BHU की समस्या और हालात के बारे में मैं इतना ही जानती हूँ जितना सोशल साइट्स पर पढ़ा. जितना भी समझ में आया उससे इतना अनुमान अवश्य लगा कि समस्या कुछ और है और हंगामा कुछ और. मुझे अपने स्कूल में हुआ एक वाकया याद आ रहा है.

हमारा स्कूल एक छोटे से शहर का “सिर्फ लड़कियों के लिए” स्कूल था. जो एक सरकारी स्कूल होते हुए भी शत प्रतिशत रिजल्ट देता था और हर लिहाज से उस इलाके का काफी अच्छा स्कूल माना जाता था. वहाँ दूर दराज के गाँव की भी लड़कियां आया करती थीं जिनकी पहुँच उस स्कूल के प्रांगण से निकल कर ज्यादा से ज्यादा पूरा बाजार पार करके अपने अपने घरों तक जाने तक ही थी.

यही कोई 1989 के आसपास की बात रही होगी. 15 अगस्त पर हमेशा की तरह स्कूल में लड्डू बंटे थे. शायद खराब तेल रहा होगा कि कुछ लड़कियों की तबियत उन्हें खाकर खराब हो गई. 1-2 लड़कियों को तो ज्यादा उल्टियां आदि होने पर अस्पताल ले जाया गया परन्तु उसके बाद कुछ लड़कियों को एक टीचर ने कह दिया कि “कुछ नहीं है ये लड़कियां नाटक कर रही हैं …बाहर घूमने को मिलेगा न इसलिए बहाना कर रही हैं.”

बस फिर क्या था. बात तो गलत थी, लड़कियों कि तबियत वाकई खराब थी. हालाँकि उन्हें बाद में अस्पताल ले जाया गया और फिर हालत खराब होने पर लखनऊ के अस्पताल में रेफेर कर दिया गया और उन्हें फिर इलाज के लिए लखनऊ भेज दिया गया. पर इस बीच कुछ लड़कियों से मोहल्ले में साथ रहने वाले डिग्री कॉलेज की यूनियन के छात्र मिल गए और उनकी सलाह पर स्कूल के खिलाफ और उस टीचर के खिलाफ आन्दोलन छेड़ दिया गया.
जुलुस और नारे लगाकर सारे बाजार में रैली निकाली जाती. स्कूल के बाहर धरना दिया जाता. स्कूल में शिक्षिकाएं तो आतीं पर छात्राएं नहीं. कुछ लोग प्रत्यक्ष रूप से छात्राओं के साथ थे और कुछ घरों में बैठकर अप्रत्यक्ष साथ दे रहे थे.

जो अपने घरों में थे उन्हें आंदोलनकारियों के फोन आते कि स्कूल मत आना, स्कूल बंद है.आए तो पिटाई होगी.
और स्कूल प्रशासन का फोन आता कि अपने बच्चों को स्कूल भेजिए, स्कूल खुला है वरना अब्सेंट मार्क करके टीसी दे दी जायेगी.

खैर उस आन्दोलन ने धीरे धीरे अपना असर किया और उस शिक्षिका का तबादला कर दिया गया. आन्दोलन खत्म हुआ पर इस दौरान छात्राओं के एक छोटे से विरोध में राजनीति मिलने से, इस आन्दोलन की आड़ में ऐसा बहुत कुछ हुआ जो नहीं होना चाहिए था.
और यह “लड्डू कांड” एक काले धब्बे की तरह उस स्कूल के श्वेत दामन पर लग गया.

यह सब कुछ टल सकता था.
-यदि उस बयान वाली शिक्षिका ने थोड़ी सी मानवीय संवेदना दिखाई होती.
-यदि तभी स्कूल की प्रधानाचार्य ने एक शुभचिंतक, अभिभावक बनकर उन रुष्ट छात्राओं से बात कर के मामला सुलझाने की कोशिश की होती.

तब से अब तक कितने साल गुजर गए, दुनिया बदल गई, भारत बदल गया, सरकार बदल गई.
पर नहीं बदली तो वह सोच – कि “लडकियां नाटक करती हैं”
नहीं बदला तो शिक्षकों, स्कूल प्रशासन का घमंड और अकड़.
नहीं बदला तो शिक्षकों की अभिभावक न बनकर एक कठोर तानाशाह की भूमिका में होना.
स्थिति आज भी वही है जो 25 साल पहले थी.

तो समझिए – समस्या लड़कियों की नहीं है…समस्या तो मानसिकता और राजनीति की है. समस्या उस घुट्टी में है जो बचपन से पिलाई जाती है कि “लड़कियों को कोई तकलीफ नहीं होती, वे सिर्फ ड्रामा करती हैं”

यकीं मानिए – आन्दोलन से यहाँ कुछ नहीं बदलने वाला, कुछ बदलना है तो वह घुट्टी बदलिए जो आप अपने बेटों को जाने -अनजाने में बचपन से पिलाते हैं.
वरना स्वार्थी लोग अपनी -अपनी रोटी सेक कर चलते बनेंगे.

हम तो वैसे भी उस देश के वासी हैं जहाँ तवे के दोनों तरफ रोटी सेक ली जाती है.
उल्टा हो या सीधा, जिस तरफ तवा गर्म हुआ उस तरफ सेक ली.
सीधी तरफ सिकी तो फुल्का बन जाएगा, उलटी तरफ सिकी तो रूमाली रोटी.