१८ वीं और १९ वीं सदी के बहुत से पश्चिमी विद्वानों ने ये भ्रम फ़ैलाने की कोशिश की है कि भारत में ३०० – ४०० ईसा पूर्व जिस ब्राह्मी लिपि का विकास हुआ उसकी जड़े भारत से बाहर की हैं ,और इससे पहले भारत किसी भी तरह की लिखित लिपि से अनजान था.
इसी सम्बन्ध में डॉ. Orfreed and Muller ये मानते हैं कि भारतीयों ने लिखना ग्रीक से सीखा .सर विलियम जोंस ने कहा कि भारतीय ब्राह्मी लिपि Samatic लिपि से विकसित हुई है. डॉ. Devid Deringer को लगता था कि ब्राह्मी का जन्म Aramaic लिपि से हुआ है .जबकि संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखते हुए माक्स मुलर कहते हैं कि भारत में लेखन की कला ४०० ईसा पूर्व में ही जानी गई.
दुर्भाग्य वश बाद में भारतीय विद्वानों ने भी इन्हीं के आधार पर ये राग अलापना शुरू कर दिया और सच्चाई जानने की कोशिश ही नहीं की .
इस सम्बन्ध में चलिए देखते हैं कि सच क्या है —
प्रसिद्द पुरातत्व वादी और लिपि विशेषज्ञ ए. बी. वालावलकर (A.B.Walawalkar)और ल.स. वाकणकर (L.S.Wakankar) ने तत्पश्चात ये सिद्ध किया कि भारतीय लिपि का जन्म भारत में ही हुआ और लिखित लिपि वैदिक कॉल में भी जानी जाती थी.
आइये एक नजर डालते हैं archaelogical evidence पर–
Pic- 1
ब्रिटिश म्यूजियम में एक मोहर रखी हुई है (३१-११-३६६/१०६७- ४७३६७ – १८८१).इसकी नक़ल देखिये चित्र १ में .
६ वीं सदी की इस मोहर में बेबीलोन के अंकित शब्द और ब्राह्मी लिपि के शब्द एक साथ दिखाई पड़ते हैं.बाकी सभी अंकित शब्दों को १९३६ में ही पढ़ लिया गया था .परन्तु बीच की पंक्ति को अज्ञात लिपि समझ कर छोड़ दिया गया. वालावलकर ने इसे पढ़ा और ये इस कथन को झुठला दिया कि भारतीय लिपि को बाहर से लाया गया है.उनके मुताबिक ये मोहर ये साबित करती है कि ये अशोक के समय से पूर्व की है और ये भाषा संस्कृत और महेश्वरी है
PIC- 2, 3 from left to right. Pic- 4, 5, 6, 7.
इसी तरह एक और महत्वपूर्ण सबूत पेरिस के लौर्व म्यूजियम में मिलता है.
३००० – २४०० ईसा पूर्व की इस मोहर ( देखिये चित्र २ ) और इंडस वेली ( देखिये चित्र ३ ) कि इस मोहर की समानताएं भी इस बात को गलत सिद्ध करती है कि भारतीय लिपि को कहीं बाहर से लाया गया है.
परन्तु अंग्रेजों के पूर्वाग्रहों से युक्त विद्वान अभी भी इन तथ्यों पर चुप्पी साधे हुए हैं.
वैदिक ओमकार से भी समझा जा सकता है
इस क्रम में जरुरी है कि हम एक नजर ६ सदी ईसा पूर्व कि सोहगरा कोपर ट्रांसक्रिप्ट पर डाले इसकी पहली पंक्ति पर वैसा ही चित्र है जैसा वालावालकर ने वैदिक ओमकार का बताया है.जरा चित्र ५, ६, ७ को देखिये ये सिक्को पर ॐ और स्वस्तिक जैसे धार्मिक चित्र अंकित हैं..अब सवाल ये कि हम ये कैसे मान लें कि वैदिक ओमकार ऐसा ही था.?
यहाँ ओमकार की रचना कैसे हुई ..ज्ञानेश्वरी में इसकी व्याख्या देखिये.
a – कार चार अंगुल U – कार उदर विशाल
m– कार महामंडल , मस्तक कारे हेतिन्ही एकावातालेतेचा शब्दा ब्रह्मा कावाकाला तेमीयां गुरुकृपा नामिले आदि बीज
Pic.8
हालाँकि वर्तमान देवनागरी में लिखा जाने वाला ॐ इस व्याख्या से मेल नहीं खाता परन्तु वालावालकर के वैदिक ओमकार के बहुत समीप है.यदि हम महेश्वरी सूत्र के अर्धेन्न्दू सिधांत को देखेंगे तो हम ये पहेली बुझा पाएंगे.
चित्र ८ को देखिये….नीचे के २ आधे गोले हैं जो अ जैसे दीखते हैं..इसके ऊपर एक और आधा गोला है जो उ कि तरह लगता है. फिर एक पूरा गोला और आधा गोला जो म को दर्शाता है
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महेश्वरी सूत्र के अनुसार ओमकार ,एकाक्षर ब्रह्मा का यही आकर बताया गया है.ये एक विशेष स्वर है जिसे एक तरह से लगाया जाये तो एक विशेष आकर ले लेता है..और यही सिद्धांत हमें वर्तमान देवनागरी के ओम में देखने को मिलता है.यदि हम इस वैदिक ओमकार को दक्षिण वृत्त ९० डिग्री पर घुमाएँ जैसा कि चित्र ९ में दिखाया गया है तो तो ये एकदम देवनागरी लिपि के समान ही दीखता है.
एकतरह से वैदिक ओमकार से ओम तक की यात्रा भारतीय लिपि के विकास कि कहानी है.इसे ऋग्वेद से पद्म पुराण तक भी देखा जा सकता है
साभार – श्री सुरेश सोनी की पुस्तक “India’s Glorious Scientific Tradition ” पर आधारित.
अनुवाद- शिखा वार्ष्णेय
शिखा जी बहुत ही ग्यानवर्द्धक आलेख है। अद्भुत जानकारी के लिये धन्यवाद। आज तो आपकी लेखनी को सलाम करती हूँासल मे आज धर्म के ठेकेदारों ने हमे अपने प्रचीन वेद पुरानो से दूर कर दिया है बस अपनी अपनी दुकाने चलाने के लिये अपनी या चेलों दुआरा लिखी पुस्तकों तक ही लोगों को सीमित कर दिया है। फिर संस्कृत का ग्यान न होने से भी कुछ लोग इन्हें पढ नही पाते बेशक हिन्दी मे उनकी टीका मिलती हैं मगर बहुत संक्षिपत हैं और ऐसा साहित्य आसानी से सब जगह उपलब्ध भी नही होता। हमारे ग्रंथों से ग्यान ले कर विदेशी कितना आगे बढ गये। जो आज विग्यान देख रहा है उसे हमारे रिशी मुनियों ने बहुत पहले देख रखा था मगर देश का दुर्भाग्य रहा कि समय समय पर ये गुलाम हुया और हमलावरों ने बहुत कुछ तबाह कर दिया कुछ चुरा लिया। खैर मै भी बात कहाँ से कहां ले गयी। बहुत अच्छी लगी आपकी पोस्ट। शुभकामनायें
बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख …भारतीय लिपि के विकास की यात्रा की कहानी पहली बार इतने विस्तार से पढ़ी…और पूर्णतः तथ्यों पर आधारित….वैदिक ओमकार से देवनागरी ओम तक की यात्रा की जानकारी भी नयी थी.
निश्चय ही एक संग्रहणीय पोस्ट
बस पढता ही गया.और चकित होता क्या.अत्यंत ज्ञानवर्धक .बहुत ही श्रम-साध्य लेखन के लिए ढेरों साधुवाद!
एक ज्ञानवर्धक और खोजपरक सार्थक लेख के लिए आभार शिखा जी.. सच्चाई आपने इस तरह सामने रखकर एक बार फिर भारतियों का मस्तक ऊंचा किया.. इसी बात पर वो गाना याद आ रहा है–
''सुनो गौर से दुनिया वालों..
बुरी नज़र ना हम पर डालो..
चाहे जितना जोर लगा लो..
सबसे आगे होंगे हिन्दुस्तानी..''
जय हिंद..
बहुत अच्छी प्रस्तुति! राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
वाह…बहुत ही ज्ञानवर्द्धक लेख….काफी श्रम किया इही इस लेख पर…ओमकार से ओम तक की यात्रा बखूबी कराई है…इसके लिए साधुवाद….
बहुत अच्छा आर्टिकल है आपका
amitraghat.blogspot.com
शिखा जी, बहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी दी है.
लेखक के साथ साथ आप भी बधाई की पात्र है.
आप ने अपने इस लेख मै बहुत ही ज्ञानवर्धक बाते बताई, बहुत मेहनत की, हमे इन अग्रेजॊ ने ही पहले वेबकुफ़ बनाया, ओर हमारे बहुत से गरंथ मिटा दिये, फ़िर हमारे अपने काले अग्रेजो ने ही वो काम करना शुरु कर दिया जो यह गोरे ना कर सके, आज का आप का लेख संभाल कर रखने के कबिल है.
धन्यवाद
Hi..
Wah.. Kahne main 3 akshar ka ek shabd..par samete hai apne antar main na jaane kitne visheshnon ki lambi ferhist..jo es aalekh ko padh kar aaj dil main uth rahe hain..
Kya vishay hai, kya vishay-vastu, aapka shodh, pryaas aur prastuti.. Sab kuchh udaharneey, sangrahneey, sarahneey, atulneey, aur anya bloggeron dwara anukarneeya..
Es aalekh ko padh kar lagta hai ki aapne ese taiyaar karne main kitni taiyari ki hogi.. Aapke saare prayason ke liye aapko dil se dhanyawad avam shubhkamnayen..
Agli post main SHUNYA.. Par bhi likhen.. Kahte hain shunya ka avishkar bhi Bharat main hi hua..
Behtareen aalekh..badhayi..
DEEPAK..
बहुत अच्छा आलेख…अनुवाद सटीक है. ज्ञानवर्धन का आभार.
इस महत्वपूर्ण जानकारी के लिए आभार ! सैन्धव लिपि अभी पढी ही नही जा सकी जो भारत ही नहीं विश्व की प्राचीनतम लिपि है -फिर ये सब तो काफी बाद की हैं !
बेहतर जानकारी ।
आभार ..!
बहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी मिली. आपने यह बहुत ही श्रम साध्य कार्य किया है जिसकी बदौलत यह जानकारी मिली. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
wah ji, aap ek khoj karta bhi hain,
precious information,
"Aum"
sahre karte rahiye, badhai
kyaa baat hai…tumne bahut achchhe jaankeree dee hai….aise hee lekh kabhi kabhi lagate raho…
बहुत ग्यान वर्धक … आँखें खोलने वाला लेख है … राजनीतिग और धर्म लोलुप लोगों ने स्वार्थ के चलते हम को बाँट दिया है … अंगेज़ों ने शुरू से इसका फाय्दा उठाया और आज भी उठा रहे हैं … वो मान्यताएँ जो अँग्रेज़ों ने अपने स्वार्थ के कारण ख़त्म करी … आज नेता लोग अपने वोट बेंक के चलते ख़त्म कर रहे हैं … मैने एक बार टी वी में सुना था की रामायण को १८वीं सदी तक ऐतिहासिक ग्रंथ माना जाता था पर अँग्रेज़ों ने उसे ऐतिहासिक से एपिक ग्रंथ बना दिया और आज स्वतंत्र भारत में कोई इस बात को बदलना या चर्चा में लाना नई चाहता …… आज भारत में सब कुछ राजनीति के चलते होने लग गया है और स्वार्थ इतना बढ़ गया है की हम अपनी सांस्कृति, अपने इतिहास से आँखें मून्दे खड़े हैं …
शिखा जी,
इस लेख को पढ़ने के बाद बस गाना गा रहा हूं…हूम…ओमकारा…
ब्लॉग को नीलमुक्त कराने के लिए बधाई, दूध सी सफेदी निरमा से आई…
वाशिंग पाउडर…निरमा…
जय हिंद…
waah shikha, is aalekh ke dwara tum bahut kuch sikha gai
सार्थक पोस्ट!
शुभयात्रा।
शिखा जी, धन्य हैं आप , सचमुच इतनी दूर बैठकर के भी अपनी संस्कृत से प्यार। आनंद आ गया , पाली लिपि का उपयोग सम्राट अशोक के ज़माने मैं किया जाता था। और उसके शब्दों को लिखते समय कुछ शब्द ऐसे लिखे जाते थे जैसे आप अंग्रेजी के शब्द लिख रहे हैं।
अच्छी जानकारी से हमें अवगत कराया है. आभार
विकास पाण्डेय
http://www.विचारो का दर्पण.blogspot.com
shikha ji,
thathyapurn aur taarkik saakshyon ke dwara adbhut khoj aur lekhan, bahut badhai, shubhkaamnayen.
waah yahan aana to saarthak hua ,bahut hi adbhut jaankaaria mili ,mahila divas ki badhai .
मैं काफी देर बाद आपकी पोस्ट पर आयी, इसलिए इतनी टिप्पणियां मिल चुकी हैं किश् शेष कुछ रहा ही नहीं। बहुत ही ज्ञानवर्द्धक जानकारी आपने दी है आप बधाई की पात्र है। बस इतना बता दीजिए कि ये सुरेश सोनी कौन हैं?
श्रीमती अजीत गुप्ता जी ! श्री सुरेश सोनी जी "india's glorious scientific tradition " नामक इस पुस्तक के लेखक हैं जिसके लेखों पर आधारित मेरी ये पोस्ट है..उनकी पुस्तक पर लिखित उनके परिचय के अनुसार इनका जन्म गुजरात में १९५० मैं हुआ है. और ये लेखक होने के साथ साथ सोशल एक्टिविस्ट भी हैं…इनकी ये पुस्तक मुझे यहाँ लायेब्ररी से मिली है…इससे ज्यादा इनके बारे में और कोई जानकरी मुझे दुर्भाग्यवश नहीं है
गर्व करने लायक पोस्ट..
isadbhut avamgyanvardhk jaankari ke liye antar mannse dhanyavad kyoki iske bare me mujhe itani vistrit jankari nahi thi jitani aapke dwara blog par likhe gaye ko padh kar mili, yakin maniye bahut hi gyanvardhak jankari ke liye dhanyvad.
poonam
bhart ke prti vbhart ki snskriti ke prti vbhasha ke prti videshiyon ka ek bhut bda shdyntr yojna bddh dhng se chn lra hai bhart ke vangmy se anjan log is me khoob moorkh bnte haib aur svym ko gali deni shooru kr dete hain
aap jaise jimedar log jo apna dayitv nibha rhe hain sadhuvad ke ptr hain
aap ko bhut 2 sadhuvad
dr.ved vyathit
बहुत बढिया जानकारी दी आपने शिखा जी. मेरी रुचि का विषय है ये.धन्यवाद.
शिखा जी-ज्ञानवर्धक पोस्ट है।
॥ओ3म॥ शब्द तीन"अ+उ+म अक्षरों से बना है।
जिन्हे पुर्णाक्षर कहा गया है।
तथा त्रिवर्गीय सृष्टि में
इन्हे उत्पत्ति+स्थिति+विनाश(संहार)
"ब्रह्मा+विष्णु+महेश"से जोड़ा गया है।
आभार
बहुत मेहनत से लिखा ज्ञानवर्धक संग्रहणीय आलेख ..
सेव कर लिया है ….फुर्सत में कई बार पढने के लिए …!!
यह मेरे मन की पोस्ट है, लिपियों और अभिलेखों पर मेरी दिलचस्पी भी है और पूर्ववर्ती अध्ययन भी लेकिन क्या बताएं व्यस्तता इतनी है की इसकी विशद व्याख्या अभी नही कर पा रहा हूँ लेकिन बताते चलें की इस विषय पर सर अलेक्सेंडर कनिंघम-जेम्स प्रिंसप-मैक्स मुलेर के अलावा भारतीय विद्वानों में राजबली पाण्डेय,बरुआ ,ओझा और बलदेव शरण आदि की बहुत स्पष्ट व्याख्या है तथा इसके समर्थन में आर्केयिक ब्राह्मी और अशोक के पूर्ववर्ती अभिलेख भी है.
और अगर मेरी नज़र से देखा जाय तो पहले चित्र के आधार पर जो ॐकार है, वह पालथी मार कर बैठी हुई मानव आकृति है जो शिव के सांकेतिक रेखाचित्र से मिलती-जुलती है, जिनके मस्तक पर अर्द्धचन्द्र सुशोभित हो रहा है।
यही लेटे हुए आकार में आज के ॐकार का स्वरूप बनता है।
आभार! उत्तम जानकारीपरक लेख हेतु,
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