आज मुस्कुराता सा एक टुकडा बादल का 
मेरे कमरे की खिड़की से झांक रहा था 
कर रहा हो वो इसरार कुछ जैसे 
जाने उसके मन में क्या मचल रहा था 
देखता हो ज्यूँ चंचलता से कोई 
मुझे अपनी उंगली वो थमा रहा था 
कह रहा हो जैसे आ ले उडूं तुझे मैं 
बस पाँव निकाल देहरी से बाहर जरा सा.
मैं खड़ी असमंजस में सोच रही थी 
क्या करूँ यकीन इस शैतान का ?
ले बूँद खुद में फिर छोड़ देता धरा पर
है मतवाला करूँ क्या विश्वास इसका
जो निकल चौखट से पाँव रखूं इस बाबले पे
और फिसल जा पडूँ किसी खाई में पता क्या 
ना रे ना जा छलिया है तू ,जा परे हो जा तू जा ..
किनारे रख चुकी हूँ मैं “पर”अब नहीं उड़ने की भी चाह
फिर ना जाने क्या सोच कर मैंने थमा दी बांह अपनी 
कि ले अब ले चल तू गगन का छोर है जहाँ 
मूँद ली मैने ये पलकें फिर धर दिए घटा पे पाँव 
और ले चला वो बादल मुझे मेरे सपनों के गाँव