दूर क्षितिज पे सूरज ज्यूँ ही डूबने लगा
गहन निशब्द निशा के एहसासों ने
उसके जीवन के प्रकाश को ढांप दिया
हौले हौले अस्त होती किरणों की तरह
उसके मन की रौशनी भी डूब रही थी
इधर खाट पर माँ अधमरी पड़ी थी
और छोटी बहन के फटे फ्रॉक पर
जंगली चीलों की नज़र गड़ी थी।
उसी क्षण उसके अन्दर की बाला
एक ज्वाला का रूप ले रही थी।
रात भर लड़ती रही थी अपने ही आप से
तोलती रही थी समाज के ठेकेदरों को
उनके सफेदी से रंगे अपराधिक हाथों से
नही था उसे मंजूर भीख में इज़्ज़त लेना
झुका कर निर्दोष पलकें, भी क्या जीना?
और नम आँखों में आख़िर उसने
सूर्य की सारी रक्तिमा समेट ली थी
अपनी हाथ की कोमल रेखाएँ
अपनी ही मुठ्ठी में भींच लीं थीं
कर पूरे वजूद को इकठ्ठा
किया फिर उसने ये फ़ैसला
नापाक निगाहों का अब भय नही था
बेबसी के आँसू अब बहने नही थे
अपनी नज़रों में गुनहगार नही अब
अपनी ही अस्मत तो उसने बेची थी
किसी की बेबसी तो खरीदी न थी