होली के सच्चे रंग नही अब
यहाँ खून की है बोछर
दीवाली पर फूल अनार नही
अब मानव बम की गूँजे आवाज़
ईद पर गले मिलते नही क्यों
गले काटते हैं अब लोग
क्रिसमस पर अब पेड़ नही
लाशों का ढेर सजाते हैं क्यों लोग
हो लोडी,ओडम या तीज़,बैशाखी
अब बजते हैं बस द्वेष राग
सस्ती राज़नीति मैं बिक गये
हमारे कीमती सब त्यौहार।
मेलों बाजारों की रौनकें अब
हो गईं खौफ से तार तार.
मुनियों के देश की बागडोर
आई जब स्वार्थी नेताओं के हाथ .