हैलो संदीप .कैसे हैं आप ?
ठीक .सुबह के ३ बज रहे हैं पढने का मन नहीं कर रहा .
कैसी चल रही है पढाई .?
पढाई बस चल रही है ..कोई खास फर्क नहीं है .बस अब बोर होने लगा हूँ.समय निकलता जा रहा है .नौकरी चाहिए भी .और करने का मन भी नहीं करता.
अरे तो नौकरी क्या जरुरी है? अपनी कोई कम्पनी खोल लो या ऍफ़ बी जैसी कोई साईट बस वारे न्यारे.
बात तो आपने बहुत सही कही है .मेरे बहुत से दोस्तों ने यही किया है ..पर वो जमाना जरा मुश्किल है .कुछ साल नौकरी कर लूं फिर यही करूँगा.
हाँ सारे आई आई टी अन्स को यह कीड़ा होता है पहले नौकरी चाहिए फिर उससे छुटकारा. फिर कुछ और करना है.
हाँ असल में फाइनल ईयर तक आते आते सारे वो झूठ समझ में आ जाते हैं ना जो हमारे बड़ों ने हमसे बोले थे जैसे – बेटा ! आई आई टी निकाल लो बस ..फिर सब मस्त है.
अरे ये कैसी निराशा जनक बातें कर रहे हो ? उन बेचारे बच्चों का क्या जो तुम लोगों ( आई आई टी अन्स ) के नाम पर ताने झेलते हैं ?
अरे ताने नहीं देने चाहिए ना …अब देखिये कुछ टोपर्स की जॉब ५० लाख की लगती है .और एवरेज की २५ लाख की और कुछ की नहीं भी लगती . पर माँ बाप के पास खबर उन ५० लाख वालों की ही पहुँचती है ..बड़े बड़े अखबारों में बड़ी बड़ी हैडिंग में जो छपती है.
अब घर वाले तो – बेटा ! ५० नहीं तो २५ तो फिक्स मानों एकदम ..और बेचारे हम जी जी करते ..हँसते हैं ..खैर अब तो आदत सी हो गई है.
ओह …पर आई आई टी से निकलने वाले भी तो इसी जूनून में रहते हैं. और अपने बच्चे को आई आई टी ही भेजना चाहते हैं. फिर ऐसा क्यों?
वो इसलिए कि आई आई टी में टॉपर रहिये तो यह फूलों की सेज है . तो वहां से निकलने के बाद सभी यही चाहते होंगे कि मैं ना सही मेरा बेटा टॉप करेगा ही ही ही.
ओह ..मतलब कहीं भी जाओ . मानसिकता सबकी वही है कि बेटा अलादीन का चिराग है .
यप्प … मैम !बिलकुल .वैसे अच्छा इंस्टिट्यूट है पर हायप कुछ ज्यादा ही है
अच्छा क्या वाकई अब आई आई टी की इतनी वैल्यू नहीं रही जितनी पहले हुआ करती थी?
नहीं नहीं अब ऐसा भी नहीं है. हाँ दुसरे कॉलेज वाले भी एंटर हुए हैं तो अब बजाय यह पूछने के, कि क्या आप आई आई टी से हैं? लोगों को अब पूछना चाहिए -आप किस आई आई टी से हैं ?और किस रेंक के हैं .
वैसे आजकल भारत में एक चीज़ और मजेदार चल रही है
वो क्या?
ढेर सारे इंजीनियरिंग कॉलेज खुल गए हैं ..पर प्रोफ़ेसर हैं नहीं .तो वो क्या करते हैं .कि ताज़ा ताज़ा आई आई टी से पास हुए स्टुडेंट्स को प्रोफ़ेसर बना देते हैं .
अब जैसे मुझे ही कई ऑफर आये हैं .उनमें से एक तो मस्त लड़कियों के इंजीनियरिंग कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर का है.
अच्छा ?
हाँ वो भी खासकर आई आई टी अन्स के लिए, जहाँ प्रसिद्ध होता है कि उन्हें लड़कियों का कोई अता पता नहीं होता.क्योंकि आई आई टी में लडकियां ना के बराबर ही होती हैं.
कैसे पढ़ायेगा भला कोई?.मेरा दोस्त बोलता है .यार कहीं नहीं तो यहीं चले जायेंगे .लड़कियों को नंबर देते रहो वो भी खुश और हम भी खुश.
हा हा हा …वैसे क्या यह सच है कि आई आई टी अन्स को लड़कियों का अता पता नहीं रहता?
हाँ पहले तो ऐसा ही था ..अब नहीं है .वो इसलिए कि लड़कियां बहुत ही कम होती हैं यहाँ .अब तो सुधर रही है हालत. फिर भी दिल्ली यूनिवर्सिटी के सामने किसी आई आई टी अन की नहीं चलने वाली लड़की पटाने में .
वैसे जिससे अभी आप बात कर रही हैं. ऐसे अपवाद तो होते ही हैं.
हाँ हाँ वो तो मुझे पता है कि आप मास्टर हो ..फिर तो ऐसी असिस्टेंट प्रोफ़ेसर की नौकरी बुरी नहीं .
अरे नहीं मैम! बहुत रिस्की है .१००-२०० लडकियां वो भी एकदम ऑ सम टाइप ..पढाई किसे याद रहेगी ?
अरे पढाई करनी किसे है ? देश का बंटाधार वैसे ही हो रहा है तो मस्ती से ही किया जाये.
हाँ ..ये कॉलेज वालों तो बस यह दिखाने को चाहिए कि हमारे पास आई आई टी अन प्रोफ़ेसर हैं.मेरी समझ से तो परे हैं .
तो यहाँ से अगर किसी को नौकरी नहीं मिलती ,तो वो वहां जाते हैं,
अच्छा ये बताओ .इन कॉलेज से निकल कर इन छात्रों का होता क्या है ?
कुछ खास तो नहीं पता. सुना है कि ये कॉलेज वाले पैसे देकर कम्पनियों को कैम्पस के लिए बुलाते हैं.फिर १०० प्लेसमेंट दिखा दिए बस .उसके बाद कम्पनी कोई एक्जाम सा लेकर एक महीने बाद इन्हें निकाल देती है .
हे राम ! फिर ?
फिर क्या ..फिर भगवान् जाने .
हाँ अब गली गली पान की दूकान की तरह इंजीनियरिंग कॉलेज खुलेंगे तो यही होगा .
पर मैम इन्हीं की वजह से कम से कम कुछ लडकियां तो आ जाती हैं इंजीनियरिंग में ..वर्ना स्कूल में सबका एक ही मोटो रहता था.मेडिकल की तैयारी करो और गणित एक्स्ट्रा में रखो.मेडिकल में आ गए तो ठीक नहीं तो इंजीनियरिंग है.
पर फिर भी वो दिल्ली यूनिवर्सिटी की आर्ट साइड जैसी तो नहीं होती हैं ना ?
हाँ हाँ वो तो है ही …अब दिल्ली आई आई टी तो फिर भी भाग्यशाली है इस मामले में. कानपूर, खड़गपुर , गौहाटी का तो ना जाने क्या हाल होता होगा.
अब यह क्या बात हुई ? आजकल छोटे शहरों की लड़कियां ज्यादा एडवांस होती हैं.
हाँ मैम सच कह रहा हूँ ..बस दिल्ली और मुंबई आई आई टी, शहर के अन्दर हैं. बाकी के शहर से काफी अलग हैं. एकदम कट ऑफ.
ओह अच्छा …फिर तो वाकई बेचारे हैं ..ये तो वही बात हो गई ..ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम.
हाँ हाँ एकदम वही.
वैसे किसी को भी अपने बच्चे पर प्रेशर नहीं डालना चाहिए यहाँ के लिए ..एकदम प्रेशर कुकर बन जाता है.
असल में क्या है कि ग्यारहवीं- बारहवीं के बाद ही समझ आ जाता है कि बच्चा आई आई टी जाने लायक है या नहीं.
यानी उस बैल में कोल्हू में जुतने की कूवत है या नहीं ?
हाँ मैम ..
और वो भी बिना लड़कियों के …नो फन ..
हाँ ..
अच्छा कपिल सिब्बल कहते हैं कि आई आई टी अन का खर्चा भारत सरकार करती है .और ये लोग जाकर काम विदेशों में करते हैं .इसपर तुम्हारा क्या कहना है?
अरे मैम बिलकुल सिंपल है ना .
आप मेवे तो खीर में ही डालोगे ना ,दाल में तो नहीं.अब जैसा कि वो खुद कहते हैं कि आई आई टी वाले टॉप क्वालिटी के होते हैं. तो उन्हें ऐसा माहौल भी तो देना चाहिए ना काम करने के लिए. पर ये नेता तो ..जो ऐसा माहौल बनाने की कोशिश भी करता है उनकी ही जान ले लेते हैं.अब देखिये सत्येन्द्र दुबे – बेचारे ने पी एम् को चिट्ठी लिखी थी भ्रष्टाचार के विरुद्ध , बेचारा अब स्वर्ग में ऐश कर रहा है.
अभी कपिल सिब्बल एक नए रूल की बात कर रहे थे .
कौन सा रूल ?
यह कि जब आई आई टी अन को नौकरी लग जाएगी तो उनकी तनख्वाह से पैसे कटेंगे .क्योंकि सरकार उनके लिए पैसे भरती है.
तो इस पर आई आई टी अन का यही कहना था .
क्या??/
ठीक है ..पर उन्हें वादा करना होगा कि हम जो चार साल बिना लड़कियों के रहते हैं. तो पास होते समय सबको एक एक गर्ल फ्रेंड मिलनी चहिये.
हम्म good point .
जितने जितने आई.आई.टीएन हैं उनके कमेन्ट सुनने हैं मुझे…ओझा बाबु…पहले आप सामने आओ 🙂 🙂
bahut khoob , bahut achchha hi aur majedar sakshatkar !
सही कहा है –दूर के ढोल सुहाने लगते हैं ।
वैसे आजकल पढाई किसी भी प्रोफेशनल कोर्स में नहीं होती ।
मेडिकल में भी खुद ही पढना पड़ता है ।
यह भी सही है कि इंजीनिरिंग कॉलेज बहुत खुल गए हैं । लेकिन अभी यहाँ सब के लिए जॉब्स हैं ।
वैसे यह इंटरव्यू असली था ?
एक आई आई टियन कि व्यथा सुनी लेकिन ऐसा तो नहीं है कि वहाँ पर लड़कियाँ होती ही नहीं है जो वहाँ पढ़ रही होती हें वे भी उसी स्तर की होती हें जिस स्तर के लड़के होते हें. आई आई टी में बने गर्ल्स हॉस्टल के इतने सारे विंग खाली तो नहीं है. हाँ सबका अपना अलग अलग क्षेत्र जरूर होता है.
वैसे शेष व्यथा सही है, जैसे जैसे सरकार आई आई टी की संख्या बढाती जायेगी उसके मूल्य और गुणवत्ता में
कमी अवश्य ही लाएगा और फिर दुकानों की तरह से खुल रहे एन्जिनीरिग कॉलेज की तरह से ही हो जायेंगे. वैसे आई आई टी से जुड़े मूल्यों और स्तर को स्वीकार किया जा सकता है. आज बहुत अच्छा लगा शिखा तुम्हारी अलग सी प्रस्तुति को. बधाई.
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार – आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर – पधारें – और डालें एक नज़र – मुस्कराते – हँसते बीते २०१२ – ब्लॉग बुलेटिन
मतलब कि फिलहाल आईआईटीयंस टसूएँ बहा रहे है!….क्या ज़माना आया!…शिखाजी आपने सच्चाई सामने धर दी है!..धन्यवाद!
बिलकुल असली है डॉ साहब ..इंसान भी असली है और बातचीत भी :).हाँ अंदाज हल्का फुल्का कहा जा सकता है .
hahaahhahahah:)))
kya dimag laye ho devi…:)
sachchi wala interview chhap diya hai…ya aiwen hi..:)
waise majedaar hai!
मतलब ये हाल है———बडे बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले …………अब तो बेटे को कहती हूँ ये सपना मत देख्………हा हा हा………… ए मेरे दिल कहीं और चल ………
nice
अच्छा (काल्पनिक!) साक्षात्कार है, काफ़ी 'ह्यूमर'है, पर साथ ही साथ कुछ सच्चाइयाँ भी ! फ़ैकल्टि और प्लेसमेंट के मामले में तो कुकुरमुत्ते की तरह उगे इंजीनियरिंग कालेज़ आधी हक़ीक़त और आधा फ़साना ही हैं । पैकेज नाम की डील, और प्रतिष्ठित पदों पर नौकरी का प्रमाण इतना कम है कि 25-50 लाख सालाना के चर्चे दंतकथाओं की मानिंद सर्वव्याप्त रहते हैं अलग-अलग कालेजों के केम्पस में और फाइनल तक आते आते आम आईआईटीयन भली भाँति समझ चुका होता है कि इस प्रकार की स्थितियाँ उसके लिए नहीं हैं, और पर्याप्त ढूँढा-भाली के बाद कहीं 10-15000 रुपए मासिक की नौकरी मिल गयी तो ख़ुद को बड़भागा मानने लगता है । पिछले वर्ष मुंबई के आई आई टी में ही जयराम रमेश ने भारतीय आई आई टीज़ की छद्म-भव्यताओं पर काफ़ी तंज़ किए हैं । इन संस्थाओं ने भारतीय युवाओं को कितनी होनहारिता दी है यह तो कहना मुश्किल है, लेकिन लाखों युवाओं का मोहभंग बेशक किया है और उन्हीं के सँग-सँग उनके पेरेंट्स का भी । चुटीले अंदाज़ में काफ़ी संज़ीदा बिन्दुओं की तरफ ध्यान खींचा है आपने ! बधाई शिखा जी, लीक से थोड़ा-सा हटकर लिखने के लिए !
हा हा हा!…… करुण कहानी तो मस्त थी। पहले सोचा कि कमेंट्स दूँ कि नहीं। जहां तक मुझे लगता है कि आई आई टी ऐसी जगह भी नहीं है कि हर किसी को ये लगे कि कहानी करुण बन जाती है यहाँ आकर। और आई आई टी निकालने का मतलब ये भी नहीं होता कि आपको 50 लाख वाली जॉब मिल गयी। बल्कि ये धारणा बना लेना ही गलत बात है। आई आई टी आपको उत्कृष्ट व उन्नत तकनीकी सेवा-सुविधा प्रदान करती है, ताकि छात्र हर क्षेत्र में आप अव्वल बने। पहली बात, पह्ले दुसरे साल तक तो हर आई आई टी अन भी अपने आपको सबसे अलग ही मानते रहते है. चाहे वो घर हो या दोस्तों के बीच, आई आई टी का रौब जमाना तो सबको अच्छा लगता ही है.तीसरे -चौथे साल में भले ही उनकी खुद कि ये धारणा बदल जाए ये अलग बात है. कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता है कि इन लोगों ने आई आई टी आने से पहले दिन -रात इतनी मेहनत की होती है कि एक बार एडमिशन होने के बाद पूरा निश्चिन्त हो जाते है. उसके बाद पढाई में वो जोर नहीं रहता जितना पहले हुआ करता होगा. यहाँ आने के बाद लड़कियों का क्रेज मुझे तो समझ में ही नहीं आता कि पढाई करने आये थे या अपने लिए पार्टनर ढूँढने आये है. मैंने अक्सर देखा है कि हाई पैकेजेस में काम होता है सिस्टम एनालिस्ट जैसा. जो मेरी समझ से बाहर है कि मैंने जिस शाखा में प्रशिक्षण लिया है, उसका उपयोग कहाँ हुआ? अब जैसे कि २४ घंटे इन्टरनेट कि सुविधा को ही ले लीजिए, जिसमें आप आराम से दुनिया भर की जानकारी हासिल कर सकते है, अपनी पढाई को और पुख्ता बनाने के सामग्री हासिल कर सकते है, मगर मैंने ऐसे मेंटल केस देखे है, जो परीक्षा को भी छोड़ देते है वो भी एक गेम खेलने के लिए. मेरी समझ से तो आप अपनी कहानी खुद लिखते है, आपकी कलम आपके कहे अनुसार चलेगी, अपने से नहीं. ऐसे भी इधर-उधर कारण ढूँढने से पहले हमें अपने अंदर कारण ढूंढ लेना चाहिए.
परदे के पीछे की सचाई को दिखाता बहुत सटीक और रोचक साक्षात्कार…आभार
नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
हा हा ., क्या मजेदार साक्षात्कार है. वैसे तो आजकल तुलनात्मक दृष्टि से लडकिया पहले की अपेक्षा अधिक होती है जैसा की रेखा जी ने इंगित किया है और संदीप ने भी फिर भी इस बातचीत से शायद सिब्बल साहब लड़कियों के लिए आई आई टी में आरक्षण का प्रावधान लायें अन्य राज्य पोषित तकनीकी संस्थानों की तरह . थोडा गंभीर भी हो लिया जाए . जैसा की वंदना महतो जी ने लिखा है की यहाँ उत्कृष्ट और उन्नत तकनीक की पढाई तो मिलेगी लेकिन पैकज के बारे में बात करना बेमानी है , मै उनसे सहमत हूँ .. हा लेकिन जैसा अश्वनी जी ने लिखा है की
यहाँ के विद्यार्थियों को अंत में १०-१५ हजार की नौकरी करनी पड़ती है ये कुछ अतिश्योक्ति सी लगी मुझे . जहा तक बात है जयराम रमेश जी की मुंबई व्याखान का , शायद उनके ज्ञान चक्षु आई आई टी में पढने के बाद ही खुले. पहले खुल गए होते तो वो आई आई टी क्यों पढने जाते .
इस इंटरव्यू को अधिक से अधिक अभिवावकों को पढ़ना चाहिए …काफी कुछ जाना , काफी कुछ रोचक भी लगा
हाय ये न थी हमारी किस्मत ……..
Ha ha ha! Mazedaar sakshatkaar!
आज आई आई टी संस्थान पूर्ववत नहीं ..
बढिया प्रस्तुति !!
आज सुबह एफ.बी. पर एक किस्सा पढ़ा… एक इंजीनियर (आई.आई.टीयन था कि नहीं, लिखा नहीं था)नौकरी के तलाश में (छोकरी भी, अगर आपकी इस इंटरव्यू वाले संदीप की अर्जी मान ली जाए तो)एक बाबा के पास गया.. वहाँ सात आसनों पर सात बाबा ध्यान में बैठे थे (सा,रे,ग,म,प,ध, नी.. इंजीनियर ने पूछा,"बाबा! मेरी नौकरी कब लगेगी!"
बाबा ने पूछा,"क्वालीफिकेशन बताओ!"
"जी!बी.टेक हूँ खरगपुर से!"
बाबा ने पास वाले बाबा से कहा,"शिष्य! एक और चटाई ले आओ और इस बालक को अपने पास ही ध्यान में बिठा लो!"
………..
आपकी इस पोस्ट के लिए… 'शानदार' ही सूझ रहा है अभी!!
"खुदा के वास्ते … पर्दा ना 'आई आई टी' से उठा जालिम …
कहीं ऐसा ना हो यहाँ भी वो काफ़िर सिब्बल निकले …"
आशा है चचा मरहूम माफ़ करेंगे इस गुस्ताखी पर … वैसे चचा की भतीजी ने बढ़िया इंटरव्यू लिया …
shikha ji aap ne iit par jo int liya shandar he india ab vishva me no 1 hoga ye hi hmari dua he
अरे राम रे राम, बिचारे आई आई टीयन
बस एक ही के इंटरव्यू से बात नही बनेगी,शिखा जी,सीरीज में होने चाहिये ऐसे इंटरव्यू.
एक आई आईटीयन की करुण कहानी कई की हो सकती है ..जब आई आई टी संस्थान ही इतने खुल जायेंगे तो क्वालिटी तो कम होनी ही है ..क्यों कि नए संस्थानों के पास पर्याप्त सुविधाएँ शायद अभी न हो पायीं हों .इस साक्षात्कार के द्वारा अभिभावकों को भी सचेत करने का प्रयास किया गया है ..
वैसे इस जगह से इंजीनियरिंग करने के बाद जॉब तो मिल ही जाती है ..बढ़िया इंटरवियु
रोचक लेख …..
सच है…हर टॉप के इंस्टिट्यूट का यही हाल है…भीतर की बात वहीँ जाकर पता लगती है..
फिर भी ग्लेमर तो अब भी है IITIANS का..
कुछ 'करुण प्रोब्लम्स' तो फर्स्ट वर्ल्ड के प्रोब्लम्स की तरह होती हैं. जो अक्सर बाद में पता चलता है…
पर एक तो करुण कहानी जो सच में दर्द भरी दास्ताँ है… वैसे लगता है धीरे-धीरे वो भी 'करुण कहानी' अब कहाँ रही 🙂 १०० लड़कियां ! ये तो बहुत ज्यादा है !
हमारे ४२० के बैच में, जो बहुत लड़की-प्रधान बैच माना जाता था, कुल ३७ लडकियां. जिनमें ३० तो… खैर.. 🙂
और ३५ साल पहले के उन सीनियर्स से भी मिला हूँ जिन्हें स्किट में भी खुद लड़की बनना पड़ता था. 🙂
मेरे घर के पास ही 5 इंजिनियरिंग कॉलेज खुल गए हैं। सबकी गति एक ही है। पता नहीं इंजिनियर बनाने के पीछे लोग भेड़ चाल क्यों चल रहे हैं? आपकी पोल खोलु पोस्ट ने बहुत कुछ कह दिया।
रोचक साक्षात्कार।
काफी कुछ सामने आ गया……
हजारों ख्वाईशें ऐसी कि हर ख्वाइश पे दम निकले …
इंटरेस्टिंग…
बहुत सुन्दर प्रस्तुति…वाह!
क्या साक्षात्कार है, कतई बवाल टाईप| खाब मेरा भी था आई आई टी में जाने का, जो पूरा नहीं हुआ | इस चक्कर में एक्स्ट्रा पढाई भी करनी पडी | बाद में किसी पान की दुकान टाईप कॉलेज से इंजीनियरिंग निपटाई, निपट गयी 🙂 | पढाई-लिखाई की बात नहीं करते न नौकरी की, लड़कियों वाली बात पे हमें ओब्जेक्शन है "माई लोर्ड" | पहले तो हमारे यहाँ भी लड़कियां कम ही थी, उस पर से ऐसे कॉलेजेस में भर भर के जनता आती है, कम्पटीशन इतना तगड़ा, आई आई टी के एग्जाम से भी जादा तगड़ा 🙂 …इस लिए इन सब मामलों में "ग्रास इज ग्रीनर आलवेज़ ओन अदर साइड" 🙂 🙂 🙂
हमारी तरफ से संदीप बाबू को आल दी बेस्ट पहुंचा दीजिये 🙂 🙂 🙂
अच्छा साक्षात्कार! यदि स्पंदन का उद्देश्य ये था कि कोई आई-आई-टीयन अपने निजी जीवन में क्या कुछ महसूस करता है तो संदीप जी की बातें बिलकुल सही हैं.
परन्तु, वास्तविकता यही है की सरकार बहुत खर्च करती है इन संस्थानों पर. इनकी तुलना में भारत के आम विश्वविद्यालयों में लेष-मात्र भी सुविधाएँ नहीं होती. यहाँ दाखिला पाने वाले औरों से कहीं बेहतर होते हैं. परन्तु जब विद्यार्जन के पश्चात समाज को वापस योगदान देने की बात आती है तो system की anarchy से घबरा जाते हैं. सवाल ये है कि यदि विषम परिस्थितियों में योगदान से कतराएँ तो भला योग्यता किस काम की? हमें सोचना चाहिए इस पर!
हैरान कर देने वाली कहानी |नव वर्ष की शुभकामनाएं
सत्य और विचारणीय…
सादर..
इंटरव्यू मजेदार है।
डा.दराल की बात सही लगती है-आजकल पढाई किसी भी प्रोफेशनल कोर्स में नहीं होती ।
आई.आई.टी. के बारे में कभी वहां रजिस्ट्रार रहे गिरिराज किशोर जी का माननाहै:
आई.आई.टी.से देश को कोई फायदा नहीं है।असल में ये टेक्निकल लेबर के रिक्रूटिंग इंस्टीट्यूट हैं।सेन्टर हैं विकसित देशों के लिये।हम अपने कुशल तकनीकी लेबर उनको सप्लाई करते हैं। ज्यादातर लोग विदेश चले जाते हैं जहां इनको हाथों-हाथ लिया जाता है।जो रह जाते हैं यहां वे बहुराष्टीय कम्पनियोंमें चले जाते हैं।देश को इनसे बहुत कम फायदा है।
बाकी बालक-बालिका अनुपात के बारे में कभी हमने भी लिखा था:
हमारे बैच में तीन सौ लोग थे। लड़कियां कुल जमा छह थी। तो हमारे हिस्से में आयी 1/50 । हम संतोषी जीव । संतोष कर गये। पर कुछ दिन में ही हमें तगड़ा झटका लगा। हमारे सीनियर बैच में लड़कियां कम थीं। तो तय किया गया लड़कियों का समान वितरण होगा। तो कालेज की 10 लड़कियां 1200 लड़कों में बंट गयीं। बराबर-बराबर। हमारे हिस्से आयी 1/120 लड़की .
कॉमर्स के मुकाबले इंजीनियरिंग में लुभावने पॅकेज के साथ कैम्पस प्लेसमेंट की संभावनाएं प्रभावित करती हैं अभिभावकों को , अब सोचना होगा !
पोल खोलू साक्षात्कार ….
जबरदस्त |
हमारे यहाँ ISM धनबाद में लास्ट रैन्कर्स आते हैं —
नव-वर्ष की मंगल कामनाएं ||
धनबाद में हाजिर हूँ —
बहुत ही रोचकता के साथ्ा विचारणीय आलेख …
अब तो खूब लड़कियां जा रही हैं। किसी जमाने में नहीं थी।
PADAKAR KHUSHI HUI KI IIT ME BHI GAPHLAT HAI INT – JHOOTA TO NAHI VARNA KHUSHI ASTHAI HOGI. KUCH Dr KE LIYE BHI INSTITUTE KHOLO VAHA LADKIYA KHUB MILEGI …………DYAN DE.
मेरे बैच में ३१० में ५ थीं, तब भी जीवन करुण कहानी कभी नहीं हुयी। संदीप के साथ मेरी संवेदनायें हैं, मस्त रहने की राहें एक दिशा में ही नहीं जाती हैं।
सही है कि मस्त रहने की राहें एक दिशा में ही नहीं जाती हैं। लेकिन संदीप का साक्षात्कार तो चुम्बकीय सुई के सामान एक ही दिशा में आता है
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रोचक साक्षात्कार…
सभी पाठकों का उनकी सारगर्भित प्रतिक्रिया का आभार.
@ मधुरेश जी !आपने एकदम ठीक समझा .यह साक्षात्कार कड़ी पढाई से कुछ पलों की फुर्सत पाए एक छात्र से हलकी फुलकी बातचीत ही था.ना की आई आई टीयनकी योग्यता या अयोग्यता पर कोई परिचर्चा.
अरे यह क्या किया भई … सारे आम बेचते
आई.आई.टी वालों को बदनाम कर डाला आपने तो डॉ टी एस दराल साहब की बात से सहमत हूँ पूरी तरह :)जो उन्होने कहा वही सच है 🙂
शानदार साक्षात्कार. आईआईटियन्स की तमाम परेशानियों 🙂 के बारे में जानकारी मिली 🙂 .
एक नम्बर का साक्षात्कार 🙂 🙂
saakshatkar bhale hi kalpanik ho, magar samayik hai, sachchaee k nikat hai. samvedana se bhara huaa hai. shikh, tumhari kalpana shakti ko mera naman hai. naye sal mey isee tarh ke vaicharik lekh aate rahen..shubhkamnaye…
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 29 -12 – 2011 को यहाँ भी है
…नयी पुरानी हलचल में आज… अगले मोड तक साथ हमारा अभी बाकी है
yahaan par comment karne wale aap sabhi ka shukriya..aap sab se ye anurodh hai ki is baatchit ko hasya vinod me ki gayi baatchit ki tarah hi lein aur in samvaado ke aadhar par is sansthaan ke bare me koi sanjidaa rai na bana lein..har chiz ki tarah isme bhi achhai aur burai dono hai..ye baatchit karte waqt purn roop se hasya vinod ko hi dhyan me rakha gaya tha ..
sandeep 🙂
हमारे दोनों बेटे आई.आई.टी. कानपुर में अभी क्रमशः तृतीय और द्वितीय वर्ष में पढ़ रहे है ,और हम लोग प्रायः वहां जाते रहते है ,आपके साक्षात्कार से पूरा इत्तिफाक है मुझे |
ऊंची दूकान … फीके पकवान …
एक सा हाल है हर जगह … आपको नया साल मुबारक ओ …
साक्षात्कार बहुत मजेदार है. वैसे ऐसा भी बुरा हाल नहीं कि आई आई टी में लडकी नहीं. १:१ का समीकरण नहीं हो पाता पर दोस्त तो मिल हिन् जाती है. मेरा भाई १९८७ में आई आई टी कानपुर से पास आउट किया था उसके बैच में लडकियां थी. अब तो और भी ज्यादा हो गयी होंगी. बात ये है कि आई आई टीयंस के लिए मामला बड़ा पेशोपेश का होता है. ५० लाख की नौकरी तो है हिन् ५० लाख दहेज़ के साथ बीबी भी फ्री में आ जाती है, तो ऐसे में गर्ल फ्रेंड बनाना ज़रा टेढ़ी खीर है…जिनको १ करोड़ नहीं चाहिए उनके लिए तो आई आई टी में भी मामला फिट हो सकता है. पर बेचारे……………
अच्छा लगा आज कल के आई आई टीयन के विचार पढना. आप दोनों को शुभकामनाएं.
majedar sakshatkar..bahut rochak laga 🙂
Welcome to मिश्री की डली ज़िंदगी हो चली
शिखा जी,
मुझे मालूम है कि देरी से मेरे आने के पहले तक आप मान चुकी होंगी कि मैं आने वाला नहीं हूं।
पर मैं जानकर देरी से आना चाह रहा था, क्योंकि इस विषय पर अन्य लोगों के विचार जानना चाहता था।
दूसरी बात यह कि जो मैं शेयर करूंगा वह कुछ अलग हट के होगी। और आज कल लोग मेरी बातों का बुरा मान जाते हैं। इसलिए अगर विवाद टाइप का कुछ हो जाता तो उससे डर तो लगता है न जी।
अब आप यह कह सकती हैं कि अब जो लिखोगे तो क्या विवाद नहीं हो सकता।
हां हो सकता है। होए।
पर इन अर्धशतक से अधिक आ चुके लोगों में से दुबारा आने वाले कम ही होंगे।
चलिए अब अपनी बात शुरु करता हूं ….
shikha ji aaj mujhe zindagi ki sbse jyada khushi mili sirf 300 rupye me hamne roos ki kyi salo ki ser krli sirf 30 minat me mene aap ki smrtiyon me roos pdh meri almari me aaj shikha ki bhi 1 kitab shamil ho gyi sab se badhiya jo mujhe lga vo he chay pila de meri maa aap ne bde khubsurati se likha jo hmare dil ko choo gya is bar meri dua aap ke liye dil ki ghraiyon se he aap hmesha khush rhen aur swasth rhen jwab ka muntezir hun siddiqui noida
अरे एक बात कहना भूल ही गया
अब तो ऐसी ऐसी जगह आई आई टी खुल रहे हैं कि कहना क्या?
हमारे संगठन में एक फ़ैक्टरी है येद्दुमैलारम में। जब आई आई टी वालों का रिक्वेस्ट आया कि उन्हें जगह और इन्फ़्रास्ट्रक्चर चाहिए आई आई टी चलाने के लिए तो हम झट से मान गए। विद्यार्थियों का क्या हाल होता होगा वहां वे ही जाने … हम तो पांच साल की पोस्टिंग काट कर आए हैं वहां … कहा तो यह जाता है कि वहां की पोस्टिंग पनिशमेंट पोस्टिंग की तरह है।
और अन्त में
आपका साक्षात्कार बहुत रोचक लगा। इस साक्षात्कार को ब्लॉग पर प्रस्तुत करने का अन्दाज़ भी बहुत शानदार रहा। इसमें से उभर कर आई बातें नई पीढ़ी की सोच और उनकी महत्वाकांक्षा को उजागर करती है।
हमने जो वाकये बताए उनमे पहले दो तो पुरानी पीढ़ी की थी। हां तीसरी में सारे नई पीढ़ी के ही थे, पर दुर्भाग्य …!
आपके आलेख और इस प्रस्तुति के बाद लग रहा है कि इस विधा को ब्लॉग पर बडः़आया जाना चाहिए।
एक तीसरा अनुभव है कि एक प्रोजेक्ट दिया था … हमारे दो सौ से अधिक साल के हो चुके इस संगठन के दशकों पुराने इंसेन्टिव सिस्टम को बदलती दुनिया और बदलते परिवेश में कुछ नया स्कीम देने के लिए। खूब घूमे, दौड़े, और दिया वही ढाक के तीन पात। सारा मामला ही फ़्लॉप शो बन के रह गया। न हामे यूनियन लीडर को भाया, न कर्मचारियों को, न अधिकारियों को और न ही मंत्रालय को ही।
एक अभी भी नौकरी में हैं। अनूप जी की फ़ैक्टरी में। शाय्द वो भी गोल्डमेडलिस्ट हैं … भगवान बचाए … कभी निर्णय ही नहीं लेते और अनिर्णय की स्थिति में सबकुछ लटाका के रख देते हैं।
अपना तो आईआईटियन का अनुभव ज़रा हट के है। एक मुझे याद आते हैं, रामकृष्ण जी, खडगपुर के गोल्डमेडलिस्ट थे। एक टेक भी कर रखा था। सरकारी नौकरी में आ गए। जिन्दगी भर ढेले भर का काम नहीं किया। और जिस दिन रिटाय हुए, कहते हैं दिस वास बोनान्ज़ा फ़ॉर मी। खूब मज़े किए, आराम किए और आज शान से जा रहे हैं, इतना पेंसन मिलेगा कि बाक़ी की ज़िन्दगी भी ऐश में बीतेगी।
यह बात तो सही है कि हम और हमारे ज़माने में भी बायोलोजी ले लेते थे और साइड में मैथ …
अपना किस्सा अलग रहा कि न डॉक्टर बनने की चाहत थी न इंजीनियर … सो सीधी राह पर चलते गए … स्नातक, स्नातकोत्तर।
हा हा हा ..मनोज जी! आप तो जबरदस्त्त खिलाड़ी निकले ..आखिरी ओवर में आये और आते ही शतक :).रही बात विवाद की तो ..सार्थक विचारों से होने वाले विवाद भी सार्थक ही हुआ करते हैं ..तो कोई वान्दा नहीं …बोलो बिंदास 🙂
बहुत बढ़िया साक्षात्कार. सब अन्दर की बातें हैं. साधारण जनता तो अनभिग्य ही रहेगी.
बहुत बढ़िया प्रस्तुति,सुंदर साक्षात्कार आलेख अच्छा लगा ……
welcome to new post–जिन्दगीं–
रूस कि यात्रा के बाद एकदम से हिन्दुस्तान कि नब्ज़ पर हाथ रख दिया आपने … ऐसे पल भी बहुत जरूरी हैं …
कई अनजाने अनदेखे पहलू उजागर हुए शिखा जी धन्यवाद इस उम्दा और रोचक साक्षात्कार के लिए !
शानदार साक्षात्कार…. कई सवाल भी खड़े करता है…
करूण कहानी हास्य के साथ…वाह …यहां भी थ्री इडियट. एक पूछने वाली, दूसरा बताने वाला और तीसरा पढ़ने वाला/वाली…..हा हा हा .
शानदार साक्षात्कार…. कई सवाल भी खड़े करता है…
आपका साक्षात्कार बहुत रोचक लगा। इस साक्षात्कार को ब्लॉग पर प्रस्तुत करने का अन्दाज़ भी बहुत शानदार रहा। इसमें से उभर कर आई बातें नई पीढ़ी की सोच और उनकी महत्वाकांक्षा को उजागर करती है।
यह सिर्फ आई आई टी का ही नहीं , बल्कि सारे इंजीनियरिंग के छात्रों का यही हाल है
बहुत सही हाल बयां किया है आप ने और आप के मित्र ने ऐसा ही हो रहा है खाश कर के उत्तर प्रदेश में तो ऐसा ही हो रहा है
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