नारी

बंद खिड़की के पीछे खड़ी वो,
सोच रही थी कि खोले पाट खिड़की के,
आने दे ताज़े हवा के झोंके को,
छूने दे अपना तन सुनहरी धूप को.
उसे भी हक़ है इस
आसमान की ऊँचाइयों को नापने का,
खुली राहों में अपने ,
अस्तित्व की राह तलाशने का,
वो भी कर सकती है
अपने, माँ -बाप के अरमानो को पूरा,
वो भी पा सकती है वह मक़ाम
जो पा सकता है हर कोई दूजा.
और फिर ये सोच हावी होने लगी
उसके पावन ह्रदय स्थल पर.
मन की उमंग ने ली अंगड़ाई,
और सपने छाने लगे मानस पटल पर,
क़दम उठाया जो बढाने को तो,
किसी अपने के ही प्रेम की बेड़ियाँ
पावों में पड़ी थीं,
कोशिश की बाँहें फेलाने की तो,
वो कर्तव्यों के बोझ तले दवी थीं.
दिल – ओ दिमाग़ में मची थी हलचल,
ओर वो खड़ी थी बेबस लाचार सी,
ह्रदय के सागर में
अरमान कर रहे थे कलकल,
और वो कोशिश कर रही थी
अपने वजूद को बचाने की.
तभी अचानक पीछे से आई
बाल रुदन की आवाज़ से,
उसके अंतर्मन का द्वन्द शांत होने लगा,
दीवार पर लगी घड़ी
शाम के सात बजा रही थी,
ओर उसके ह्रदय का तूफ़ान
धीरे से थमने लगा.
सपने ,महत्वाकांक्षा ,
और अस्तित्व की जगह,
बालक के दूध की बोतल
हावी होने लगी विचारों पर,
पति के लिए नाश्ता
अभी तक नही बना,
और रात का खाना हो गया
हावी उसके मनोभावों पर.
और वो जगत की जननी,
ममता मयी रचना ईश्वर की,
भूल गई सब और बढ चली
वहीं जहाँ से आई थी,
मैत्रेई और गार्गी के इस देश की
वो करुण वत्सला नारी थी
तुम्हारी कविता ने ना जाने कितने दृश्य आँखों के आगे साकार कर दिए. लगा जैसे अधखुले पट के पीछे से ना जाने कहाँ कहाँ कितनी जोड़ी आँखें…देख रही होंगी सपने,खुली आँखों से ..हिरणी की तरह कुलांचे भरने को…पतंग की तरह खुली आकाश में उड़ने को…या फिर कलकल नदी की तरह अपनी ही गति से ,अपनी ही राह बनाते बहने को…पर जैसा कि लिखा है तुमने…
दीवार पर लगी घड़ी
शाम के सात बजा रही थी,
ओर उसके ह्रदय का तूफ़ान
धीरे से थमने लगा
बहुत खूबसूरती से एक महिला के जीवन का हर एक दिन सामने लाकर रख दिया है. हर रोज की उधेड़बुन हर रोज की जद्दोजेहद बेहतरीन
women's day par ek shashakt nari ke charitr ko darshati
khoobsurat rachna
मगही में…
"कैसे अयियो? बुतरू रोबहो."
अभी बुतरू के दूध, नय पिलैलिओह,
"कैसे अयियो? बुतरू रोबहो."
हिन्दी में…
कैसे आयें? बच्चा रोता है.
अभी बच्चे को दूध नहीं पिलाए हैं.
कैसे आयें? बच्चा रोता है
उपरोक्त पंक्तियाँ माँ द्वारा कही गयी है जब पति उसे बुलाता है….
आपकी कवित लाजबाब….
बहुत बढिया अभिव्यक्ति, बधाई।
उसे भी हक़ है
इस आसमान की
ऊँचाइयों को नापने का.
….शिखा जी, बार बार पढ़ने लायक रचना.
महिला दिवस पर शुभकामनाएं.
सपने ,महत्वाकांक्षा ,
और अस्तित्व की जगह,
बालक के दूध की बोतल
हावी होने लगी विचारों पर,
पति के लिए नाश्ता
अभी तक नही बना,
और रात का खाना हो गया
हावी उसके मनोभावों पर
महिला जीवन का सच बहुत अच्छी तरह शब्दों मे बान्ध दिया। एक ही जीवन मे कितने जीवन जीती है नारी? दिल को छू गयी रचना। शुभकामनायें
ममता मयी रचना ईश्वर की,
भूल गई सब ओर बढ चली
वहीं जहाँ से आई थी,
मैत्रेई और गार्गी के इस देश की
वो करुण वत्सला नारी थी
बेहद सटीक और सुंदर शब्दों में वर्णन किया है आपने. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
हावी उसके मनोभावों पर.
और वो जगत की जननी,
ममता मयी रचना ईश्वर की,
भूल गई सब ओर बढ चली
वहीं जहाँ से आई थी
-एक चित्रपट की तरह बहती कविता…सुन्दरता से गढ़ा है, बधाई.
अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.
-उड़न तश्तरी
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ऐसे मनाये महिला दिवस
सर्वसाधारण के हित में >> http://sukritisoft.in/sulabh/mahila-diwas-message-for-all-from-lata-haya.html
नारी मन की वेदना, व्यथा, धीर-गंभीर त्याग तपस्या …सब कुछ तो है पर क्या करोगी कह कर…
कुछ अजीब सा हो गया है मन …महसूस कर रही हूँ पर कह नहीं पा रही…
अन्दर जाने क्या टूटा है.. !!
नारी के विभिन्न रूपों पर अच्छी कविता,कभी माँ तो कभी बीवी तो कभी बहन,सुन्दर रचना.श्रेष्ट पक्तियां .
विकास पाण्डेय
http://www.विचारो का दर्पण.blogspot.com
मातृ-दिवस पर मातृ-शक्ति को नमन!
nari jeevan ka katu satya uker diya hai.
अदा जी ! इतना दुखी न होइए ..ये तो हमारे समाज की विडंबना है और हमें इसे झेलने की शक्ति बचपन से ही मिलती है …इतने कमजोर नहीं हम की इन बातों से टूट जाएँ और आप तो बिलकुल भी नहीं :)so cheer up …Indian women still have to go very far :).
shikha ….ekdam sachchai bayaan kar dee….lekin …niraash kyun hona….hum aise main hee apne lie jagah bana lenge….wat say?
shikha…bahut sundar …yahee hota hai…ham logon ke saath…lekin koi nahi hum isme bhi samy apne liye nikaal lenge….kya kahtee ho?
खुले आसमान में पंख फैलाये उड़ने से अधिक कठिन है घर के भीतर पल रहे बच्चों को उड़ने के लिए तैयार करना। यह बड़ा काम करते हुए ही स्त्री त्याग और बलिदान की प्रतिमूर्ति बन जाती है।
अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल जमाने के लिए…
नारी शक्ति को नमन्
ताज़े हवा
खुली राहों में अपने ,
मनोभाव व्यक्त करने में सफल! कुछ सुझाव है, यदि अन्यथा न लें
जैसे
'वो भी पा सकती है वो मकाम' को पा सकती है मक़ाम कर लें
और उसके नीचे 'पता' को बता फिर 'नही' को नहीं कर लें.
और हाँ वो के स्थान पर वह कर लें .
यूँ आपकी मर्ज़ी.
आभार अच्छी कविता पढवाने के लिए.
नारी की स्थिति को सही चित्रित करती अच्छी रचना….
महिला दिएअस की शुभकामनायें
ह्रदय के सागर में
अरमान कर रहे थे कलकल,
और वो कोशिश कर रही थी
अपने वजूद को बचाने की.
तभी अचानक पीछे से आई
बाल रुदन की आवाज़ से,
उसके अंतर्मन का द्वंड शांत होने लगा,
दीवार पर लगी घड़ी
शाम के सात बजा रही थी,
ओर उसके ह्रदय का तूफ़ान
धीरे से थमने लगा.
सपने ,महत्वाकांक्षा ,
और अस्तित्व की जगह,
बालक के दूध की बोतल
हावी होने लगी विचारों पर,
बहुत-बहुत सुन्दर रचना. बधाई.
तारीफ़ के लिये शब्द नही है मेरे पास!एक शब्द मे कहूं तो बस ,लाजवाब!
Bahut sundar rachana nari jivan ka ytharth chitran kiya hai aapane….Happy Women's Day!!
Hi..
Bachpan main padha tha..
'Nari jeevan haai tumhari yahi kahani..
Aanchal main hai doodh..aur ankh main pani..'
sadiyon se ghar parivar main ghulti-pisti nari ke swayn ke swapn parivar ki apekshaon ke aage kaise gaun ho jaate hain yah aapki kavita ne swatah darshaya hai..
Haalanki samay ke sath samajik manytayen badal rahi hain, aur badalte parivesh main naari aaj ek safal udyogpati, bureacrate, rajnitigya, khiladi, shishak..aadi ban rahin hain.. Aur to aur Bharat main to Rastrpati tak ek Mahila hain.. Aur wo din door nahi jab aapki kavita ki yah vyatha katha.. Khushi ke Geet main badal jayegi.. Us din ka intejaar hum bhi tahe dil kar rahe hain..
DEEPAK SHUKLA..
Mahila divas ki hardik shubh kamnayen..
DEEPAK SHUKLA..
नारी का यह रूप सबसे सुन्दर है ।
हावी उसके मनोभावों पर.
और वो जगत की जननी,
ममता मयी रचना ईश्वर की,
भूल गई सब और बढ चली
वहीं जहाँ से आई थी,
शिखा ….क्या कहूँ इस कविता पर ….
अकसर लौट जाती है वह वापस वही …यही इस देश, इस संस्कृति की विशेषता है … इसके लिए उसे किसी संस्कृति के ठेकेदार के निर्देशों की की जरुरत नहीं होती …वह स्वयं अपनी मर्यादा, अपना रास्ता चुनती है …
बहुत अच्छी कविता ….बहुत बढ़िया …!!
बहुत सुन्दर लिखा है आपने ।
bahoot achha likha hai vaise bhi is samay nariyo ka jamaana mahila bill pass hone jaraha hai danyavad
मैत्रेई और गार्गी के इस देश की
वो करुण वत्सला नारी थी
नारी नारी के अलावा भी बहुत कुछ है … शायद ये बात उसे पुरुष से जुदा और उससे ऊँचा बनाती है …. करुणा के अलावा .. नारी साहस भी है, शक्ति भी है …. किरण बेदी भी है और कल्पना चावला भी है …
बहुत बढिया लिखा !!
sach kahun to ab tumharee kalam paini ho chali hai
देख और पढ रहा हूं कि महिला दिवस पर आप सबकी लेखनी ने इस दिवस की सार्थकता में चार चांद लगा दिए हैं और आप सबने धूम मचा दी है । इससे कुछ कम मिलता तो निराशा होती ..अच्छा लगा हमेशा की तरह ….शुभकामनाएं
अजय कुमार झा
बस एक ही शब्द- अद्भुत !
naari ke manovigyaan ko
bkhoobi darshaaya aapne apni rachna mei
hamaare apne hi samaaj ko
aaeena dikhaate hue aapke steek vichaar
aur manobhaav prabhaavshali bn pade haiN
aur
Rashmiji ki baat vichaarneey hai
यह करुणा और वात्सल्य ही नारी जीवन को पूर्णता प्रदान करता है , लगता है इससे अधिक कुछ भी नहीं , शुभकामनायें !!
नारी क्यों हो तुम ऐसी
तुमसे है अस्तित्व
तुमसे है जीवन
फिर भी तुम क्यों हो खुद का ही अस्तित्व खोजती!!!
"वो भी कर सकती है
अपने, माँ -बाप के अरमानो को पूरा,
वो भी पा सकती है वह मक़ाम.."
बहुत ही सुन्दर एवं मार्मिक रचना ।
आज की नारी, पुरुषो से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं । उनके लिये आज कोई भी कार्य मुशकिल नहीं । बधाई ।
Blog ka Naya roop achchha laga..
kavita to behatreen hai aaj ki.. ise print media me try kiziye.. bura na manen to apna no. de diziyega.. 1st April ko main London aa raha hoon 3-4 din ke liye..
mera no. hai 07515474909.. cdhahen to missed call ya message karen.
वो करुण वत्सला नारी थी….
बस यही तो …
बहुत सशक्त दिल को छूती कविता !
phir mamta sansar banaakar mujh sang kheli kitne khel
"…..और अस्तित्व की जगह,
बालक के दूध की बोतल
हावी होने लगी विचारों पर,
पति के लिए नाश्ता
अभी तक नही बना,
और रात का खाना हो गया
हावी उसके मनोभावों पर….!"दिल को छूती अभिव्यक्ति, सचमुच अद्भुत रचना …कोटिश: बधाईयां और शुभकामनाएं !
एक पुरुष होने के नाते, इस कविता में छिपी गहरी संवेदनायें, अस्तित्व के लिये अव्यक्त छटपटाहट, और पुरुषों के लिये मामूली लगने वाले स्ट्रेस्स बिंदु,को समझ पाना मुश्किल रहा मगर कविता नें आसान किया ज़रूर. धन्यवाद. नया कलेवर विशाल हृदय को परिलक्षित करता है.
शिखा जी…..टिप्पणी को क्लिक तो किया था कुछ कहने के लिए…..लेकिन सच कहूँ……??आज कुछ कहने में मैं असमर्थ हो गया हूँ….मन भीतर तक भीग गया है…..मैं इस बाबत क्या सोचता हूँ…..क्या कहूँ…..क्या बताऊँ…..आज छोड़ो…..!
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