  को लेकर था जिसकी अध्यक्षता तेजेंदर शर्मा ने की और इस सत्र में इस विषय पर अशोक चक्रधर और बालेन्दु शर्मा दधीचि ने अपने विचार और सुझाव रखे.और हिंदी भाषा में इन्टरनेट और कंप्यूटर पर काम करने की नई तकनीकों से अवगत कराया.
समारोह का तीसरा सत्र था- यू के में हिंदी शिक्षण – समस्याएं और चुनौतियाँ .जिसमें भारत से आये ,दिल्ली विश्वविध्यालय के हिंदी प्राध्यापक एवं डीन ऑफ़ कॉलेज श्री सुधीश पचौरी , जे एन यू की प्रोफ़ेसर और भाषा वैज्ञानिक अन्विता अब्बी प्रमुख वक्ता थे एवं मॉस्को  विश्वविद्यालय  में हिंदी की प्राध्यापिका  ल्युदमिला खाख्लोवा ने सत्र की अध्यक्षता की .इस सत्र के सञ्चालन का भार मुझे सौंपा गया था.
बैठे हुए मैं ,अन्विता अब्बी ,ल्युदमीला खोखलोवा और सुधीश पचौरी जी.पद्मेश जी सत्र के अंत में आभार प्रकट करते  हुए.

यह मेरा पहला अनुभव था जो शिक्षण और हिंदी भाषा के इतने बड़े बड़े विद्वानों के सेमिनार का सञ्चालन मुझे करना था और उसपर सबसे रोचक बात कि मॉस्को  विश्वविद्यालय  से आई उस प्राध्यापिका का परिचय मुझे देने का सौभाग्य मिला था जो उस वक़्त भी मेरे उन मित्रों ( हिंदी पढने वाले रूसी छात्र ) को हमारी फैकल्टी   के बराबर वाली ही इमारत  में हिंदी पढ़ाया करती थीं जिस समयकाल में मैं उस विश्व विद्यालय  में अपना अध्ययन  किया करती थी .कौन जानता था आज करीब १२ वर्षों बाद उनसे लन्दन में मुलाकात होगी और वह भी इस तरह. एक अजीब से नौस्टोलोजिया  का एहसास मुझे हो रहा था और हिंदी भाषा के प्रति और भी कृतज्ञ  मैं अपने आपको महसूस कर रही थी.

इस सत्र में विदेशों में हिंदी के स्वरुप और उसके शिक्षण की कार्य प्रणाली और और उसके मकसद को लेकर सार्थक सवाल उठाये गए जैसे – विदेशों में हिंदी किस मकसद से पढाई जा रही है उसका मकसद सिर्फ अपनी जड़ों से जुड़े रहना ,थोडा बहुत बोल समझ लेना है या उससे आगे भी कुछ है.
क्या हिंदी को देवनागरी छोड़कर सुविधा के लिए रोमन के माध्यम से सिखाना चाहिए.?

नए मानकों के साथ  हिंदी पढ़ाने का तरीका क्या होना चाहिए जबकि विदेशों में हिंदी के अध्यापन का कार्य ज्यादातर अनट्रेंड अध्यापकों द्वारा स्वयं  सेवक के तौर पर किया जाता है .

सवाल गंभीर थे और उसपर अलग अलग प्रक्रिया भी हुई.परन्तु कुछ बात जिसपर लगभग सभी सहमत थे वह थीं कि बेशक हिंदी को शुरू में रोमन का सहारा लेकर पढ़ाया जाये परन्तु देवनागरी को उपेक्षित करके हिंदी को नहीं सिखाया जा सकता.
सुधीश पचौरी ने इस बात पर जोर दिया कि सही हिंदी और उसे सही तरीके से सिखाने के लिए प्रशिक्षित अध्यापकों की जरुरत है जिसके लिए विदेशों में भारतीय सरकार को समुचित व्यवस्था करनी चाहिए.भाषा वैज्ञानिकों के संरक्षण में सही ट्रेंनिंग और वर्कशॉप  आयोजित किये जाने चाहिए.
वहीँ रूस से आईं लुदमिला खाख्लोवा ने बताया कि विदेशों में रह रहे छात्रों को नई भाषा सिखाने के लिए किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है .बदलते हिंदी के मानकों को किस तरह सुलझाया जाये.उन्होंने कहा हिंदी कि किताबों में ही इन मानकों को लेकर इतना विरोधाभास है .लिखा कुछ और गया है और आजकल बोला कुछ और जाता है जिससे छात्रों में भ्रम पैदा  होता है और उनके सवालों का हमारे पास कोई जबाब नहीं होता .जरुरत है हिंदी कि पुस्तकों को समय और बदलते मानकों के हिसाब से अपडेट करने की.
कुल मिलाकर  काफी सार्थक रही चर्चा परन्तु इस सत्र का सबसे रोचक हिस्सा था अन्विता अब्बी का पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन जो उन्होंने उत्तर पूर्वी आदिवासियों के इलाके में हिंदी के स्वरुप को लेकर अपने शोध पर प्रस्तुत किया .इस प्रेजेंटेशन में इतनी रोचक बातें थीं कि मन करता था कि बस यह जारी ही रहे ख़तम ही ना हो.उनके मुताबिक इन आदिवासी इलाकों में हिंदी का स्वरुप हमारी हिंदी से कुछ भिन्न है ज्यादातर वे लोग क्रिया का प्रयोग ही नहीं करते और कारक के स्थान में भी परिवर्तन होता है जैसे – वह कहते हैं – मैं तुम्हारा कुत्ता खाया ..यानी तुम्हारे कुत्ते ने मुझे काटा.
ऐसे ही अनगिनत मजेदार उदहारण उन्होंने दिए पर वावजूद इसके इन क्षेत्रों में हिंदी के लिए बहुत ही प्यार और सम्मान देखा जाता है .वह हिंदी को अपनी अधिकारिक भाषा बनाना चाहते हैं और उसे सीखने में और जानने में गर्व महसूस करते हैं.कितने ही क्षेत्रों में उनकी अपनी एक मातृ भाषा होते हुए भी हिंदी सर्वाधिक प्रचलित भाषा है . और घर से बाहर निकालने पर वह हिंदी का ही प्रयोग करते हैं.
ऐसे कितने ही रोचक और सकारात्मक तथ्य अन्विता जी ने पेश किये जिन्हें सुनकर एक सुखद अनुभूति के साथ ही उर्जा का सा अहसास होने लगा कि हिंदी का रूप कुछ भी हो पर यह भाषा मरी नहीं है बल्कि थोड़ी सी जागरूकता से एक विख्यात और सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा बन सकती है.हिंदी का भविष्य उज्ज्वल  है, लोग हिंदी से प्यार करते हैं. बस जरुरत है उसके साथ सहजता से पेश आने की .उसके हर स्वरुप की तरफ उदारता और सकारात्मकता  से देखने की, बदलते वक़्त के साथ उसमें सहज परिवर्तन को अपनाने की.
इस तरह ऐसी ही ऊर्जा और सुखद अहसासों के साथ इस सत्र का समापन हुआ .
और समारोह के अंत में होली मिलन के उपलक्ष्य में अशोक चक्रधर और बागेश्री चक्रधर ने अपनी हास्य रचनाओं से समा बाँध दिया जिन्हें सुनकर पूरे समय समूचे हॉल में ठहाके गूंजते रहे.

दर्शक दीर्घा