दिवाली 
कहने को भारत में त्योहारों का मौसम है , दिवाली आ रही है .होना तो यह चाहिए कि पूरा देश जगमग कर रहा हो,उमंग से सबके चेहरे खिल रहे हो .जैसे बाकी और काम सब अपनी क्षमता अनुसार करते हैं ऐसे ही अपनी अपनी क्षमतानुसार सभी त्योहार  मनाये और एक दिन के लिए ही सही, अपनी समान्तर चलती जिन्दगी में कुछ बदलाव हो ,अपनी सारी  परेशानियाँ , अपने दुःख भूल जाये .पर क्या वाकई त्योहारों का अस्तित्व रह गया है हमारे समाज में ? कुछ अत्याधुनिकता की होड़ में छूट गए हैं तो कुछ  को सामाजिक समस्याओं और परिवेश के सवालों तले  दबा दिये  जा रहे है .बात जहाँ तक प्रदूषण की है तो क्या पहले ये हवाई जहाज , जहरीला धुंआ उगलती फैक्ट्रियां ,और घरों में दुकानों में ए सी लगने बंद नहीं  होने चाहिए ,पहला प्रहार त्योहारों पर ही क्यों?..
होली जैसा मेल मिलाप का त्योहार  अब सिर्फ कुछ गांवों – कस्बों तक ही रह गया है क्योंकि हम आधुनिक लोग उन रंगों से गन्दा नहीं होना चाहते. हमारे आलीशान घर उन रंगों से खराब होते हैं तुर्रा यह है कि अब रंग नकली आते हैं . अरे उन नकली रंगों को बनाने वाला है कौन ? हम ही ना .जबकि स्पेन में टमाटरों की होली जोरशोर से खेली जाती है. करोड़ों  टन टमाटर बर्बाद  कर दिया जाता है.कितने ही लोग इस आपाधापी में हलके फुल्के घायल भी हो जाते हैं और उसके बाद होता है सफाई अभियान , जिसमें बच्चे बड़े सभी शामिल होते हैं. उन्हें अपने त्यौहार पर शर्म नहीं आती.
.स्पेन का टमाटर उत्सव.
नवरात्रों में दुर्गा पूजा में पांडाल लगाने से लोगों को एतराज़ है कि इतना पैसा जाया होता है ..कोई बताये कि क्या ये रोक कर गरीबी रोक सकेंगे ये ?क्या  इन पंडालों में गरीबो का पैसा लगता है ? ये रोक भी दिया गया तो क्या ये बचा हुआ पैसा गरीबों तक जायेगा?नहीं ..पर हाँ इस उत्सव से जो हजारों परिवार को रोजगार मिलता है ,जिससे उनका पूरा साल रोटी मिलती है, वो जरुर बंद हो जायेगा ,और भारतीय संस्कृति से जुड़ा एक त्योहार  आधुनिकता,और पूँजीवाद  की वेदी  पर चढ़ जायेगा.मुझे याद है आज से ४-५ साल पहले एक साल   नवरात्रों के दौरान मैं भारत में थी . तो जिस भी तथाकथित सभ्य  और पढ़े – लिखे परिवार की कन्यायों को मैने पूजा के लिए बुलाना चाहा   तो जबाब मिला ” अब कौन ये सब करता है ,बच्चों को एक तो दिन मिलता है वो अपने वीडियो गेम खेलते हैं अपने दोस्तों के साथ, ये पूजा वूजा में कौन जाना चाहता है.ये सब तो बस अब काम वाली बाइयों के बच्चों तक ही रह गया है. वो आयेंगे उन्हें प्रसाद  दे देना आप.बात ये थी कि उनके साथ अपने बच्चों को भेजने में उन्हें गुरेज़ था .ये वही लोग हैं जो अपने  ड्राईंग   हॉल में बैठकर गरीब बच्चों की दशा पर “च च च वैरी सेड”  कहते हुए चर्चा करते हैं.
अभी रश्मि ने एक बहुत ही मार्मिक पोस्ट री  शेयर  की थी जिसमें पटाखे  बनाने वाले बच्चों की  करुण स्थिति का वर्णन था .पढ़कर रोंगटे  खड़े हो जाते हैं,बहुत दुःख होता है .उस पोस्ट की मूल भावना के प्रति मेरा पूरा सम्मान है उस दशा को किसी भी तरह सही नहीं कहा जा सकता. 
पर मेरे दिमाग में बहुत से सवाल कौंधने  लगे  कि क्या ये हालात बच्चों के  सिर्फ पटाखे बनाने से ही है ?क्या इन कारखानों में सिर्फ बच्चे ही काम करते हैं?इन पटाखे बनाने वाले  कारखानों में  दिवाली के बाद क्या  ताला लग जाता है ? जहां  तक मुझे ज्ञात है जितने पटाखों का प्रयोग दिवाली के समय होता है उससे कही ज्यादा शादी विवाह के समारोहों और अन्य सामाजिक समारोहों में वर्ष पर्यंत होता है . ये सर्व विदित है कि दियासलाई का उत्पादन भी उन्ही कारखानों में होता है और उसके उत्पादन में प्रयुक्त गंधक भी हानिकारक तत्व है .जरुरत है जागरूकता की ,कि  इन कारखानों में बच्चो को काम ना दिया जाए  ना कि पटाखे का उत्पादन ही बंद कर दिया जाय . ऐसा कौन सा विकसित या विकासशील देश है जो पटाखे का उत्पादन नहीं करता है?
क्या जो बच्चे इस काम में लिप्त नहीं वो सब अपना अधिकार पा रहे हैं, अपना बचपन पा रहे हैं ? उन बच्चों का क्या जो CWG के दौरान दिन रात मजदूरी करते रहे ?उसे गुलामी के भव्य स्वागत को तो हमने अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ा पर अपनी संस्कृति और त्यौहार मनाने के लिए हमें समस्याएं दिखती हैं,क्या उन बच्चों का जो ढाबों पर बर्तन घिसते हैं या ट्रेन में सारा दिन चाय बेचते हैं .क्या उन बच्चों का जो हर साल ठण्ड से दम तोड़ देते हैं .क्या ये बेहतर नहीं कि कोई काम ही बंद करने की जगह उसे करने के तरीके में और उसकी हालात में सुधार  किया जाये.
पश्चिमी देशों में भी १३ साल के बाद बच्चों को काम करने की इजाजत है  और बच्चे करते भी हैं. हाँ कुछ नियम जरुर है कि कुछ खास बच्चों के लिए अनुपयुक्त  जगह उन्हें काम करने की इजाजत नहीं या एक समय अवधि में ही काम करने की इजाजत है और वो भी पढाई के साथ .और उपयुक्त परिवेश ,माहौल  और सुविधाओं के साथ..उन्होंने काम करने के तरीकों में सुधार किया ना कि काम ही बंद कर दिया.और जरुरत मंद बच्चों से उनका रोजगार ही छीन लिया . .. 
अभी यहाँ एक साहित्यक गोष्ठी में कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों को सुनने का मौका मुझे मिला वहां हिंदी की स्थिति पर बोलते हुए एक महानुभाव ने कहा कि हिंदी को जड़ से मिटाने  की ये पश्चिमी देशों की सोची समझी साजिश है पश्चिमी  देशों से लाखों ,करोड़ों  में रकम भारत को जाती है सिर्फ इसलिए कि अपने पत्रों में पत्रिकाओं में कुछ प्रतिशत अंगेरजी शब्दों का इस्तेमाल  किया जाये उनका इरादा है कि ये कुछ प्रतिशत धीरे धीरे बढ़ता जाये और एक दिन हिंदी नाम की लिपि को ही अदृश्य  कर दिया जाये .क्या यही वजह नहीं हो सकती हमारे त्योहारों में कमियां निकालने की ?दुनियाभर  में पटाखे  जलाकर हर उत्सव मनाया जाता है .उन्हें कोई क्यों नहीं कहता कि इससे प्रदूषण होता है इसे बंद किया जाये.
हमें ग्लोबल वार्मिंग का बहाना  देकर कहा जाता है के आधुनिकरण रोकें पर दुनिया में लॉस वेगास ,और डिस्नी लैंड जैसी अनगिनत जगहों पर बेशुमार तकनीकियों का बिजली के उपकरणों का प्रयोग किया जाता है
लॉस वेगास 
अमेरिका जैसे विकसित देश हमसे कई गुना ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करते है लेकिन धरती सम्मलेन में वो हमारे ऊपर दबाव डालते है कि हमे इन गैसों के उत्सर्जन में कटौती के प्रयास करने चाहिए 
उनसे कोई उन्हें बंद करने के लिए क्यों नहीं कहता ?हमसे साल में एक त्यौहार मनाने को मना किया जाता है,क्योंकि हम तो हैं ही सर्वग्राह्य , सबकी बातें सुनेंगे और अपनी ही संस्कृति को कोसेंगे .और एक दिन इन्हीं साजिशों को समझदारी और सुधार का जामा  पहना कर अपनी संस्कृति स्वाहा  कर देंगे..

यू के में नया साल.
(तस्वीरें गूगल से साभार )