लड़कियों का स्कूल हो तो सावन के पहले सोमवार पर पूरा नहीं तो आधा स्कूल तो व्रत में दिखता ही था. अपने स्कूल का भी यही हाल था. सावन के सोमवारों में गीले बाल और माथे पर टीका लगाए लडकियां गज़ब खूबसूरत लगती थीं. ऐसे में अपना व्रती न होना बड़ा कसकता था और फैशन में पीछे रह जाने जैसी ग्लानि होती थी वो अलग.

आखिरकार एक बार हमने मम्मी से जिद्द करके एलान कर ही दिया कि हम भी सावन के ये सोमवार रखेंगे. आखिर भविष्य की जिंदगी का सवाल था. कहीं पता चला हमारे ही हिस्से कोई बचा खुचा आए. यूँ शिवजी से अपनी खासी बनती टाइप थी फिर भी कभी दिल पर ले लें वो और हो जाये अपना नुकसान.

खैर मम्मी ने चेतावनी दी – सोच लो, रह लोगी? नमक नहीं खाते बिलकुल, मीठे पर रहना पड़ेगा. रात को भी सब्जी – वब्जी नहीं मिलेगी. बेसन के परांठे खाने पड़ेंगे चीनी पड़े दही के साथ. सुनकर एक बार को दिल धड़का, बोला – छोड़ न, ऐसा भी क्या है. बेकार का झमेला. फिर आत्मा ने कहा – अरे कुछ नहीं होगा. यूँ भी जन्माष्टमी, शिवरात्री के व्रत नहीं रखते क्या. और दो सही. हो जायेगा और आखिरकार हमें व्रत रखने की इजाजत मिल गई.

मम्मी ने सुबह फल, दोपहर को घर की बनी नारियल, मींग की कतरी और रात से पहले दही चीनी के साथ बेसन के दो परांठे का मेन्यू सुना दिया.

सोमवार आया, हम बड़े चाव से उस दिन खूब बाल गीले करके नहाये कि कहीं स्कूल जाते -जाते सूख न जाएँ. गीले बालों की ढीली ढीली चोटी बनाई, शिवजी को प्रणाम किया. कुछ फलों का नाश्ता किया, कुछ फल टिफिन में रखे और एक छोटा सा लाल टीका माथे पर लगा कर शान से, फैशन में शामिल होने का एहसास करते स्कूल आ गए.

दोपहर को खाने की घंटी बजी तो झटाक से टिफिन खोला. उसमें केला, सेब और बर्फी देख याद आया कि ओह! आज तो व्रत है. याद तो नमकीन परांठे और अचार की भी आई पर उसे झटका और शांत भाव से किसी तरह एक केला गटका.

अब लंच के बाद की क्लासों में पेट गुड़ गुड़ करता रहा और हम उसे दिलासा देते रहे कि घर पहुँचते ही खाना मिलेगा. घर पहुँचते ही बस्ता फेंक, मम्मी को खाना लगाने को बोला। फटाक से हाथ धोकर प्लेट पर निगाह डाली. परांठा देखने में ठीक ठाक लग रहा था. पर एक कौर मीठे दही से खाते ही उबकाई आने लगी. हमने दही की कटोरी दूर खिसकाई और सिर्फ़ परांठा खाने की कोशिश की. परन्तु मुँह में जाने से पहले ही कौर बाहर आ गया और उसके साथ ही सुबह से खाए सारे फल भी.
ये देख मम्मी का भाषण शुरू हो गया. कहा था नहीं रख पाओगी. स्कूल जाने वाले बच्चे ये सब करते हैं क्या ? जाओ अब मुँह धोकर आओ.

हमारी समझ में आया कि हम बिना मीठे, बिना खट्टे , बिना कड़वे के पूरी जिंदगी रह सकते हैं पर बिना नमक के एक दिन भी नहीं रह सकते. भैया, जिंदगी और खाने – दोनों में नमक बेहद जरुरी है. पर अब व्रत को पूरा न करने और भविष्य में खराब पति मिलने की चिंता सताने लगी. तभी मम्मी ने साक्षात् भगवान बनकर उबार लिया. उन्होंने तभी उद्द्यापन करा दिया और बोलीं – कोई बात नहीं बच्चों को सब माफ है. बस माफ़ी मांग लो शिवजी से. वे बड़े दयालु हैं.
शिवजी ने भी सोचा होगा कि इस नकचढ़ी के हिसाब से कोई जुगाड़ना मुश्किल होगा, फिर गारंटी नहीं तो क्यों एक और व्रती का एहसान लिया जाए बेकार. सो उन्होंने किस्सा ही खत्म किया.

हमने भी चैन की सांस ली. आखिर इनसब में हम मानते भी नहीं थे पर व्रत के बदले ऑफर अच्छा था तो इसलिए सोचा कि ट्राई करने में क्या बुरा है. पर ठीक है यार, जब जो होगा तब देखेंगे.

खैर हमारी बाकी सहेलियां आगे तक के वर्षों में भी नियम से सावन के सोमवार रखती रहीं शायद उन्हें उनका फल भी मिला होगा पर तब से हमने बिना नमक के सोमवार करने से तौबा कर ली और साथ ही एक अच्छे पति की उम्मीद भी अपने मन से निकाल दी.

यूँ भी सुना था पति नाम का जीव अच्छा या बुरा होता ही नहीं वह तो बस “पति” होता है. है न ?
बेचारे शिवजी पर बेकार क्यों लोड डालना.