दूसरे  कमरे  से आवाज़े आ रही थीं .एक पुरुष स्वर -..” इतना बड़ा हो गया किसी काम का नहीं है …इतने बड़े बच्चे क्या क्या नहीं करते ..जब देखो टीवी और गेम या खाना ..जरा भी फुर्ती नहीं है ..एकदम उत्साह विहीन .ना जाने क्या करेंगे अपनी जिन्दगी में …”

फिर एक महिला का स्वर आया …” अरे अहिस्ता बोलो ..मेहमान हैं घर पर ..क्यों पीछे पड़े रहते हो .बच्चा है अभी, क्या क्या करेगा ..लगा तो रहता है बेचारा सारा दिन ..
फिर एक दबी हुई आवाज़ आई मैं बोर्डिंग चला जाऊंगा ..आपसे दूर जाना चाहता हूँ जितना दूर हो सके....  ..उसके बाद १२ साल का एक लड़का मूंह फुलाए बाहर निकला ..आँखों से पानी गिरने को बेताब पर घर में मेहमानो की खातिर होटों पे मुस्कान लिए .
उस मासूम के अन्दर की हलचल मुझे अन्दर तक हिला गई …एक दस  साल का बालक स्कूल जाता है ,फिर आकर ट्यूशन  जाता है ,फिर आकर होम वर्क करता है और फिर कोई एक्स्ट्रा करिकुलर क्लास…..सुबह के ७ बजे से रात के ८ बजे तक सांस लेने की फुर्सत नहीं ..उसपर पढाई का इतना बोझ की २ % भी कम हुए नंबर . कि बस खैर  नहीं …उसपर पिता के ये ताने …जो  खुद अपने काम और दिनचर्या में इतने व्यस्त हैं कि फुर्सत नहीं कभी यह बैठकर सोचने की कि बच्चे के मन में क्या है ? कभी पास बैठकर ये चर्चा करने की बेटा किस कार्य में निपुण है और क्या करना चाहता है .
हमारे भारतीय समाज में लड़कियां तो फिर भी बच जाती हैं पिता के ऐसे तानो से ..यह कह कर कि अरे वो तो लड़की है ” हाँ ठीक भी है उसे तो ये ताने सुनने ही हैं ससुराल जाकर ..पर बेटा ..? उसकी तो जैसे ये कसर पिता ने ही पूरी करने की ठानी होती है .शायद यही रीत है .एक पिता अपने बेटे को सुपर हीरो के रूप में देखना चाहता है  .वह चाहता  है उसका बेटा वह भी करे जो वह खुद करता आया है,… और वह भी करे जो वो खुद कभी ना कर सका ,… और वह भी जो वो करना चाहता था पर नाकाम रहा . ..बेटे के स्कूल में नंबर  भी सबसे अच्छे आने चाहिए , उसे क्रिकेट टेनिस में भी अव्वल होना चाहिए ,उसे गाना भी गाना चाहिए, घर की बिजली के फ्यूज भी ठीक करने आने चाहिए और गाड़ी का पहिया भी बदलना चाहिए और पर्सनालिटी ऐसी कि हर लड़की आहें भरे ..यानि कि पैदा होते ही उस मासूम को सुपर मेन होना चाहिए. एक ऐसा ब्लेंक चेक जिसपर वो जो चाहें भर लें.
आखिर क्यों ऐसा होता है क्यों हम अपने अरमानो  को अपने बच्चों पर लादना चाहते हैं? हम जानते हैं कि एक पिता अपने बेटे का दुश्मन नहीं होता ..वो हर हाल में उसे काबिल बनाना चाहता है उसका भला चाहता है ..फिर क्यों वह यह भूल जाता है कि उस बच्चे का अपना भी कोई व्यक्तित्व हो सकता है .उसकी अपनी एक पसंद हो सकती है , जीने का अपना तरीका हो सकता है ..जो वर्तमान परिवेश से प्रभावित होता है .क्यों वह चाहता है कि उसका बेटा भी उन्हीं सब परिस्थितियों से गुजरे जिनसे वह कभी गुजरे हैं ….
अक्सर हम पिताओं को यह कहते सुनते हैं ..अरे हम इनकी उम्र के थे तो दूकान संभाल ली थी …या फिर ..इतनी उम्र में तो दिल्ली से मेरठ हम अकेले आ  जाया करते थे ..और इन नबाबजादों  को देखो अकेले स्कूल तक नहीं जा सकते .
अब कोई इन्हें समझाए कि जरुरी तो नहीं कि आपने जो  किया वो आज भी ठीक  ही  हो ..आज के हालातों में पढाई का बोझ इतना ज्यादा है कि बच्चे के पास कहीं और समय लगाने का वक़्त ही नहीं ….
या फिर आज के परिवेश में एक बालक का अकेले सफ़र  करना सुरक्षित है.?
हम ये अच्छी तरह समझते हैं ..फिर भी एक अबोध को इस तरह हर वक़्त ताने देना कहाँ तक उचित है ..माना कि हम उनके रचियता है ,पालनहार हैं और उनकी भलाई के लिए कुछ कहना भी हमारा हक़ है .परन्तु इससे एक बाल मन पर क्या असर पड़ता है क्या कभी हम सोचते हैं ?वो मन ही मन आपको अपना दुश्मन मान  लेता है ..अनजाने ही उसमें बगावत की भावना जन्म लेने लगती है ,.वह खुद को बचाने के लिए आपसे पीछा छुड़ाने की सोचने लगता है और अपने  मुख्य मकसद से दूर होता जाता है .उसके मन से पिता के लिए आदर भाव जाता रहता है और वह हर बात की अवहेलना शुरू कर देता है …दुसरे बच्चों से तुलना करने पर उसके मन को ठेस पहुँचती है और वह कोई भी सकारात्मक कार्य करने के लिए प्रेरित नहीं हो पाता .
क्या कभी हम ये सोचते हैं कि उसे सुपर हीरो  बनाने के चक्कर में हम उसकी क़ाबलियत के अनुसार कुछ करने तक का आत्मविश्वास भी छीन लेते हैं . सब कुछ सिखाने के चक्कर में हम उसका व्यक्तित्व  अनजाने ही इतना कान्फुसिंग बना  देते हैं कि वो बच्चा समझ ही नहीं पाटा  कि आखिर उसके लिए अच्छा क्या है ..और उसे क्या करना चाहिए. और सब कुछ करने के चक्कर में वो कुछ भी ठीक से नहीं कर पाता. वही थोडा सा विश्वास ,थोड़ी सी आत्मीयता और थोड़ी सी सुरक्षा भावना के शब्द उसके आत्मविश्वास को बढ़ाने में बहुत सहायता करते हैं ..हर बच्चे के लिए उसका पिता एक रोल मॉडल होता है,  उसका हीरो होता है ..पिता द्वारा दिया गया थोडा सा भी प्रोत्साहन बच्चे के मनोबल को बड़ाने  में अहम् भूमिका अदा करता है . 
एक पिता अपना तन – मन लगा देता है बच्चों की परवरिश में.अपनी पूरी क्षमता से काम करता है कि बच्चों को बेहतरीन जिन्दगी दे सके. फिर क्यों नहीं वो कुछ पल निकाल  कर उसके मन को समझने की कोशिश कर सकता ?.क्यों अपनी असीमित इच्छाओं के लिए एक मासूम बच्चे से उसका बचपन अनजाने ही छीन लेना चाहता है ?क्या हमें नहीं जरुरत कि कुछ पल निकाल  कर इसपर सोचें .क्या एक पिता का ये फ़र्ज़ नहीं कि अपनी इच्छाओं को परे रख एक बार .अपने नो निहालों  के मन में झांके . उन्हें एक सुलझा हुआ इंसान और बेहतर नागरिक बनाने के लिए.
(चित्र गूगल से साभार )