बस काफी भरी हुई है .तभी एक जोड़ा एक बड़ी सी प्राम लेकर बस में चढ़ता है.लड़की के हाथ में एक बड़ा बेबी बैग है और उसके साथ के लड़की नुमा लड़के ने वह महँगी प्राम थामी हुई है.दोनो  प्राम को सही जगह पर टिका कर बैठ जाते हैं. प्राम में एक बच्चा सोया हुआ है खूबसूरत कम्बल से लगभग पूरा…

क्या दे सजा उसको  क्या फटकारे उसे कोई , हिमाक़त करने की भी  जिसने इज़ाजत ली है ********* हमारे दिन रात का हिसाब कोई  जो मांगे तो क्या देंगे अब हम उसके माथे पे बल हो, तो रात  और फैले होटों पे दिन होता है. ************** उसकी  पलकों से गिरी बूंद ज्यूँ ही मेरी उंगली से छुई हुआ अहसास   कितने गर्म ये जज़्बात होते हैं . ************ तेरे दिल  के पास जो …

रोमांच की भी अपनी एक उम्र होती है और हर उम्र में रोमांच का एक अलग चरित्र. यूँ तो स्वभाव से  रोमांचकारी लोगों को अजीब अजीब चीजों में रोमांच महसूस होता है,स्काइडाइविंग , अंडर वाटर राफ्टिंग, यहाँ तक कि भयंकर झूलों की सवारी, जिन्हें देखकर ही मेरा दिल  धाएं  धाएं करने लगता है. मेरे ख़याल से रोमांच का अर्थ प्रसन्नता…

मैं नहीं चाहती लिखूं वो पल  तैरते हैं जो  आँखों के दरिया में  थम गए हैं जो  माथे पे पड़ी लकीरों के बीच  लरजते हैं जो हर उठते रुकते कदम पर  हाँ नहीं चाहती मैं उन्हें लिखना क्योंकि लिखने से पहले  जीना होगा उन पलों को फिर से  उखाड़ना होगा गड़े मुर्दों को  कुरेदने होंगे कुछ पपड़ी जमे ज़ख्म  और फिर उनकी दुर्गन्ध …

पुलिस कहीं भी हो हमेशा ही डरावनी सी होती है .इस नाम से ही दहशत का सा एहसास होता है .पुलिस नाम के साथ ही सख्त, क्रूर, डरावना, भ्रष्ट, ताक़तवर, असंवेदनशील  और भी ना जाने कितनी ही ऐसी उपमाएं स्वंम ही दिमाग में चक्कर लगाने लगती हैं. यानि हाथ में डंडा लिए और कमर में पिस्तोल खोंचे कोई पुलिस वाला…

रौशन  और  खुली, निरापद राहों से इतर  कई बार अँधेरे मोड़ पर  मुड़ जाने को दिल करता है. जहाँ ना हो मंजिल की तलाश , ना हो राह खो जाने का भय ना चौंधियाएं रौशनी से आँखें. ना हो जरुरत उन्हें मूंदने की टटोलने के लिए खुद को, पाने को अपना आपा. जहाँ छोड़ सकूँ खुद को बहते पानी सा,…

सपने भी कितनी करवट बदलते हैं न .आज ये तो कल वो कभी वक्त का तकाज़ा तो कभी हालात की मजबूरी और हमारे सपने हैं कि बदल जाते हैं. इस वीकेंड पर  एक पुरानी मॉस्को  में साथ पढ़ी हुई एक सहेली से मुलाकात हुई . १५ साल बाद साथ बैठे तो ज्यादातर बातें अब अपने अपने बच्चों के कैरियर की होती रहीं.  मुझे एहसास हुआ  कि कितना समय बदल गया.. एक वो दिन थे…

विशुद्ध साहित्य हमारा कुछ  उस एलिट खेल की तरह हैजिसमें कुछ  सुसज्जित लोग खेलते हैं अपने ही खेमे में बजाते हैं तालीएक दूसरे  के लिए ही पीछे चलते हैं कुछ  अर्दली थामे उनके खेल का सामान इस उम्मीद से शायद  कि इन महानुभावों की बदौलत उन्हें भी मौका मिल जायेगा कभी एक – आध  शॉट  मारने  का और वह  कह सकेंगे  हाँ वासी हैं वे भी उस  तथाकथित  पॉश  दुनिया के  जिसका — बाहरी दुनिया…

 मैं मानती हूँ कि लिखा दिमाग से कम और दिल से अधिक जाता है, क्योंकि हर लिखने वाला खास होता है, क्योंकि लिखना हर किसी के बस की बात नहीं होती और क्योंकि हर एक लिखने वाले के लिए पढने वाला जरुरी होता है और जिसे ये मिल जाये तो “अंधे को क्या चाहिए  दो आँखें” उसे जैसे सबकुछ मिल जाता है.और इसीलिए…

इस पार से उस पार  जो राह सरकती है जैसे तेरे मेरे बीच से  होकर निकलती है एक एक छोर पर खड़े अपना “मैं “सोचते बड़े एक राह के राही भी कहाँ  “हम” देखते हैं. निगाहें भिन्न भिन्न हों दृश्य फिर अनेक हों हो सपना एक ,फिर भी कहाँ संग देखते हैं रात भले घिरी रहे या चाँदनी खिली रहे तारों…