जब भी कभी होती थी
संवेदनाओं की आंच तीव्र
तो उसपर 
अंतर्मन की कढाही चढ़ा
कलछी से कुछ शब्दों को 
हिला हिला कर
भावों का हलवा सा 
बना लिया करती थी
और फिर परोस दिया करती थी
अपनों के सम्मुख
और वे भी उसे 
सराह दिया करते थे
शायद  मिठास से 
अभिभूत हो कर ,
पर अब उसी कढाही में 
वही बनाने लगती हूँ
तो ना जाने क्यों
आंच ही नहीं लगती
थक जाती हूँ 
कलछी चला चला कर
पर  लुगदी भी नहीं बनती अब
और बन जाते हैं 
गट्ठे भावनाओं के
जिन्हें किसी को  परोसने की 
हिम्मत नहीं होती मेरी
इंतज़ार में हूँ कि 
कोई झोंका आकर बढ़ा जाये
कम होती आंच को
तो इन गट्ठों  को गला कर
परोस सकूँ अपनों के समक्ष