हो वेदकलीन तू मनस्वी या
राज्य स्वामिनी तू स्त्री

रही सदा ही पूजनीय  तू
बन करुणा त्याग की देवी 
सीता भी तू, अहिल्ल्या भी तू
रंभा भी तू, जगदंबा भी तू
है अगर गार्गी, मैत्रैई तो,
रानी झाँसी, संयोगिता  भी तू
फिर क्यों तू आज़ भटक रही?
पुरुष समकक्ष  होने को लड़ रही?
खो कर अस्तित्व ही अपना
अधिकार ये कैसा ढूँढ  रही?
क्यों सोच तेरी संकीर्ण हुई
क्यों खुद से ही तू जूझ रही
खोकर अपना स्त्रीत्व  भला
पाएगी क्या परम पद कोई 
सृजनकर्ता तू , ईश्वर की प्रीत,
सौन्दर्य तू इस जग की
फिर पाने को बस एक आडंबर
अपना पद ही क्यों भूल रही?
गरिमा अपनी ना छोड़ यूँ ही
ना कर प्रकृति का अनादर।
चल छोड़ बराबरी की ये ज़िद 
बस स्त्री बन पा ले तू आदर