नवभारत में प्रकाशित
क्या पुरुष प्रधान समाज में, पुरुषों के साथ काम करने के लिए,उनसे मित्रवत सम्बन्ध बनाने के लिए स्त्री का पुरुष बन जाना आवश्यक है ?.आखिर क्यों यदि एक स्त्री स्त्रियोचित व्यवहार करे तो उसे कमजोर, ढोंगी या नाटकीय करार दे दिया जाता है और यही पुरुषों की तरह व्यवहार करे तो बोल्ड, बिंदास और आधुनिक या फिर चरित्र हीन .यूँ मैं कोई नारी वादी होने का दावा नहीं करती,ना ही नारी वादियों के खिलाफ कुछ कहने की नीयत है. परन्तु विगत दिनों कुछ इस तरह का पढने का इत्तफाक हुआ कि दिमाग का घनचक्कर बन गया.कई सवाल मष्तिष्क में घूं घूं – घां घां करने करने लगे.पहले सोचा जाने दो क्या करना है, परन्तु दिमागी खटमल कहाँ शांत होने वाले थे तो सोचा चलो उन्हें निकालने का मौका दे ही दूं.कुछ समय पहले एक मित्र की ऍफ़ बी वॉल पर “मंटो” का एक कथित वक्तव्य देखा था .“एक महीना पहले जब आल इंडिया रेडिओ डेल्ही में मुलाजिम था ,अदबे लतीफ़ में इस्मत का लिहाफ शाया (प्रकशित ) हुआ था .उसे पढ़कर मुझे याद है मैंने कृशन चंदर से कहा था अफसाना बहुत अच्छा है मगर लेकिन आखिरी जुमला गैर सनाआना (कलात्मता रहित )है .अहमद नदीम कासमी की जगह अगर मै एडिटर होता तो इसे यक़ीनन हज्फ़(अलग ) कर देता .चुनांचे जबअफसानों पर बात शुरू हुई तो मैंने इस्मत से कहा”आपका अफसाना लिहाफ मुझे पसंद आया ,बयान में अलफ़ाज़ की बकद्रे-किफ़ायत इस्तेमाल करना आपकी नुमायाँ खुसियत (खास खूबी )रही है .लेकिन मुझे ताज्जुब है कि इस अफ़साने के आखिर में आपना बेकार सा जुमला लिख दियाइस्मत ने कहा “क्या अजीब सा है इस जुमले में “
मै जवाब में कुछ कहने ही वाला था के मुझे इस्मत के चेहरे पर वही सिमटा हुआ हिजाब (संकोच )नजर आया ,जो आम घरेलू लडकियों के चेहरे पर नागुफ्ती (तथाकथित अश्लील ) शै का नाम सुनकर नमूदार हुआ करता है .मुझे सख्त नाउम्मीदी हुई .इसलिए के मै लिहाफ के तमाम जुजईयात (पहलुओ )के मुताल्लिक उनसे बात करना चाहता था .जब इस्मत चली गयी तो मैंने दिल में कहा “ये तो कम्बखत बिलकुल औरत निकली “
(“मंटो” इस्मत को याद करते हुए )”
यूँ मंटो के बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं उनकी बयानगी की कायल मैं भी हूँ ..परन्तु यहाँ मेरा ध्यान खींचा एक सोच ने , जो एक व्यक्ति की नहीं शायद पूरे समाज की है. आखिर क्या खराबी है औरत होने में? जो मंटो को इतनी नाउम्मीदी हुई.? क्या जरुरी है कि जिस तरह किसी विषय पर कोई खास शब्द पुरुष इस्तेमाल करते हैं ..(मैं यहाँ उन शब्दों के कतई खिलाफ नहीं हूँ) ….वही शब्द औरत इस्तेमाल करे तभी वो बोल्ड है,खास है और पुरुष सोच पर, उसकी उम्मीद पर खरी उतरती है. वर्ना वो आम है. क्या स्त्रियोचित स्वभाव में रहकर वह कोई योग्यता नहीं रखती?अपना कोई मक़ाम नहीं बना सकती. क्या वह स्त्री रह कर खास नहीं हो सकती?आखिर यह मापदंड बनाये किसने हैं.? कि बिना पुरुषयोचित व्यवहार किये एक स्त्री बोल्ड नहीं कहला सकती.आखिर ये किस कानून में लिखा है कि सेक्स की हिमायती और खुले आम अश्लील कहे जाने वाले शब्दों का प्रयोग किये बिना कोई महिला बोल्ड नहीं हो सकती?क्यों हम एक स्त्री को पुरुष बना देना चाहते हैं ? औरत यदि वैसा नहीं बनती तो उसे कमजोर और अपने एहसास छुपाने वाली ढोंगी करार दिया जाने लगता है. हमारे साहित्य में भी ऐसे ही पुरुषवादी सोच के उदाहरण मिलते हैं जिनपर किसी स्त्री की सोच या विचार को जाने बिना अपनी ही सोच थोप दी जाती है और ऐलान कर दिया जाता है कि यही सत्य है , ऐसा ही होता है.कुछ दिन पहले एक मशहूर हिंदी लेखक का एक उपन्यास पढ़ रही थी – जिसकी भूमिका में ही कहा गया, कि ये कहानी उजागर करती है एक उच्च वर्गीय आधुनिक महिलाओं की मनोदशा को.और इस कहानी की नायिका एक ऐसी लड़की थी जिसे मेरे ख़याल से सेक्स के सिवा कुछ नहीं सूझता था. जो खुद अल्ल्हड़ होते हुए अपने से दुगनी तिगुनी उम्र के अपने प्रोफ़ेसर के साथ शादी करती है. और फिर उसके बाद उसके संपर्क में जो भी पुरुष आता है उसके साथ हो लेती है.भले फिर वह घर में आया मेकेनिक हो या कार में बगल की सीट पर बैठा उससे तीन गुना छोटा उसका सौतेला बेटा.और इसे कहा जाता है आधुनिक स्त्री जो अपनी सेक्स की इच्छा को दबाती नहीं खुले आम पूरा करती है. अरे हद्द है ..कहीं कोई जानवर या मनुष्य में फर्क है या नहीं. और जो स्त्री इस तरह के आकर्षण को मानने से इंकार कर दे उसे अपनी इच्छाओं को दबाने का, एक कुंठित सोच का करार दे दिया जाता है . उसे आधुनिक कहलाने का कोई अधिकार नहीं.पुरुष बड़े गर्व से यह तर्क देते देखे जाते हैं कि जिसे तुम स्त्रियाँ अश्लीलता और उच्छंखल व्यवहार कहती हो. वह खूबसूरती है, जरुरत है जिन्दगी की. और इसे हम पुरुष जितनी सहजता से स्वीकार करते हैं तुम लोग क्यों नहीं करतीं ? क्यों छुपाती हो अपनी इच्छाएं मर्यादा की आड़ में? क्यों डरती हो अपनी भावनाओं और इच्छाओं की खुले आम अभिव्यक्ति से?. मुझे समझ में नहीं आता मैं इन सवालों का क्या जबाब दूं .बल्कि इसके एवज में कुछ सवाल ही उपजते हैं मेरे दिल में.क्यों वो यह समझते हैं कि जो उनकी निगाह में ठीक है वही ठीक है.वह कौन होते हैं स्त्री के स्वभाव और व्यवहार का पैमाना बनाने वाले? और यदि उनकी बात मान भी ली जाये और स्त्रियाँ भी वैसा ही व्यवहार शुरू कर दें तो क्या होगा इस समाज का रूप? समाज की जगह फिर क्या जंगल नहीं होगा? और हम सब जानवर कि जहाँ जब जो इच्छा हुई कर डाला, इंद्रियों पर नियंत्रण जैसी कोई चीज़ नहीं,विवेक क्या होता है पता नहीं. हम तो खुले विचारों को मानते हैं आधुनिक हैं, बिंदास हैं.
इंसान ही बने रहें तो अच्छा.
औरत होने में तब तक कोई बुराई नहीं है…जब तक सबकुछ सुचारू ढंग से चल रहा होता है…लेकिन जब औरत पर कई समस्याओं का सामना करने का प्रसंग आन पड़ता है..तब उसे पुरुष की मानसिकता अपने अंदर पैदा करनी पड़ती है…तभी वह अपने स्वभाव की स्वाभाविक कोमलता छोड़ कर और रोना धोना छोड कर… हिम्मत से विपदाओं का सामना कर सकती है!…अति महत्वपूर्ण विषय;धन्यवाद शिखाजी!
औरत को एक औरत के रुप मेँ ही
समाज मेँ अपना स्थान बनाकर सम्मान प्राप्त करना चाहिए । आधुनिकता का अर्थ स्वछन्दता नहीँ होता । अच्छे लेख के लिए बधाई ।
शिखा जी,
मुझे तो जितना समझ आया उसके आधार पर कह सकता हूँ कि आपका सवाल सिरे से ही गलत हैं.जो सवाल आपको नारीवादी महिलाओं से करने चाहिए वो तो आप पुरुष से कर रही हैं.जिस बोल्डनेस की बात आप कर रही हैं,पुरूष तो बल्कि खुद ही उसका विरोध करते हैं.और ऐसी महिलाओं को दुश्चरित्र,पुरुष विरोधी और भी न जानें क्या क्या कहते हैं(अपवाद इसमें शामिल नहीं).क्योंकि तथाकथित मर्यादा आदि का ध्यान रखने वाली भारतीय संस्कृति में ढली महिलाएँ ही पुरूषवादी समाज के माफिक आती हैं.इसलिए स्त्रियोचित गुणों का बखान शुरू से ही बढा चढाकर किया गया ताकि पुरूष खुद स्वतंत्र रहे और महिला यदि उसकी किसी गलत बात का विरोध करे तो उसे अमर्यादित आदि ठहराया जा सके.
हाँ नारिवादी महिलाओं में से कुछ अब ये जरूर कह रही हैं कि नैतिकता मर्यादा आदि के नियम जब तक स्त्री और पुरूष के लिए समान रूप से लागू न हो तब तक महिलाओं को भी इनकी परवाह नहीं करनी चाहिए.बहुत हद तक मैं भी इस बात से इत्तेफाक रखता हूँ वर्ना हमारे यहाँ आदर्श भारतीय नारी की छवि ही बना दी गई हैं संस्कारों के नाम पर सब कुछ सहने वाली.
माफी चाहूँगा पर आपका लेख गलत दिशा में जाता लगा.
पोस्ट के शीर्षक में जो सवाल हैं उसका संदर्भ वहाँ बनेगा जब किसी पुरूष के शर्मीले या भावुक होने या नेतिकता जैसी बात कहने पर उसका मजाक उडाया जाता हैं कि क्या औरतों की तरह करता रहता है!
सबका अपना व्यक्तित्व है, वह वही बना रहे..
इस्मत आपा (आपा इसलिए कि लोग उन्हें इसी नाम से पुकारते थे) और मंटो के बारे में एक जुमला बड़ा मशहूर हुआ था, वो ये कि इस्मत अगर मर्द होतीं तो मंटो होतीं और मंटो अगर औरत होते तो इस्मत चुगताई होते..
मंटो की वह बात इस्मत की तौहीन नहीं थी.. एक मायूसी भरा स्टेटमेंट था वो.. उन्हें पूरे अफ़साने में वो आग दिखाई दे रही थी, जो वो अपने अफसानों में भरते थे. फिर वो एक लफ्ज़ का इस्तेमाल, जिसपर उन्होंने उंगली उठाई, वो इस्मत की दोहरी ज़हनियत को उजागर करता है.. खुद उनका शर्माकर नज़रें झुकालेना इस बात की गवाही दे रहा था.. लिहाजा उन्होंने कहा कि यह कमबख्त भी औरत निकली.. साफ़ ज़ाहिर होता है कि मंटो को भी इसी बात से निराशा हुई कि जिसको उन्होंने मर्द औरत के चोले से ऊपर समझा था वो भी वही निकली..
एक उपन्यास आया था बरसों पहले "चित्तकोबरा".. उसके अंश न तो कहीं से इसमतवादी थे – न मंटोवादी.. क्या थे, किस श्रेणी में आते हैं, पता नहीं!!
बाक़ी बातें सही हैं.. संतुलित भी कही जा सकती है..!!!
मैं आपसे पूर्णतः सहमत हूँ स्त्रियों के साथ ये बर्ताव तो आम बात है पुरुस अपनी सोच के हिसाब से अपना नजरिया बनाता है इस पर तो एक लंबी बहस हो सकती है लेख बहुत प्रभाबी है अंदर तक छू कर गया
डॉ अरविन्द मिश्रा की ईमेल से प्राप्त टिप्पणी.
शिखा जी ,
ये कमेन्ट पता नहीं क्यों आपकी नई पोस्ट पर पोस्ट नहें हो पा रही है -इसलिए मेल से भेज रहा हूँ ..
आपने कई देशों के रीति रिवाजों को देखा है -मुझे लगता है ये मसले स्थान /परिवेश /संस्कृति सापेक्ष होते हैं !
adhunik vicharon se hona chahiye na ki kapdon se .adhunikta ka arth sanskaron ko garima ko chhodna hai .
varan rudhvadi vicharon ayr andhvishvashon ka tyag hai .
aapka lekh sarthak hai
badhai
rachana
बहुत अच्छी वैचारिक पोस्ट |
राजन जी ! .हो सकता है मैं अपनी बात ठीक से नहीं रख पाई.परन्तु मेरा सवाल पुरुषों से इसलिए है क्योंकि सामान्यत: वही " औरत " शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल करते देखे जाते हैं. जैसा कि आपने खुद अपने दूसरे कमेन्ट में कहा.जबकि पुरुष्योचित व्यवहार करने वाली स्त्रियों को बोल्ड और आधुनिक का तमगा मिल जाता है .हालाँकि आपने पढ़ा हो तो नारीवादियों से भी क्षमा याचना मैंने की है.यहाँ प्रश्न देखा जाये तो सभी से है.लेख एक सामाजिक सोच पर है जिसमें सभी शामिल हैं.रही शीर्षक की बात तो जिस सन्दर्भ में और जिन उदाहरणों के साथ मैंने लेख लिखा है मुझे शीर्षक ठीक लगा .हो सकता है आपको ठीक ना लगा हो.आपने पढ़ा और अपनी प्रतिक्रिया दी बहुत शुक्रिया..
स्त्रियोचित शालीनता स्त्री की गरिमा …
स्त्री सौन्दर्य का प्रतीक
शर्म का प्रतीक
वचनों का प्रतीक
ममता का प्रतीक …
इतने सारे विशेषणों में जब वह खरी उतरती है
फिर वह टुकड़ों के लिए
छत के लिए तरसाई जाती है ….
असह्य स्थिति के बाद
वह अपना एक वजूद बनाती है
वजूद में भी वक़्त की पाबन्दी
पर …. उसे जीने कौन देता है …
घर में ताने , बाहर लोलुपता ……………………….
उसके लिए सारे पैमाने अलग
ऐसे में बुरा हो न हो
औरत रहने में औरत घबराने लगती है …
प्रगतिशीलता के नाम पर भौड़ा देश प्रदर्शन , जिह्वा पर अश्लील शब्द , ये नारी स्वतंत्रता को कही से भी इंगित नहीं करते नहीं कोई भी नारीवादी इस रूप में नारी को देखना पसंद करेगी .आपके इस आलेख में नारीवाद या नारी स्वतंत्रता का कही से भी विरोध नहीं नजर आया . अगर नारी अपने यथोचित गुणों के साथ प्रगति पथ प[आर अग्रसर होती है तो वो पूजनीय और पथभ्रष्ट होकर प्रगतिशीलता की तरफ बढती है तो,….. आपका आलेख कई विचारो को जन्म दे गया .
सार्थक और बेहद सशक्त लेख …
कमेंट नहीं करुँगी वरना वो भी एक लेख बन जाएगा…इतना कुछ उबल रहा है मन में…
सादर.
दिमाग का घनचक्कर बन गया.कई सवाल मष्तिष्क में घूं घूं – घां घां करने करने लगे.पहले सोचा जाने दो क्या करना है, परन्तु दिमागी खटमल कहाँ शांत होने वाले थे तो सोचा चलो उन्हें निकालने का मौका दे ही दूं…..
ये दिमागी खटमल बहुत परेशान करते हैं.
खटमलों को निकालने का मौका देने से
और बढ़ जाते हैं,शिखा जी.
"औरत" यदि एक बेचारगी की प्रतिमूर्ति को दर्शाता है तो गलत है.
मुझे लगता है कि यह लेख न तो मंटो के वक्तव्य पर है और न ही आधुनिक नारी पर … यह है सीधे सीधे पुरुष की मानसिकता पर ।
वह नारी को कब बिंदास के रूप में देखता है … स्त्रियोचित गुण जिसमें दिखते हैं वो तो पूजनीय है ….. असल में पुरुष एक ही नारी में हर रूप देखना चाहता है …अलग अलग परिस्थिति के अनुसार …
और यह बात हमारे प्रबुद्ध साथी अच्छी तरह जानते हैं …भोजन के वक़्त उसे माँ का रूप दिखना चाहिए … कठिनाइयों में एक साथी जो कंधे से कंधा मिला कर चले … और अपनी ज़रूरत में एक ऐसी नारी जो बिंदास उसकी इच्छा पूरी करे … और जो बिंदास नहीं है वो निरी औरत है ।
शिखा, पूरी पोस्ट पढी, लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई. मुझे लगता है कि विषयान्तर हुआ है पोस्ट में. तुमने शहादत हसन मंटो के जिस वक्तय्व का ज़िक्र किया है, उसका बहुत सही स्वरूप, वो बात जिन अर्थों में कही गयी, इस्मत आपा के लिये, अपने कमेंट में सलिल जी ने प्रस्तुत किया है. ये वाक्य वस्तुत: आपा के पक्ष में ही कही गयी थी.
दूसरे जिस भी उपन्यास का ज़िक्र तुमने किया है, उस के बारे में पढ के तो ’लोलिता’ की याद आ गयी. किसी भी व्यक्ति का इस हद तक काम-लोलुप होना उसे जानवर की श्रेणी में रखने को पर्याप्त है.
मुझे लगता है कि दो विषय यहां आपस में टकरा रहे हैं जिसके चलते बात बहुत स्पष्ट होके सामने नहीं आ पायी है, जबकि ये विषय विस्तृत चर्चा की मांग करता है. अभी एक बार और पढूंगी, फ़ुरसत से, तब शायद कोई सार्थक कमेंट कर पाऊं 🙂
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर की गई है। चर्चा में शामिल होकर इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और इस मंच को समृद्ध बनाएं…. आपकी एक टिप्पणी मंच में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान करेगी……
जय हो..
बहुत बढ़िया आलेख!
बधाई हो!
बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि कौन किस पृष्ठभूमि से आता है.
कोई बुराई नहीं…. विचारों से सहमत हूँ……
शिखा जी,
दूसरे कमेंट का मतलब कि जब पुरूष महिलाओं की तरह व्यवहार करें तब उसे कमजोर बताया जाता हैं.वहाँ तो आप कह सकती हैं कि स्त्रियोचित आचरण को हेय क्यों समझा जाता हैं या बिंदासपन सिर्फ पुरुषों का गुण क्यों माना जाता हैं.शीर्षक पढकर मुझे लगा आप ऐसी ही कोई बात कहने वाली हैं.लेकिन पोस्ट में आपने बिल्कुल नई सी ही बात कही हैं कि खुद महिलाएँ स्त्रियोचित व्यवहार करें तो भी उन्हें ताने दिये जाते हैं.बल्कि समाज खासकर पुरुष चाहते हैं कि महिलाएँ सेक्स जैसे वर्जित विषय पर खुला नजरिया रखें बल्कि वे मर्यादा और नैतिकता को छोड ही दें?
ये सब तो पहली बार सुन रहा हूँ.कहाँ हैं ऐसे पुरुष?हाँ साहित्य की बात और हैं वहाँ राजेन्द्र यादव जैसे पुरुष हैं जो देह से आजादी जैसे नारे उछालते रहते हैं लेकिन अपवादों के आधार पर समाज का नजरिया नहीं तय किया जा सकता हैं.
मैंने आपकी पोस्ट फिर से पढी आपने खुद एक जगह माना हैं कि जो महिलाएँ पुरुषों की तरह व्यवहार करे उसे पुरुष चरित्रहीन कहते हैं फिर बाद में आप खुद ही ये भी कह रही हैं कि पुरूष महिलाओं को ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित भी करते हैं,ये दोनों बातें एक साथ सही कैसे हो सकती हैं?
आपने जो लिखा वो अच्छे से सोच समझकर ही लिखा होगा.जैसा कि यहाँ आई टिप्पणियों से लग भी रहा हैं लेकिन मेरे लिए तो ये बातें नई हैं.हो सकता हैं मैं आपकी बात समझ ही नहीं पाया हूँ.खैर आप अपनी बात पर कायम रहें.मैंने तो जितना मुझे समझ आया उसके आधार पर ही टिप्पणी की हैं.कुछ गलत लिख गया होऊँ तो माफ कीजिएगा.
ये बात सुनते सुनते तो कान पक गए हैं कि पुरुष एक ही महिला में अलग अलग छवि देखना चाहता है परिस्थिति अनुसार.यदि ये बात सच हैं तो भी इसमें नाराजगी वाली क्या बात हैं,ये तो पति पत्नी ही क्या हर रिश्ते पर लागू होता हैं कि हम सामने वाले से अलग अलग मौकों पर अलग अपेक्षाएँ रखते हैं.यहाँ संगीता जी को पुरुष गलत नजर आ रहे हैं.जबकि खुद पत्नियाँ भी ऐसा ही चाहती हैं,हो सकता हैं पहले जाहिर न करती हों लेकिन सोच के स्तर पर तो दोनो ही एक जैसे रहे हैं.और अब तो महिलाएँ भी अपनी इच्छाऐं व्यक्त कर रही हैं.
ऐसे तो हम भी कह सकते हैं कि कभी पत्नियों को शाहरुख जैसा रोमांटिक मिजाज वाला पति चाहिए तो कभी जेम्स बाँड की तरह रफ टफ जिसके पास हर समस्या का इलाज चुटकीयों में मिलता हों.कभी पति को भावुक हो उनकी हर बात सुननी चाहिए तो कभी ऐसा करने वाला पुरुष उन्हें औरताना पुरुष भी लगने लगता हैं.और केवल पुरुष ही अपनी पत्नी से माँ जैसी अपक्षाएँ नहीं करते बल्कि मनोवेज्ञानिकों की मानें तो महिलाएँ भी पति में अपने पिता वाले गुण चाहती हैं.फिर केवल पुरुष को ही स्वार्थी क्यों कहा जाएँ?
ऑरत के ऑरत होने में क्या बुराई है , मुझे भी समझ नहीं आती !
ईश्वर ने सबको कार्य के हिसाब से बनाया और उसे पृथक पृथक कार्य सौंपे। उसकी रचना में ही संतुष्टि है, इंसान चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता। अगर करता है तो वह अप्राकृतिक होता है।
जिसका काम उसी को साजे
नही साजे तो नित डंडा बाजे
वाणी जी से सहमत
Shaleenta poorwak aurat hone me kabhi koyi burayi nahi!
कौन कहता है औरत होना बुरा है और जो कहता है उसे एक बार औरत बन कर रहना चाहिये काश ये संभव हो पाता तब कोई नही कह पाता औरत होना बुरा है।
२ तरह के लोग हैं जो पुरुष के जैसे बोलने-रहने वाले स्त्री को अलग ढंग से देखेंगे..
एक तो उसे आधुनिक बताएगा और एक उससे सख्त नफरत करेगा..
यह तो महिलाओं पर ही है कि वह किसे खुश करना चाहती है.. यह तो कहीं नहीं लिखा है कि आप आधुनिक तभी हो सकती हैं जब आप पुरुषों की तरह का आचरण करें.. यह तो महिलाएं खुद पर कुछ अनकहे नियम थोप रही हैं..
वो जैसी हैं, पुरुषों को वैसी ही पसंद हैं..
aapko padhkar hamesha jindagi ko dekhne ka ek naya angle milta hai…
जब तक पुरुष मानसिकता है समाज में … ये द्वन्द चलता रहेगा … जब की असल में स्त्री से ज्यादा समर्थ पुरुष में भी नहीं मानसिक स्तर पे …
बधाई इस प्रकाशन पर …
मेरे कमेंट में गलती से मंटो साहब का नाम ग़लत चला गया है. कृपया उसे "सआदत हसन मंटो पढें.
न मैंने इस्मत पढ़ी है न ही मंटों।
और न इस विषय पर कुछ कह पाने की हैसियत रखता हूं।
बस इतना कहना चाहूंगा कि … आधुनिकता को निशाना बनाकर यथार्थ व भारतीयता के धरातल पर लिखित यह रचना बहुत अच्छी लगी।
मर्द और औरत गाड़ी के दो पहिये हैं । एक के बगैर दुसरे का कोई अस्तित्त्व ही नहीं । फिर भला बुराई कहाँ हो सकती है । वैसे भी नारी भगवान की एक अनुपम देन है । वो जैसी है , वैसी ही ठीक है ।
अश्लील लिज़लिज़े शब्दों के भरपूर प्रयोग के साथ वार्तालाप हमारे समाज का एक हिस्सा है. पुरुषों में अधिक, महिलाओं में कम. पूरी तरह किसी में नहीं. कभी मथुरा जाइए तो किसी पान या चाय की दूकान पर कुछ मिनट गुज़ारिये …..एक से एक बानगी मिलेगी. दुबारा आप परिवार के साथ कभी वहाँ जाने के लिए सोचेंगे भी नहीं. कुछ दिन पहले पढ़ा था हमारी सिने तारिकाएँ मर्दों के सामने मर्दों जैसी ही गालियों का तड़का लगाने में संकोच नहीं करतीं. वहीं कुछ अभिनेता ऐसे भी हैं जो शब्दों के मामले में बड़े सतर्क होते हैं. मुझे लगता है यह पुरुष मानसिकता का नहीं बल्कि संस्कारों का मामला है. मंटो की परिभाषा के अनुसार तो मैं औरतों के दर्जे में शामिल हो गया हूँ. क्योंकि मुझे इस प्रकार की अश्लील अभिव्यक्ति से सख्त ऐतराज़ रहता है.
आलेख कहीं उलझा हुआ है, स्पष्ट समझ नहीं आया। हो सकता है कि मैं ही समझ नहीं पा रही हूं।
शिखा जी स्त्री स्रष्टि की अद्वितीय रचना है… वह स्त्री की भूमिका में ही शक्तिशाली और शालीन है… लेकिन बाज़ार अपने मुनाफे के लिए उसे कथित बोल्ड, बिंदास और सेक्स सिम्बल बना देना चाहता है…
मैं तो नहीं मानता. क्या गली देना बोल्ड होना है? अश्लीलता के प्रदर्शन को भी बिदास और व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं मानता. इस तरह के सब षड़यंत्र स्त्री को गुलाम बनाने के लिए किये जा रहे हैं… उसकी तेजस्विता छिनने का षड़यंत्र तथाकथि नारीवादी और पुरुषवादी संगठन कर रहे हैं… इस सन्दर्भ में मैंने भी एक लेख लिखा है… उस पर बहस होनी चाहिए…
शिखा दी…
मैं मंटो के उस कथन और आपके इस लेख को अलग अलग परिपेक्ष्य में देखता हूँ। मंटो का कथन जैसा कि दाऊ (सलिल जी) ने कहा,इस बात की निराशा में था कि इस्मत आपा को इतना करीब से जानने के बाद भी उनको उनके व्यक्तित्व के इस पहलू की उम्मीद नहीं थी…। इस्मत आपा के कहानी संग्रह "चिड़ी की दुक्की" के एक संस्करण के प्राक्कथन में मंटो ने इस बात का जिक्र किया है। सो इस आलेख के परिपेक्ष्य में उनके इस कथन का उल्लेख संदर्भित नहीं होना चाहिये मेरे विचार में।
अब बात आलेख की…… इस की गुणवत्ता पर कुछ कहने की पात्रता नहीं है अभी पर कुछ विचार हैं मन में…
किसी का भी व्यवहार उसकी परवरिश, उसके परिवेश और उससे निर्मित उसके विचार पर निर्भर करता है। प्रश्न स्त्री या पुरुष होने का नहीं है…यह नितांत व्यक्तिगत मसला है।
"आखिर क्यों यदि एक स्त्री स्त्रियोचित व्यवहार करे तो उसे कमजोर, ढोंगी या नाटकीय करार दे दिया जाता है और यही पुरुषों की तरह व्यवहार करे तो बोल्ड, बिंदास और आधुनिक या फिर चरित्र हीन"……
"आखिर ये किस कानून में लिखा है कि सेक्स की हिमायती और खुले आम अश्लील कहे जाने वाले शब्दों का प्रयोग किये बिना कोई महिला बोल्ड नहीं हो सकती"
आलेख के ये दो हिस्से इसके मूल आशय में विरोधाभासी दिख रहे हैं……समाज में बोल्ड कहे जाने कि इच्छा भी पर साथ ही समाज द्वारा इसकी स्वीकार्यता की गुहार भी। व्यक्तित्व यदि बोल्ड हो तो फिर समाज से स्वीकार्यता प्राप्त करने की जरूरत ही क्यों……!
आलेख का मूल विषय एक गंभीर समस्या है जिस पर निस्संदेह व्यापक विचार होना चाहिये पर मेरे विचार में आलेख विषयांतर होता चला गया।
regards !
मेरे विचार में वो बोल्ड है जो स्वावलंबी है चाहे वो महिला हो या पुरुष. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो क्या पहनता है या किस भाषा में बात करता है.
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