पिछले दिनों गिरीश पंकज जी की एक ग़ज़ल पढ़कर कुछ यूँ ख़याल आये.

ये संघर्ष हद से गुजर न जाये देखना
औरत टूट कर बिखर न जाये देखना. 


बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर 
वो पत्थर ही बन न जाये देखना 

रोज उठती है,झुकती है,लचीली है बहुत 
एक दिन अकड़ ही न जाये देखना.

नज़रों में छुपाये हैं हर आँख का पानी 
बाढ़ बन कहीं बह न जाये देखना.

घर में रौशनी के लिए जो जलती है अकेली 
वो “शिखा” भी कहीं बुझ न जाये देखना