हमारे देश में सैक्स और संस्कृति दो शब्द ऐसे हैं जिन पर जब चाहे हंगामा करा लो. एक जुबान से निकला नहीं कि हंगामा और दूसरा न निकले तो हंगामा। हमें बच्चों के सामने सैक्स से सम्बंधित माँ बहन की गाली देने से परहेज नहीं है, खजुराहो, कोणार्क की मूर्ति कला देखने- दिखाने से परहेज नहीं है परन्तु बच्चों को उनके ही शरीर के बारे में शिक्षा देने से परहेज है.

युवावस्था में कदम रखते बच्चों को हम दुनिया भर की बाकी बातें सीखा देना चाहते हैं, मोटी – मोटी  किताबें , कोचिंग, प्रतियोगिता, पैसा कमाना सब, परन्तु उसके अपने ही शरीर में हो रहे बदलावों के बारे में बात करना भी गुनाह है. हम सोच कर बैठ जाते हैं कि यह परिवर्तन तो प्राकृतिक हैं प्रकृति अपने आप सिखा देगी, तो क्या बोलना, चलना आदि प्राकृतिक नहीं ? तो वह हम अपने बच्चों को सिखाने की कोशिश क्यों करते हैं? यहाँ यह भी भ्रम देखने में आता है कि सैक्स एजुकेशन का मतलब बच्चों को सैक्स सिखाना या उसकी और प्रेरित करना है, जबकि सैक्स एजुकेशन का यह मतलब कदापि नहीं है. यह कोई अलग विषय नहीं है, इसकी कोई अलग किताब नहीं होती है, और इसे पढ़ाकर इसका कोई इम्तिहान भी नहीं लिया जाता। यह तो बच्चों के सम्पूर्ण स्वाथ्य विकास के लिए होने वाली नैतिक और सामाजिक शिक्षा की तरह ही एक शिक्षा है जिसे सही समय पर, सहजता और सही तरीके उन्हें उपलब्ध कराना, परिवार के साथ – साथ स्कूलों और शिक्षकों की भी जिम्मेदारी है. 

बच्चा जब से पैदा होता है और जैसे जैसे बढ़ता है उसका शरीर , मष्तिष्क और जरूरतें सभी बढ़ती हैं और हम उसकी बढ़ती अवस्था की जरुरत और उसके सम्पूर्ण स्वस्थ्य विकास के लिए उसे सभी प्रकार की शिक्षा देते हैं. फिर एक उम्र में उसके शरीर और सोच में हो रहे महत्वपूर्ण परिवर्तन की तरफ इतने अनजान क्यों बने रहना चाहते हैं. बच्चों की उस महत्वपूर्ण अवस्था में जहां उन्हें  सबसे ज्यादा सलाह और सहारे की आवश्यकता होती है, उनकी सहायता कोई नहीं करता।

ज्यादातर स्कूलों में जीव विज्ञान के अंतर्गत आया “प्रजनन” पाठ या तो फौरी  तौर पर पढ़ा कर खत्म कर दिया जाता है या कह दिया जाता है इसे घर में पढ़ लेना। और घर में आकर जब बच्चा अपनी जिज्ञासाओं के बारे में पूछता है तो या तो उसे डाँट कर भगा दिया जाता है या यूँ ही कुछ जबाब देकर टाल दिया जाता है. ऐसे में अपने ही शरीर में हो रहे बदलावों से बेखबर और परेशान बच्चे या तो बाजारू सामग्री का इस्तेमाल कर उसे जानने की कोशिश करते हैं या फिर अधकचरे ज्ञान को लेकर फिरते रहते हैं. जो समाज और उनकी खुद की सोच को दूषित करने की वजह बनता है.
पहले संयुक्त परिवारों में घर के बुजुर्ग आदि फिर भी इस अवस्था में उनकी सहायता किया करते थे, अपने अनुभव और परिपक्वता से उन्हें सही दिशा देने की कोशिश करते थे परन्तु कालांतर में एकल होते परिवारों में यह विकल्प भी जाता रहा है. तो अब ये बच्चे अपनी जिज्ञासाओं का टोकरा लेकर आखिर कहाँ जाएँ? ऐसे में, एक ऐसी अवस्था में जहाँ एक बच्चा एक जिम्मेदार नागरिक बनने की तरफ कदम रखता है, जहाँ उसके स्वस्थ शारीरिक और मानसिक विकास का नया अध्याय लिखा जा रहा होता है वहां उसे सही दिशा दिखाने वाला कोई नहीं होता और परिणाम स्वरुप उसकी अनसुलझी जिज्ञासाएँ कुंठा का रूप ले लेती हैं.

समय बदल रहा है और पहले की अपेक्षा बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास अब कहीं जल्दी होना आरम्भ हो जाता है, उस पर प्रतिपल बढ़ता बाहरी दुनिया से संपर्क बच्चों को वक़्त से पहले ही वयस्क बना रहा है, हम समय के साथ होते इन परिवर्तनों को तो नहीं रोक सकते परन्तु बदलते परिवेश और समय के साथ अपने बच्चों को शिक्षित अवश्य ही कर सकते हैं. 
सिर्फ यह कह देने भर से कि यह पश्चिमी देशों का कुप्रभाव है और हमारी संस्कृति का हनन, हम न तो समय को रोक सकते हैं न इससे उपजने वाली समस्यायों को. हाँ उनका समुचित उपाय जरूर सोचकर उसके अनुसार अपने बच्चों की परवरिश कर सकते हैं.

ज्यादातर पश्चिमी देशों में क्लास ६ में जीव विज्ञान के एक अध्याय के अंतर्गत इस शिक्षा की शुरुआत की जाती है. सभी बच्चे ११-१२ साल के होते हैं और इस पाठ को सहजता से पढ़ाने और बच्चों को सही ढंग से समझाने में मदद मिले इसलिए उनके अविभावक, माता पिता व दादा दादी आदि को भी आमंत्रित किया जाता है. यह जरुरी है कि इस उम्र में अपने शरीर में हो रहे बदलावों के प्रति उनकी जिज्ञासाओं को सही ढंग से समझाया जाए और इसके लिए स्कूल और घरवाले अपने अपने स्तर पर बच्चों का मार्गदर्शन कर सकते हैं. 


बच्चे समाज का भविष्य होते हैं और यदि ये ही कुंठित होंगे तो एक स्वस्थ्य समाज की कल्पना भी हम नहीं कर सकते। जिस प्रकार उन्हें सुसंस्कृत करना हमारा कर्तव्य है उसी प्रकार उन्हें सुशिक्षित करना भी हमारा कर्तव्य है और यह उनके स्वयं के शारीरिक और मानसिक बदलाओं को नजरअंदाज करके नहीं किया जा सकता। किसी भी प्रकार की शिक्षा से संस्कृति की हानि नहीं हो सकती. शिक्षा और संस्कृति एक दूसरे एक पूरक होते हैं, दुश्मन नहीं। और एक दूसरे की सहायता से ही स्वस्थ्य और सभ्य समाज का  निर्माण किया जा सकता है.

समवेत शिखर में प्रकाशित।