व्हाट द फ … ये इंटरनेट है या ब्लडी बैलगाड़ी। 5 मिनट में एक पेज अपलोड होता है.
मॉम मैंने आपको कल नया हेयर कलर मगाने को बोला था अभी तक नहीं आया.
ओह शिट। इस डॉक्टर के यहाँ इतनी वेटिंग में कौन बैठेगा।
यह बहुत बड़ा है, हाथ थक गए लिखते हुए.
अब इतना लंबा कौन पढ़ने बैठे।
इतने साल.? सारी जिंदगी पढ़ते ही रहेंगे क्या।
ओह शिट। इस डॉक्टर के यहाँ इतनी वेटिंग में कौन बैठेगा।
यह बहुत बड़ा है, हाथ थक गए लिखते हुए.
अब इतना लंबा कौन पढ़ने बैठे।
इतने साल.? सारी जिंदगी पढ़ते ही रहेंगे क्या।
ये शब्द नहीं, ये जीवन शैली है एक फ़ास्ट फ़ूड के, फास्ट जमाने की, फ़ास्ट जीवन शैली। जहाँ किसी के पास समय नहीं है. सब कुछ बस चुटकियों में पाना है और अगर १- २ चुटकी में नहीं मिलता तो जीवन व्यर्थ है और इसे मिटा देना चाहिए।यह विश्व उसके लायक नहीं या फिर वह इस जीवन के लायक नहीं यह धारणाएं घर करने लगती हैं और नतीजा अवसाद, तनाव और निराशा से होता हुआ जीवन समाप्ति पर ख़त्म होता है.
यह नजरिया है उस जिंदगी का जिसे कभी ऊपर वाले का दिया हुआ वरदान समझ कर निभाया जाता था, समस्यायों और रुकावटों से धैर्य के साथ निबटा जाता था, सब्र और हिम्मत जिसके प्रमुख गुण हुआ करते थे परन्तु जो आज इस तथाकथित भागती दौड़ती दुनिया में किसी फ़ास्ट फ़ूड सेंटर के किसी बर्गर सा हो गया है जिसमें सबकुछ रेडीमेड है बस झटपट जो चाहा लगाया, फटाफट खाया और चल दिए.
घर से पैर निकलते ही जॉब चाहिए, जॉब मिलते ही कार चाहिए, कार से निकले तो मॉल चाहिए सब कुछ बस चाहिए ही चाहिए और बस अभी इसी वक़्त चाहिए।
दुनिया भर के सर्वे बताते हैं कि नई पीढ़ी में सब्र की मात्रा बेहद कम होती जा रही है. बच्चों में डिप्रेशन और हायपर टेंशन जैसी बीमारियां छोटी उम्र में ही दिखने लगी हैं. सब कुछ तुरत फुरत पा लेने की इच्छा, स्वभाव बनती जा रही है और इस बेसबर जिंदगी में सब्र नाम की किसी चिड़िया के लिए कोई स्थान नहीं है.
आये दिन युवाओं की आत्महत्या की ख़बरों से दुनिया भर के समाचार माध्यम भरे रहते हैं. कारण खुद को खत्म करने का कोई भी हो सबके पीछे निराशा की अधिकता और संघर्ष की कमी तो होती ही है. कहीं काम से निराशा, कहीं प्यार से, कहीं रिश्तों में उम्मीदों का टूटना कहीं प्रतियोगिता में पिछड़ना। पलक झपकते ही इच्छाओं की पूर्ती और उसके लिए की जाने वाली कोशिशों की कमी से उपजा यह बेसब्रापन अनजाने ही दिन – प्रतिदिन लोगों पर हावी होता जा रहा है.
आये दिन युवाओं की आत्महत्या की ख़बरों से दुनिया भर के समाचार माध्यम भरे रहते हैं. कारण खुद को खत्म करने का कोई भी हो सबके पीछे निराशा की अधिकता और संघर्ष की कमी तो होती ही है. कहीं काम से निराशा, कहीं प्यार से, कहीं रिश्तों में उम्मीदों का टूटना कहीं प्रतियोगिता में पिछड़ना। पलक झपकते ही इच्छाओं की पूर्ती और उसके लिए की जाने वाली कोशिशों की कमी से उपजा यह बेसब्रापन अनजाने ही दिन – प्रतिदिन लोगों पर हावी होता जा रहा है.
ऐसा नहीं कि यह बेसब्री आज के परिवेश में यूँ ही घुल मिल गई है. यह नई पीढी के खून में हुआ कोई केमिकल लोचा भी नहीं है।इसके लिए पर्याप्त कारण हैं. भौतिक वाद, अर्थ की महत्ता, गला काट प्रतियोगिताएँ, एकल होते परिवार आदि जैसे अनेक कारण हैं जो इस स्वभाव के लिए जिम्मेदार हैं. आजकल परिवार में माता पिता दोनों का काम करना और अर्थोपाजन आवश्यक है ऐसे में बच्चों के लिए उनके पास वक़्त नहीं है।अत: उनकी हर जरुरत को पैसे से पूरी करके वह अपनी जिम्मेदारियां निभा लेना चाहते हैं. उनके पास न बच्चे का रोना सुनने का समय है न उनकी जिद्द को सही गलत समझाने का, जिनके पास स्वयं धैर्य से बैठने का समय नहीं वह बच्चों को धैर्य सिखाएं तो आखिर कैसे।
उसपर सिमटते परिवारों में माता पिता की धुरि सिर्फ और सिर्फ अपने बच्चे के इर्द गिर्द घूमती रहती है अत: येन केन प्रकारेण वे उनकी हर इच्छा को बिना वक़्त बर्बाद किये पूरा कर देना चाहते हैं.ऐसे में बच्चे को हर माँगी हुई वस्तु आसानी मिल जाती है और वह इसे ही जीवन समझ लेता है.
खाना समय पर नहीं बना तो झट से पिज़ा आर्डर कर लिया, पढ़ाई नहीं हो रही तो झट से पैसे देकर बड़ी कोचिंग ले ली, कोई जबाब नहीं मिल रहा झट गूगल कर लिया, दोस्त नहीं मिले तो फटाक से सोशल साइट खोल ली, सब कुछ यूँ , यूँ और यूँ। यानि इस फेसबुक / गूगल पीढ़ी में, खाने से लेकर क्रिकेट के ट्वंटी ट्वंटी तक सब्र और धैर्य की कहीं कोई गुंजाइश नहीं लगती। परन्तु जब उसका सामना बाहरी दुनिया से होता है तो वहां उन्हें मन चाही वस्तु आसानी से नहीं मिलती, उसके लिए संघर्ष करने की और धैर्य रखने की आदत उनकी होती नहीं ऐसे में उसे जीवन व्यर्थ लगने लगता है। उन्हें यह भरोसा हो जाता है कि यदि अभी उसने यह नहीं पाया तो अब कभी नहीं पा सकेगा ऐसे में उसे बस एक पलायन का ही रास्ता नजर आता है और जीवन को ख़त्म कर देना एकमात्र उपाय।
ऐसा नहीं है कि नई पीढ़ी आलसी है या वे काम नहीं करना चाहते, वे पिछली पीढ़ी से कहीं अधिक मेहनती, कार्यकुशल और तेज़ दिमाग हैं परन्तु समस्या बस इतनी है कि मंजिल पाने की जल्दी में हैं धैर्य के साथ सही मौके का इंतज़ार करने का उनके पास वक़्त नहीं है, इस तेज भागती चूहा दौड़ में भागते रहना उसकी मजबूरी है और इन सबमें जरा बिलम्ब होते ही वह हिम्मत हार जाते हैं.
जरुरत है कि इस आपा धापी से कुछ समय निकाल कर कुछ पल उनके साथ बैठा जाए, उन्हें समय, अवसर, और उपलब्धि में सामंजस्य बैठाना सिखाना जाए, और जब अगली बार कोई बच्चा किसी बात पर आपसे खीज कर कहे – ओह नो. डेट्स टू लॉन्ग। तो बजाय उसकी बात मानने के , कुछ समय उसके पास बैठिये और समझाइये कि हो सकता उसे समय कुछ ज्यादा लगे परन्तु धैर्य और प्रयास के साथ वह उसे एक दिन पायेगा जरूर उसे बताइये कि सबकुछ पा लेना आवश्यक नहीं, आवश्यक है कुछ बेहतर पाना।
वरना ये बेसब्री, समाज को उसी तरह बीमार कर देगी जैसे फ़ास्ट फ़ूड हमारी सेहत को कर देता है. और आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी।
अच्छा आलेख व लेखन , आ. शिखा जी धन्यवाद !
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सुंदर प्रस्तुति , आप की ये रचना चर्चामंच के लिए चुनी गई है , सोमवार दिनांक – 28 . 7 . 2014 को आपकी रचना का लिंक चर्चामंच पर होगा , कृपया पधारें धन्यवाद !
हाँ… विचारों का स्थायित्व और सहनशीलता खो रही है …अब भी चेतें तो अच्छा है
दिक्कत तो यही है की आजकल माँ बाप पे भी समय कहाँ है धैर्य से समझाने का … फास्ट फ़ूड के युग में जो फास्ट नहीं वो पीछे है …
चिंतनीय विषय को उठाया है …
सच कह रही हो शिखा……..बिलकुल सही नब्ज़ पकड़ी है तुमने….
अपने बेटे को भी पढवा दिया तुम्हारा आलेख !!
🙂
अनु
समय के अनुरूप लेख.. 🙂 सुंदर..
समय तो निश्चित है परन्तु इच्छाएं बढती जारही है सहनशीलता घटती जा रही है इस परिस्थिति जिंदगी कि रफ़्तार तो बढ़ेगी !
अच्छे दिन आयेंगे !
सावन जगाये अगन !
ब्लॉग बुलेटिन की आज रविवार’ २७ जुलाई २०१४ की बुलेटिन — कहाँ खो गया सुकून– ब्लॉग बुलेटिन — में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार!
गंभीर विषय है। माँ बाप ौर बच्चे सब को कम से कम हफ्ते में एक दिन जिंदगी बिना किसी स्क्रीन के गुजारना जरूरी है और जरूरी है परिवार का एक दूसरे के साथ समय बिताना। नियम भी माँ बाप ही बना सकते हैं कि असभ्य भाषा े बरदाश्त नही करेंगे।
shika ji, aaj ki pidhi ki majburi ko bahut hi sundar tarike se prastut kiya haai aapane!
सच शिखा ……लेख पढ़ना शुरू किया और बच्चों की बातें जैसे दिमाग में घूमने लगीं …वही वाक्य टकरा टकरा के ज़हन में आने लगे ….सच ही तो है …शायद यही 'जनरेशन गैप' है …आज बच्चों को समझाने की कोशिश करना एक और विवाद की जड़ बन जाता है …सुन्दर और अर्थ पूर्ण लेख
इस आपाधापी सी ज़िन्दगी में माता पिता के पास धैर्य नहीं तो बच्चे कैसे सीखेंगे ।इस फ़ास्ट फ़ूड सी ज़िन्दगी को दाल भात जैसी बनाने के लिए माता पिता के पास थोडा वक़्त होना चाहिए । गंभीर समस्या की तरफ ध्यान आकर्षित करता सार्थक लेख ।
सही कहा है, आज के माहौल में सभी को कहीं न कहीं जाने की जल्दी है… धैर्य कम होता जा रहा है और उसी अनुपात में रोग बढ़ते जा रहे हैं
कल 29/जुलाई /2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !
इस पीढ़ी को हम क्या दे रहे हैं ! जरा सी सर्दी गर्मी बर्दाश्त नहीं करने देते , कुछ अभाव नहीं रहने देना चाहते , बच्चे सब्र करना , सहन करना सीखते ही नहीं !
समय है ठहर कर सोचने की कि हम भावी पीढ़ी को क्या बनाना चाहते हैं .
सार्थक आलेख !
आज पहली बार आप के ब्लॉग पर आना अच्छा लगा…..और यह पोस्ट ..जितनी प्रशंसा की जाए कम है. एकदम बिल्कुल तस्वीर ही खींच के रख दी। सभी बातें सोचने लायक हैं।
बिल्कुल सही बात कही है शिखा जी ! लेकिन समय की रफ़्तार को कोई नहीं रोक सकता ! यदि समय ठहर जाये तो इस सृष्टि का बेलेंस ही बिगड़ जाये !
" मैगी कल्चर" बस सब कुछ दो मिनट में चाहिए और वो भी बस दो मिनट के ही लिए , न स्थायित्व न धैर्य । सदा की भांति आपका एक अच्छा और सामयिक चिंतन ।
बिल्कुल सही बात कही है
सहज पके सो मीठा होय – यह बात सब भूल गए हैं !
डालो रसायन और जल्दी पका लो .पर तब वे खासियतें नहीं पैदा हो सकतीं जो समय के साथ आती हैं ,और सही परिपक्वता दे कर गुणकारी बनाती हैं .पर अंधाधुंध दौड़ यह समझने का समय कहाँ देती है !
बिलकुल सहमत हूँ
हां सचमुच शिखा….
Cant say di why..but main thoda depressed ho jaata hun aaj ke is raftaar se…shayad puraane dino mein zyada comfortable feel karta hun main. !
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