मानवीय प्रकृति पर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है, लोग बहुत कुछ कहना चाहते हैं…कहते भी हैं..परन्तु मुझे लगता है कि ,इस पर जितना भी लिखा या कहा जाये कभी पूरा नहीं हो सकता . तो चलिए थोडा कुछ मैं भी कह देती हूँ अपनी तरफ से.
ये एक मानवीय प्रकृति है कि हमें जिस काम को करने के लिए कहा जाये हमें उस काम को छोड़ बाकी सभी काम अच्छे लगते हैं.जैसे मिठाई और वसा के लिए हमारी पसंद एक तंत्र विकसित मनोवैज्ञानिक है..आप माने या न माने मानवीय स्वाभाव स्वभाविक रूप से कभी भी . politically correct.नहीं होता. we never like to do, what we have to do .
मुझे याद है जब हम छोटे थे तो परीक्षाओं के समय पर टी वी देखने की इजाज़त नहीं होती थी ..और तब बड़ा खीज कर हम कहा करते थे कितना अच्छा होता यदि एग्जाम में टी वी के कार्यक्रमों पर ही सवाल आते और इन्ही पर लिखने को कहा जाता…तदुपरांत वो दिन भी आया जब पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान एक पर्चे के अंतर्गत हमें एक टी वी प्रोग्राम की ही समीक्षा और विवेचना करनी थी …तो तब हमें वो काम भी काटने को दौड़ता था….कि ” क्या यार अब बैठ कर ये टी वी प्रोग्राम देखो.” ये भी कोई इम्तिहान में आने वाली चीज़ है?.
इसी तरह जो चीज़ हमें सहज ही प्राप्त हो जाये हम उसका मूल्य नहीं समझते ..जो नहीं होता वही आकर्षित करता है हमेशा ..जैसे जिसके सर पर बहुत बाल हों वो फेशन के लिए गंजा होकर घूमता है ..और जिसके सर पर न हों वो बेचारा १-१ बाल के लिए तरसता है :)..जिसके बाल घुंघराले होते हैं वो सीधे के लिए और सीधे वालों वाला घुंघराले वालों के लिए मरता रहता है .
इसी बात पर एक किस्सा याद आया..मैं जब स्कूल में पढ़ा करती थी .तब मुझे गाँव देखने का बहुत शौक था ..हिंदी फिल्मो में गाँव की छटा बैलगाड़ी ,तांगा, हाथ से फोड़ कर प्याज से रोटी खाना, तालाब , कुएं . ये सब मुझे किसी परीस्तान का आभास सा कराते थे.उस पर छुट्टियों में अपनी सहेलियों से सुनना कि “हम अपने गाँव जा रहे हैं” ..बड़ी कुढ़न पैदा करता था …घर आकर तन जाया करती थी मैं..”मम्मी हमारा गाँव कहाँ है? हम क्यों नहीं कभी वहां जाते ? हमारे दादा ,नाना क्यों शहरों में रहते हैं ? बाकी सब के तो गाँव में रहते हैं.”…और मम्मी डांट कर चुप करा दिया करती..”.जब देखो फालतू बात करेगी जा अपनी पढाई कर” ..एक ये भी बहुत गन्दी प्रकृति होती है मम्मियों में, कभी कोई बात सही तरीके से नहीं बतायेंगी जिसका जबाब नहीं पता बस फालतू कहकर डांट दिया.खैर एक बार छुट्टियों में मेरी एक सहेली मेरा सड़ा हुआ मुंह देख पसीज गई और उसने मुझे कहा कि तू हमारे साथ चल गाँव …बस फिर क्या था उछलते – कूदते पहुँच गए घर और कर दिया ऐलान कि इस बार हम अपनी सहेली के गाँव जायेंगे छुट्टियों में..मम्मी ने भी ये कहकर टाल दिया पापा से पूछ लेना..शाम को पापा आये तो उनके सामने अपनी बात रखी ….पर वो बेचारे ऐसे – कैसे , किसी और के साथ वो भी गाँव में जाने की इजाजत देते. हमें न सही उन्हें तो मालूम थी गाँव की असलियत..पर यहाँ मैं उन्हें मनाने की पूरी कोशिश में जुटी थी तो आखिर उन्होंने कहा ..”अच्छा ठीक है तेरी शादी गाँव में ही कर देंगे ,वहीँ रहना जिन्दगी भर.”..अब बताओ भला .ये पापा ,मम्मी भी न..ये भी कहाँ अपनी प्रकृति से बाज़ आते हैं . अरे नहीं भेजना तो न भेजें पर ये भी कोई बात हुई ?…..क्या जो भी चीज़ अच्छी लगे सबसे शादी कर ली जाती है..?.ठीक है मत भेजो बड़े होकर खुद चले जायेंगे…पर मेरी ये इच्छा पूरी हुई कुछ साल पहले जब पापा ने अपना दाद्लाई गाँव हमें दिखा दिया …और तब समझ में आया कि फिल्मो में दिखाए गाँव में और असलियत में क्या फर्क होता है, और तब हमें वहां जाने की इजाजत क्यों नहीं मिली थी..वहां की मूल भूत सुविधाओं के आभाव में १ दिन भी हमारा रहना मुहाल हो जाता
.पर हाँ अगर कभी वो गाँव देखने को नहीं मिलता तो उसे देखने कि लालसा शायद हमेशा बनी रहती और फ़िल्मी गाँव का भ्रम भी.
तो हमें जिस चीज़ की अभिलाषा होती है वह न मिले तो उसके लिए दिल अटका रहता है ये भी एक मानवीय प्रकृति है :).
जिस तरह एक बच्चे को जिस काम के लिए मना किया जाये वह वही करता है …ये स्वाभाव हम कभी कभी वयस्कों में भी देख पाते हैं ..जिसे हम साधारणत: इगो का नाम देते हैं.
ये मानवीय प्रकृति कभी कभी हालात,परिवेश और वक़्त के साथ अलग अलग रूप भी ले लेती है.इसी श्रृंखला में एक उदाहरण और याद आ रहा है …यदि एक उच्स्तारीय ,आकर्षक व्यक्ति किसी साधारण इंसान से सहजता से बात करता है तो उसे लगता है कि जरुर कुछ गड़बड़ है वर्ना इतना बड़ा आदमी मुझसे क्यों इतनी आत्मीयता से बात करेगा…और यदि वो बात नहीं करता है तो ये समझा जाता है घमंडी है …गुरुर है क्यों बात करेगा भला.:)
कहने का मतलब यह कि कुछ मानवीय स्वाभाव प्राकृतिक होते हैं..और वो जरुरी नहीं कि वो नैतिक रूप से भी सही हो
मानव स्वभाव के ताने बाने और गांव देखने की ख्वाहिश से लबरेज़ ये लेख दिलचस्प रहा…
शिखा जी,वैसे आज भी-
चोट एक दिल पर लगे और दर्द सारे गांव में
भाई-चारे का ये आलम है हमारे गांव में.
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
कुछ मानवीय स्वाभाव प्राकृतिक होते हैं..और वो जरुरी नहीं कि राजनैतिक रूप से सही यानि politically correct.हो
bilkul sahi kaha aapne.aur sabse satik to aapkaa vishleshan raha!!
मानवीय स्वभाव की जटिलता तो ईश्वर भी समझने में लगा है इसलिए धरती पर आना ही बंद कर दिया.
बढ़िया आलेख.
कुछ मानवीय स्वाभाव प्राकृतिक होते हैं..और वो जरुरी नहीं कि वो नैतिक रूप से भी सही हो
पर वो नैतिकता कैसी जो मानवीय स्वभाव के अनुकूल न हो!!!
सुन्दर आलेख
अच्छा आलेख। सही ऑब्जर्ब किया है आपने…।
मानव मन की गुत्थियाँ कोई सुलझा पाया है,अब तक….हर वो चीज़ जो मना कर दी जाए, करने को उद्धत हो उठता है,मन….
बहुत ही अच्छा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है….
और भारत आओ तो चलो मैं ले चलती हूँ,अपने गाँव….अरसा हो गए वहाँ गए,तुम्हारे साथ घनी अमराइयों में और नहर के किनारे हम भी टहल आयेंगे…..पर यकीन मानो सुख सुविधा की सारी चीज़ें मौजूद है, अब गाँव में…कोई परेशानी नहीं होगी…वादा 🙂
मानवीय प्रवृति पर सटीक लेख….मनोवैज्ञानिक रूप से अच्छा विश्लेषण किया है…सच में यही होता है कि जिस काम को करने से मना किया जाये उसी काम को करने में आनंद मिलता है….
गांव आज तक मैंने भी नहीं देखा…पर तुम्हारी उत्कंठा देख मेरा भी मन हो रहा है कि कोई गांव देखूं..:):)
@संगीता जी ,
आप भी आ जाइये हमारे साथ, मेरे गाँव …:)
अच्छा लगना और अच्छा होना अलग-अलग बातें हैं…
अक्सर सब कुछ वैसा ही नही होता जैसा समझ सुन लिया जाता है. पर अपवाद भी होते हैं.
रामराम.
मानव मनोविज्ञान का अच्छा …बहुत अच्छा विश्लेषण किया आपने ..और सारे सच को एक साथ बखूबी रख के किया यही बडी बात है ..हमेशा की तरह उम्दा लेख
अजय कुमार झा
ham aise hi hai…….
अरे अरे गांव इतने भी गंदे नही,मै यहां ३० साल से गांव मै ही रहता हुं, मन कभी भी नही करता शहर मै जाने को, ओर भी दोस्तो से मिलने शहर जाते है तो …. सर दुखने लगता है शोर से
आप की कल्म मै कोई जादू है , जो आप का लेख पढने लगता है तो… मन से पढता है, बहुत सुंदर
Hi..
Aha.. Kya khubsurati se manav man ka vishleshan kiya hai.. Sahi hai jo mana kiya jaaye theek wahi karne ka man hota hai..
Jahan likha ho, ' ye aam rasta nahi hai..' theek wohin se log gujarte hain.. Ya ye kahiye jahan se raasta nikalna ho wahan ye board laga den to raasta swatah ban jayega..
Jo gaaon main hota hai use shahar ki lalak..jo shahar main ho use gaaon bhata hai.. Jo swadesh ho use videsh sukhad aur jo videsh main ho wo vapasi ke ke liye pareshan.. Ye manav swabhav hai.. Aapne apne aalekh main prayukt sansmaranon se aur jeevant kar diya hai..
Hamare sanskaar padosi ki thali ki murgi nahi dekhne ki salah deta hai par swabhavtah hum padosi ki thali ka baigan bhi murgi ki tarah hi dekhte hain..
Ek kissa yaad aata hai..es vishay par..
Delhi mai computer course kar rahe the..to humari shikshika jo command ye kah ke theory main batati thin ki ye main bata to rahi hun par plz plz ese practical main comp lab main mat aajmana.. Varna dusre batches ka data chala jayega.. Aur hum practical main sabse pahle wo command hi aajmaate the..
Fir samay aaya Internet ka.. To sabhi ne mana kiya chatting na karna.. Par wo jarur ki aur aaj kuchh sukh dukh ke saathi paaye..
Hamesha kaha gaya kavita ke chakkar main samay kharab mat karo..
Par kavita kabhi nahi chooti..
Aaj bhi kyon na tippani ka ant kavitamay kiya jaaye..
Mana humko gar koi karta hai kuchh to..
Wohi kaam karke hi pahle hai dekha..
Hai jis kaan se tha suna wo nikala..
Hai sab kuchh hamesha esi se naya kuchh hai seekha..
Sunder aalekh..
DEEPAK SHUKLA..
बिल्कुल सच कहा आपने, जीवन में ज़रूरी कुछ भी नही आदतों में बदलाव भले जल्द ना हो पर असंभव तो नही….मन के बदलने में देर नही लगती…बढ़िया चर्चा..धन्यवाद
बड़ी रोचक पोस्ट है. सच में, ऐसा तो अक्सर होता है कि हमें जिस काम के लिये मना किया जाता है, वही काम करने का जी करता है. मानव मन का यह मनोभाव मुझे भी अभी तक समझ में नहीं आया है.
अरे रश्मि ! आपके स्नेहिल निमंत्रण से एक आइडिया आया…क्यों न अगली ब्लॉग मीटिंग आपके गाँव में ही रखी जाये 🙂
मानव स्वभाव को समझाती स्नेहिल पोस्ट !
Hi..
Vichar to nek hai.. Par dekhiyega.. BAINGAN se satkaar hoga.. Subah se sham teeno pahar.. Haha..** (PATHAK Smt Rashmi Ravija ke blog par 'BAIGAN MAHIMA' ka aalekh padh sakte hain..)
DEEPAK SHUKLA..
ज़्द्रास्तुवयते,
सही पकड़ा आपने मानवीय कमजोरी को । अगर मानव मन के बहकावे आ जाये तो उसका पतन तो पक्का है…."
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com
शिखा जी, बहुत ही अच्छा विश्लेषण। सच है वास्तविक गाँव और फिल्मी गाँव में बहुत अन्तर है। मेरा विवाह भी एक बहुत ही छोटे गाँव में हुआ। वहाँ के मूलभूत अभाव वाकयी परेशान करते हैं। लेकिन वहाँ की सभ्यता ही कुछ अलग है, उसका आनन्द लो तो अच्छा भी लगता है और कभी अजीब सा भी।
शिखा जी ,सुंदर रचना ,लेकिन गांवों में जो आप ने देखा शायद वो पूरा सच नहीं और इस्में गांवों का कोई दोष नहीं ,मेरे विचार में तो आज भी
शहर के पुख्ता मकां हैं और घुटन
गांओं का कच्चा मकां ही और है
जो अपनापन है वहां उस पर शहर के सारे ऐश ओ आराम निसार किए जा सकते हैं
Shikha ji, ek gazal hai- 'Dunia jise kahte hain jadoo ka khilauna hai… mil jaye to mitti hai kho jaye to sona hai…'
bas sab kuchh vaisa hi hai.. aapne bade achchhe se vyakhya ki ek sach ki..
बिल्कुल सही आपने , मुझे भी वही करने का मन करता है जो सभी मना किया करते हैं ।बेहतरीन प्रस्तुति रही ।
BAHUT KHUBSURAT….
http://www.amarjeetkaunke.blogspot.com
बहुत बढ़िया लेख …….ये मानव प्रवृति होती है ……जो हमारे पास होता है ……उसका सुख भोगने का मन नहीं करता …..और जो नहीं होता उसके लिए मन तरसता रहता है .
और तब समझ में आया कि फिल्मो में दिखाए गाँव में और असलियत में क्या फर्क होता है, और तब हमें वहां जाने की इजाजत क्यों नहीं मिली थी..वहां की मूल भूत सुविधाओं के आभाव में १ दिन भी हमारा रहना मुहाल हो जाता…..haan ye sach hai….lekin paristhiti aane par insaan har jagah rah sakta hai, yah bhi sach hai…suvidha ho ya naa ho….kyun?
shikha tum to sachin ho gai ho…..kaafi behtareen aalekh, sachin ki ballebaji ki tarah
bilkul sahi vishleshan kiya hai ye manav man hai hi aisa jo na krne ko kaho wohikarna chahta hai ……..bahut hi badhiya likha hai.
aapka lekh padaa .bahut hi umdaa lekh hai.kal hi ek picture dekhi .atithi tum kab jaaoge.aapke lekh or usme bahut si samaantaa hai.shar or gaanv ki jivan shaili bhinn hai. dono ko hi adjust karnaa padtaa hai. pahle to ajay devgaan or konkanaa sen dono hi bete ko atithi ka matalab samjha nahi paate hai.jab paresh rawal atithi bankar unake ghar aate hai to paristhitiyaa badal jaati hai. aapki baaton (lekh nahi kahungi) ko padkar esaa lagtaa hai ki hum saath beth kar baate kar rahe hai.
कुछ मानवीय गुण जो अनायास ही हमारे भीतर आ जाते हैं , सही और गलत की परिभाषा से दूर हैं. बहरहाल मानव मनोविज्ञान का बेहतर प्रस्तुतीकरण किया हैआपने.
अगर कोई बच्चा मिट्टी खाता है तो उसे रोकिए मत…प्लेट में मिट्टी डालकर चम्मच के साथ और कायदे से डाइनिंग टेबल पर बैठा कर दीजिए, फिर देखिए उसका रिएक्शन…
जय हिंद…
अति सुन्दर .
उन दिनों वी-टिवी अपने प्रोमोशन्ल क्लीप्स में अकसर दिखाती थी "वी आर लाइक दिस ओनली"…अब इस पोस्ट की इन जटिल गुत्थियों{ 🙂 } को पढ़कर मुझे ये वी-टिवी का वो कैप्शन क्यों याद आया…भगवान जाने।
ब्लौग पे तनिक अनियमित था। जन्म-दिन की विशेष शुभकामनाओं का दिल से शुक्रिया मैम।
रश्मि जी ! सचिन हा हा हा ..एक आधा पद्मश्री इधर भी हो जाये फिर .ही ही ही .शुक्रिया दी!
मानव मन की सटीक व्याख्या …
@
यदि एक उच्स्तारीय ,आकर्षक व्यक्ति किसी साधारण इंसान से सहजता से बात करता है तो उसे लगता है कि जरुर कुछ गड़बड़ है वर्ना इतना बड़ा आदमी मुझसे क्यों इतनी आत्मीयता से बात करेगा…और यदि वो बात नहीं करता है तो ये समझा जाता है घमंडी है …गुरुर है क्यों बात करेगा भला.:)
नहीं…हमेशा यही नहीं होता …दरअसल सहजता से बात करने वाले सामान्य साधारण इंसान के बारे में भी यही सोचा जाता है ….यहाँ दोषारोपण सहजता और आत्मीयता पर होता है ….
@ गाँव देखने के लिए मेरे बच्चे भी बहुत उतावले रहते हैं …मगर वे कहाँ जानते हैं कि गाँव ही अब गाँव कहाँ रह गए हैं ….
@ रश्मि जी से मैडल पाने वालों की लाईन में मेरा नंबर तुमसे पहले है … क्यु तोडना बुरी बात है …:):)
एक बात ओर ऐसा भी है कुछ बच्चो में उनके स्वभाव के लक्षण बचपन से दिखाई देने लगते है ..आम भाषा में जिसे हम सेंसिटिव या शरारती भी कहते है ….यदि परिस्थितिया उन्हें न मोड़े तो फिर वे वैसे ही ग्रूम करते है …..लेकिन एक ओर बात है .जो मैंने रजनीश की एक किताब में पढ़ी थी .बड़ी दिलचस्प लगी थी .वो ये थी के अक्सर व्रत रखने वाला ओर कई सारे नियमो में बंधा रहने वाला व्यक्ति सबसे ज्यदा चिडचिडा हो जाता है के फलां ऐसा क्यों कर रहा है ..वो सबको सुधारना चाहता है …..इसके फेर में वो अपना उद्देश्य नष्ट कर देता है ……यानी मै सन्यासी हूँ .का अहंकार भी घातक है ….
वैसे ये भी सत्य है जब आपके पास कोई वस्तु आ जाती है तो शायद मूल्य हीन हो जाती है
किताबे …..आस पास का वातावरण ….परिवार .दोस्त .टीचर …….हमें चीजो को देखने ओर समझने का एक जरिया देती है ..जो हमें एक बेहतर मनुष्य बनाने में मदद करती है …इसलिए मेरा मानना है के प्राइमरी क्लास के टीचर की तनख्वाह भी किसी बड़ी क्लास के टीचर के समकक्ष होनी चाहिए या उससे कही ज्यादा …
abhi tak to naari ke svabhav ko hi logon ne triya charitr ka naam diya hai jisame ri ko samajhana mushkil kaha gaya hai.ab to bhagavan bhi manviya jatilta ko lagata hai ki suljhane me lage hai
vaise aapaka aalekh kaffi rochak laga.
poonam
Nice article Ma'm!!!
मनोभावों को बहुत ही गहराई से व्यक्त किया है आपने।
सौरभ कुणाल
voi news channel
http://www.syaah.blogspot.com
कुछ मानवीय स्वाभाव प्राकृतिक होते हैं..और वो जरुरी नहीं कि वो नैतिक रूप से भी सही हो..
सही कह रही हैं.
मानव स्वभाव का सुन्दर विश्लेषण है ।
जैसे अपनी स्त्री में किसी को कोई गुण नज़र नहीं आता …..क्यों ….???
"जिसके सर पर बहुत बाल हों वो फेशन के लिए गंजा होकर घूमता है|"
यह कहीं मेरे लिये तो नहीं लिखा है| 🙂
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