कैसा होगा वह समय, जब यह तय हुआ होगा कि औरतें घर के काम करेंगी और आदमी बाहर जा कर जीविका कमाएंगे।
कैसा होगा वह पुरुष जिसने पहली बार किसी स्त्री से कहा होगा  कि तुम घर में रहो, यह काम करो, मैं बाहर जाता हूँ. कैसा लगा होगा उस स्त्री को यह सुनकर। क्या उसने विरोध किया होगा ? या यह उसका ही निर्णय रहा होगा। फिर कैसे यह परम्परा बनी होगी? आरम्भ में क्या सभी इस व्यवस्था से प्रसन्न थे ? क्या किसी पुरुष में तब यह दम्भ रहा होगा कि वह कमाता है औरत को घर बैठाकर खिलाता है. या  औरत को अपने घर के काम के प्रति हीन भावना रही होगी ?. 

उस युग, काल में जो हुआ हो सो हुआ हो परन्तु बदलते वक़्त के साथ यह व्यवस्था और परम्परा का क्या हुआ यह हम सब जानते हैं. अर्थ की महत्ता बढ़ी , उसी के साथ घरेलू कामों की महत्ता घटी और इसके साथ ही घरेलू कामों को करने वालों के सम्मान को भी चोट पहुंचाई जाने लगी. और यहाँ से शुरू हुआ इस व्यवस्था का विरोध। अपना सम्मान पाने के लिए घर से बाहर निकल कर अर्थ अर्जन करने की इच्छा स्त्रियों में उत्पन्न हुई परन्तु अब भी परंपरा और संस्कारों की बेड़ियां उनके पैरों में पड़ीं थीं. जिनसे प्रभावित हो उनके लिए घर परिवार ही प्राथमिक रहा. बाहर निकल कर धन अर्जित करने में सक्षम होते हुए भी, और इसकी इच्छा होते भी उन्होंने घर और परिवार को अपनी पहली जिम्मेदारी माना और उसके लिए तथाकथित अपने करियर का त्याग किया, क्योंकि उन्हें हमेशा लगता रहा कि उनका घर परिवार उनके सिवा कोई नहीं संभाल सकता और उनके कदम बाहर निकालते ही सब गुड़ गोबर हो जाएगा. हाँ कुछ ने अपनी इच्छा या आर्थिक मजबूरी के कारण बाहर कदम निकाला परन्तु उसके लिए भी ससुराल और पति की अनुमति सर्वोपरि रही.उसके बाद भी घर परिवार की जिम्मेदारी उनके ही हिस्से रही. कुछ घरों के पुरुष उनकी थोड़ी बहुत मदद घरेलू  कामों में करके “अच्छे पुरुष” की उपाधि जरूर पा जाते हैं परन्तु उन औरतों का एक पैर यहाँ और एक पैर वहां होता और वे बीच में झूलती रहतीं या फिर घर में बैठकर अपनी क्षमता का उपयोग बाहर न कर पाने के कारण कुढ़ती रहीं। हालाँकि अपवाद स्वरुप ऐसी भी बहुत महिलायें मिलीं जिन्होंने अपनी पसंद से घरेलु कार्य चुना। परन्तु कभी न कभी उन्हें भी यह बात सालती है कि घर की जिम्मेदारियां न होतीं तो वे भी बाहर निकलकर कुछ अधिक कर सकतीं थीं. यहाँ तक कि आर्थिक रूप से संपन्न और हर प्रकार की घरेलू जिम्मेदारी से मुक्त गृहणियां भी सभी सुविधाएं सुगमता से भोगते हुए भी जब तब ये ताने देती देखी जा सकती हैं कि तुम और तुम्हारे घर के लिए मैंने अपना कैरियर छोड़ा वरना…..


ऐसे लोग शायद उंगली  पर ही गिने जा सकते हैं जो यह कहते हैं कि नहीं , हमें बाहर जाकर काम करना ही नहीं, हमें तो घर के काम ही पसंद हैं. 
यानि कि बहुत कुछ बदला पर स्त्री पुरुष के काम का ये वर्गीकरण बना ही रहा. परन्तु अब लगता है कि आखिर कार ये वर्गीकरण लिंग भेद पर न होकर अपनी व्यक्तिगत पसंद पर होने लगा है. 


नई पीढ़ी काफी हद तक इस पारम्पारिक वर्गीकरण को नकारने लगी है. जहाँ इस नई पीढ़ी की लड़कियों के लिए पढ़ना लिखना , और अपनी जीविका खुद कमाना आवश्यक हो गया है वहीं घर परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी वह अब अकेले अपने कंधे पर ढोने को बेताब नहीं है. वह इस व्यवस्था से अब इंकार कर देती है कि घर और बच्चे सम्भालना स्त्री का ही काम है. बल्कि यह काम अब कई पुरुष भी अपनी पसंद से करना चाहते हैं. घरेलू अब कौन बनेगा यह लिंग पर आधारित नहीं बल्कि अपनी व्यक्तिगत पसंद पर आधारित होने लगा है.
आजकल न जाने कितने घरों में देखा जा सकता है कि घर का पुरुष घर में रहकर बच्चों की देखभाल करता है, उन्हें स्कूल छोड़कर , ले कर आता है, घर का सम्पूर्ण प्रबंधन देखता है और घर में जीविका कमाने वाली स्त्री है जो बाहर जाकर काम करती है और धन कमाती है. और यह वर्गीकरण उन्होंने अपनी अपनी पसंद के आधार पर आपसी समझ से किया है. वहां किसी में भी, किसी भी तरह की हीन या श्रेष्ठता की भावना दिखाई नहीं पड़ती।
आज के युवा इस मामले में बेहद स्पष्टवादी हैं। उनका दृष्टिकोण और उनके लक्ष्य के प्रति वे अधिक सजग और स्पष्ट सोच रखते हैं. किसी भी चली आ रही परम्परा या व्ययवस्था को आँख बंद करके वे नहीं अपना रहे बल्कि अपनी जिंदगी अपनी समझ और अपनी पसंद से जीने के लिए प्रतिबद्ध हैं. यह अच्छे लक्षण हैं और शायद अब एक सभ्य और सामान अधिकार समाज की तरफ हम अग्रसर हैं.