अभी कुछ दिन पहले दिव्या माथुर जी ((वातायन की अध्यक्ष, उपाध्यक्ष यू के हिंदी समिति) ) ने अपनी नवीनतम प्रकाशित कहानी संग्रह “2050 और अन्य कहानियां” मुझे सप्रेम भेंट की .यहाँ हिंदी की अच्छी पुस्तकें बहुत भाग्य से पढने को मिलती हैं अत: हमने उसे झटपट पढ़ डाला.बाकी कहानियां तो साधारण प्रवासी समस्याओं और परिवेश पर ही थीं परन्तु आखिर की दो कहानियों ” 2050 और 3050 के कथानक ने जैसे दिल दिमाग को झकझोर कर रख दिया.कहानी में लेखिका ने 2050 और 3050 तक इंग्लैंड में होने वाले बदलावों को काल्पनिक तौर पर बेहद प्रभावी ढंग से परिलक्षित किया है .एक कथ्य के अनुसार उस समय बच्चे पैदा करने के लिए भी यहाँ की सरकार से इजाजत लेनी होगी और वह आपके आई क्यू और स्टेटस को देखकर ही इजाजत देगी. जो कि बहुत ही दुश्वार कार्य होगा. और जो बिना इजाजत बच्चे पैदा करने की हिम्मत करेगा उनके बच्चे को निर्दयता से उनकी आँखों के सामने ही मार दिया जायेगा.और भी बहुत कुछ जैसे – हर बात पर जुर्माना ,जगह जगह कैमरे ,और सख्त नियम कानून ,वापस एशियन देशों में लौटने की चाहत पर ना लौट पाने की मजबूरी वगैरह वगैरह .कहने को तो यह एक कहानी है लेखिका की कल्पना शक्ति का एक नमूना भर. परन्तु मौजूदा हालातों को देखते हुए मुझे कोरी कल्पना भी नहीं जान पड़ती.पिछले २ वर्षों में आर्थिक मंदी के कारण इंग्लैंड में हुए बदलावों के परिप्रेक्ष्य में यह कल्पना अतिश्योक्ति नहीं जान पड़ती.
बात बात पर जुर्माना , बढ़ता टैक्स , बढ़ती शरणार्थी जनसँख्या की वजह से बिगड़ती और महंगी होती चिकत्सीय और शिक्षा व्यवस्था.
स्कूलों का पहले ही बुरा हाल है,बच्चों को अपने निवास क्षेत्र के स्कूल में जगह मिलना अब एक ख्वाब ही हो गया है माता पिता के लिए . और अब विश्वविद्द्यालय ने भी अपनी फीस एक साथ तीनगुना बढ़ा दी है .पिछले सत्र में जो फीस ३००० पौंड्स हुआ करती थी इस सत्र से वह बढ़ा कर ९००० पौंड्स कर दी गई है .और यह हालात साधारण विश्वविद्द्यालयों के हैं प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों के क्या हाल होंगे वह तो सोच कर ही डर लगने लगता है. उसके वावजूद भी पिछले साल कई सौ छात्रों को किसी भी विश्वविद्द्यालय में स्थान नहीं मिला.आने वाले समय में यह समस्या क्या रूप लेगी यह किसी से छुपा हुआ नहीं है .
वर्तमान परिस्थितियों में रोजगार की समस्या इतनी विकराल हो चुकी है कि खास स्किल्ड जॉब्स भी नहीं मिल रहे हैं. जहाँ पहले विश्वविद्द्यालय से निकलते ही नौकरी की गारेंटी हुआ करती थी और यही सोच कर लोग महंगी फीस लोन लेकर दे दिया करते थे .आज नौकरियों की अस्थिरता के चलते लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि शिक्षा के लिए लिया गया भारी लोन आखिर चुकाया कैसे जायेगा. ऐसे में जो लोग यहाँ काफी सालों से हैं उनकी तो मजबूरी है, परन्तु जिन लोगों के पास वापस भारत लौटने विकल्प है वह यहाँ से जाने में कोई कोताही नहीं कर रहे . जिन्होंने यहाँ आकर जीवन नहीं देखा उनमें यहाँ का आकर्षण शायद बना हुआ है परन्तु इस जीवन से वाकिफ लोग अब कहते पाए जाते हैं कि भारत में जीवन लाख दर्जे ज्यादा स्तरीय और सुविधाजनक है.
एक समय था जब किसी जान लेवा बीमारी से ग्रसित व्यक्ति को यह कहा जाता था कि इंग्लेंड जाकर इलाज कराइए बच जायेंगे .आज नौबत यह है कि साधारण प्रसव कराने के लिए भी यहाँ से लोग भारत जाना ज्यादा ठीक समझते हैं.
अब जब कि शिक्षा ,चिकित्सा, रोजगार जैसी मूल भूत सुविधाओं की यह स्थिति है, तो क्या आकर्षण है अपने देश को छोड़कर विकसित देश में आने का?
एक समय था जब भारत सोने की चिड़िया कहलाता था.हर तरह से सुखी और समृद्ध. तब पश्चिम के लोग आकर्षित हुए थे भारत की तरफ .तो क्या इतिहास फिर से दौहरायेगा खुद को ? क्या यह एक साईकिल है ?क्या फिर घूमेगा वक़्त का पहिया.?क्या एक बार फिर वह समय आने वाला है जब सुख सुविधाओं की खोज में लोग एक बार फिर पूरब की ओर रुख करेंगे.?.अभी हो सकता है ये बात कल्पना या स्वप्न सी लगे पर वर्तमान परिस्थितिओं को देखते हुए इस स्वप्न के पूरे होने में ज्यादा समय लगता नहीं दिखाई देता मुझे.
Imagination towards reality!
कुछ नहीं शिखा जी । हम पश्चिम से बस २० वर्ष पीछे हैं । जो हालात आज वहां हैं , यहाँ २० साल बाद होंगे ।
वैसे कल्पना अच्छी की है । हो सकता है , शायद ऐसा ही हो ।
waqt ka pahiya badh to raha hai … dekhna hai
समस्याओं को उभारने के लिये या तो भूत का लिखा जाये या भविष्य का।
सूरज पूरब से ही उगता है , वो बात अलग है की दमन और लोलुपता ने पूरब के सूर्य को शताब्दियों तक बादलों के पीछे ढकेल दिया था .आपकी बातों से स्पष्ट है की पश्चिम का सूरज डूब रहा है और ऐसा होना प्राकृतिक भी है . एक बात आपने एकदम सटीक लिखी है की जो वहा के जीवन के बारे में ज्यादा नहीं जानते वही उत्सुक रहते है वहाँ जाने को . वैश्वीकरण ने दिशाओ की धुरियाँ घुमा दी है . आपका ये आलेख आंखे खोलने के लिए पर्याप्त है पश्चिम की ओर रुख करने वालो के लिए .
हालात को आपने ऐसे सजीवता से पेश किया है कि भय होने लगा है। सशक्त समीक्षा।
ऐसा स्पष्ट है कि कहानी कार ने जीवन की समस्याओं तथा संवेदनाओं को अपने ढंग से कहानियों में काल्पनिक तौर पर बेहद प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है।
अति सुन्दर….अब दृश्य बदल रहा है. अब नया भारत हमारे सामने है समृद्ध भारत. दिव्या जी के बहाने अपने देश की प्रशंसा सुन कर अच्छा लगा. स्पंदन बढ़ गया.
शिखा जीसिलसिले सए तीन बातें कहना चाहता हूँः
1. यह भविष्य की यात्रा बहुत अच्छी लगी और वास्तविक भी. जब 1948 में जॉर्ज ऑर्वेल ने 1984 लिखी थी तो यह कल्पना रही हो.. उस समय के आसपास आकर सब वैसा ही हो रहा है जैसा उन्होंने अपने उपन्यास में लिखा था.
2. भारत सोने की चिडिया बनेगा और पश्चिम पूरब का रुख़ करेगा… अच्छी कल्पना है.. आपके मूम्ह में घी शकर.. आमीन कहने को जी चह्ता है.
3. इस बार पोस्ट की फॉर्मेटिंग खटक रही है.. टेक्स्ट जस्टिफायड नहीं हैं और कुछ है जो चुभ रहा है.. प्लीज़ बुरा मत मानियेगा. हो सके तो देखकर एडिट कर लीजियेगा!!
कुल मिलाकर.. बहुत अच्छा!!
बाप रे…ऐसा हालत 🙁
सबसे अच्छा अपना ही देश है दीदी 🙂
जी हाँ
यह एक साईकिल है ?
पहिया घूमेगा नहीं बल्कि पहिया घूम रहा है.
आपने उम्दा तबसरा पेश किया है
पढ़ते हुए दिमाग में यही बात थी कि बच्चे को मारना तो इन्तिहाई क्रूरता है लेकिन जिस तरह बेतहाशा आबादी बढ़ रही है, उसके लिए कुछ तो ठोस कदम उठाने ही होंगे.
खुशफहम हम लोग पहले से ही होते आये हैं.. दिल को बहलाने को यह भी ख्याल अच्छा है..
दिव्या माथुर जी की कहानी हम तक पहुँचने के लिए आभार …फिलहाल तो यह कल्पना ही है …वहाँ के हालातों से तुमने रु-ब – रु कराया …अजीब स लग रहा है यह सोच कर कि क्या ऐसा भी हो सकता है …यह भी सही है कि वक्त का पहिया घूमता रहता है ….यह सब हो भी सकता है …जानकारी देने का शुक्रिया
भारत हमेशा ही दुनिया के नक़्शे में -एक बाजार रहता आया है..कोई कसर नहीं ..,जब यह हर क्षेत्र में बाजार बन ही जायेगा.कहानी में कलप्ना है …फिर भी कहानी कलप्ना से ही बनती है…मुझे इस बात में सार्थकता नजर आ रही है .भारत सोने की चिड़िया था और रहेगा.हम इसकी कामना करते है.आखिर सूरज पूरब से ही उदय होता है.पढ़ कर प्रवासियों के चिंता की झलक भी ..देखते बना.हम भारत वासियों को अपने देश की उन्नति के लिए ज्यादा सोंचना चाहिए.! बहुत – बहुत धन्यवाद….
आपको पता है एक ज़माने में इंग्लैंड में बच्चे पैदा करने के लिए राजा से परमिशन लेनी पड़ती थी… यह बात किंग एडवर्ड के ज़माने की है… उस वक्त वाकई में स्टेट्स देख कर परमिशन दी जाती थी… वैसे आपने जो यह आलेख लिखा है… यह पूरा डिप्रेशन पीरियड है… नाइनटीन थरटीज़ में भी ऐसा ही डिप्रेशन पीरियड आया था… और उस पीरियड को ग्रेट डिप्रेशन पीरियड कहा गया था.. जो पूरे तीस साल चला … और इकोनोमिक्स का यह डोक्ट्राइन है कि डिप्रेशन के बाद बूम ज़रूर आता है… और ऐसा हर चालीस – पचास साल में एक बार ज़रूर होता है… वैसे जिसे अभी हम कल्पना कह रहे हैं वो अब ड्रीम कम ट्रू हो चुका है… और भारत में लोग इलाज करवाने इसलिए आते हैं क्यूंकि उनके अपने देश में इतने रूल्ज़ और रेग्युलेशन्ज़ हैं… कि उनको जब तक के इन्सान फौलो करेगा … तब तक के उनका … बोलो ही राम हो जायेगा… और यहाँ अभी सरकार और डॉक्टरज़ के इतने नखरे नहीं हैं… कुल मिलाकर अच्छा आलेख… ऐसे सुंदर आलेख ब्लॉग पर देखने को ही नहीं मिलते हैं… बिलकुल आपकी तरह…
शिखा जी,कहानी के अंश पढ कर तो हंसी ही आई,क्योकि यहं की आबादी घट रही हे बढ नही रही, शेष हालात यहां भी कोई खास अच्छॆ नही लेकिन जेसा आप ने लिखा कि इगलेंड के सुन कर थोडी हेरानगी जरुर हुयी, लेकिन हमारे यहां अभी पुरी पढाई बिलकुल फ़्री हे, कोई फ़ीस नही, कई बार मन हुआ कि चलो भारत चले….. लेकिन वहां के हालात बहुत ही बुरे हे, क्योकि वहां जब हम घुमने जाते हे तो बहुत अच्छा लगता हे, एक बार किसी को कह कर देखो कि हम पक्के गये हे तो देखो… फ़िर बच्चे कहां मर्जी से जायेगे, ओर अगर गये तो क्या वो उतने चालाक हे कि वहां रह सकेगे? इस लिये अब मरना जीना तो यही हे…. वेसे मै एक दो साल के बाद ट्राई करुगां वहा जा कर रहने कि, देखो?
@ डॉ टी एस दराल जी हम अभी भी १०० साल पीछे हे आप मानो या ना मानो
अत्यंत सशक्त और सोचने को बाध्य करता है यह आलेख, शायद आने वाले समय का सच यही हो?
रामराम.
जी कोरी कल्पना ही लगी।
राज भाटिया जी का कमेंट अधिक सही लगता है।
अच्छी कल्पना की है..
आना -जाना लगा है लगा ही रहेगा ,
वक़्त का पहिया चलता ही रहेगा !
वक्त का पहिया है,पूरब फिर उबरेगा.
सलाम
Uf!Khaufnaaq lagte hain aanewale halaat!
वाह! इसे कहते हैं उल्टे बांस बरेली को!।
सोच में दम तो है ….
प्रिय शिखा वार्ष्णेय जी
सादर सस्नेहाभिवादन !
सर्वप्रथम दिव्या माथुर जी को उनकी कल्पनाशक्ति के लिए मुबारकबाद !
पश्चिम की बिगड़ती स्थिति आप प्रवास कर रहे अधिक जानते हैं , हालांकि आपकी पोस्ट में व्यक्त विचार और जर्मनी मे रह रहे राज भाटिया जी के अनुभवों में विरोधाभास भी ध्यान में रखने योग्य है । फिर, पश्चिम की बिगड़ती स्थिति में भारत अथवा एशिया की संभाव्य प्रगति देखने का तर्क समझ से परे है ।
सार रूप में – … स्वप्न के पूरे होने में ज्यादा समय लगता नहीं दिखाई देता मुझे … काश ! ऐसा हो … … …
बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
– राजेन्द्र स्वर्णकार
वैदिक काल में भी पागल, व्याधि ग्रस्त, विकलांग, कोढि, चोर, डकैत, जुआड़ी इत्यादि को बच्चे पैदा करने की अनुमति नहीं थी क्योंकि उनकी अगली पीढी में भी यह बिमारियां होने की संभावना मानी जाती थी।
इतना अवश्य है कि आगामी सदी भारत के ही नाम होगी और भारत ही विश्व का प्रतिनिधित्ब करेगा। इसी आशंका से महाशक्तियाँ चितिंत है। परमाणू परीक्षण के पश्चात 3 साल के आर्थिक प्रतिबंध ने भारत को और भी मजबूत बनाया है। लेकिन इन घोटालेबाजों से पीछा छूटे तब ना।
आगे या पीछे के विचारों को बांधकर ही कुछ लिख जाता है….शायद यह हो भी जाये…… वैसे कल्पना अच्छी है….
यह देखकर तो लगता है कि भारत अपनी बिगड़ी अवस्था में भी यू.के. से अच्छा है।
खौफनाक भविष्य की यह कल्पना कभी हकीकत में न बदले ,यही कामना है. बहरहाल दिव्या माथुर के कहानी-संग्रह की ओर ध्यान दिला कर आपने जसी चर्चा की है , उससे उनकी इस किताब के बारे में दिलचस्पी जागती है. कभी मिले तो ज़रूर पढ़ना चाहूँगा . दिव्याजी को पुस्तक के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई और इस किताब की चर्चा के लिए आपका आभार .
महफूज़ भाई इंग्लैण्ड में कभी ऐसा नहीं रहा कि बच्चे पैदा करने के लिए किसी को राजा की आज्ञा की जरूरत रही हो.. हाँ किंग जॉर्ज के समय में जरूर विवाह अधिनियम १७७७ के अनुसार राज परिवार के सदस्य राजाज्ञा के बिना निम्न वर्ग के सदस्य से विवाह नहीं कर सकते थे वर्ना यह विवाह अवैध माना जाता था अथवा उस सदस्य को अपना उत्तराधिकार गंवाना पड़ता था. लेकिन बच्चे पैदा करने के लिए राजाज्ञा कभी नहीं लेनी पड़ी..
@राज भाटिया जी एवं दराल सर, आप दोनों ही सही हैं क्योंकि भारत के अलग-अलग शहर, कस्बे, गाँव में जाकर देखने पर विकास से दूरी अलग-अलग ही नज़र आती है, कहीं २०, कहीं ३० कहीं ५० तो कहीं और भी ज्यादा.
लेख सही है लेकिन थोड़ा थकावट के साथ लिखा गया लगता है.. 😛
@भाटिया जी, लन्दन की आबादी हमेशा से बढ़ ही राही है, जर्मनी और लन्दन की परिस्थितियों में काफी अंतर है. तभी ना यहाँ की सरकार अभी से एशियाई और अन्य देशों(यूरोपियन देश छोड़कर) के विद्यार्थियों को वीसा देना कम कर रही है.
@अन्य कुछ ब्लोगर मित्र… हर देश के हालात में फर्क है… विदेश अर्थात भारत के अलावा अन्य सारे देश एक जैसे हों ये समझना ठीक नहीं. यूरोप में भी कई देश एक दूसरे से काफी अलग हैं.
देशप्रेम अच्छी बात है लेकिन ये भी जरूरी है कि हम अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा समझना और कहना भी सीखें. कई बातें भारत में अच्छी हैं और कई यू.के./ यूरोप में और हमें दोनों की खूबियों की खुले दिल से तारीफ़ करनी चाहिए.
@ललित जी, अभी तो हमें इंतज़ार करना होगा कई और सालों तक.. हाल फिलहाल तो चीन महाशक्ति बनता नज़र आ रहा है.. हाँ जनसँख्या के मामले में जरूर जल्दी ही हम नंबर एक होंगे. ऐसा भी नहीं कि हम प्रतिभाशाली नहीं.. तभी ना पूर्णविकसित देश से एक कदम आगे बढ़कर पूर्णविकसित विश्व की कल्पना को साकार करने में योगदान दे रहे हैं.
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आपने तो भविष्य यात्रा करा दी. अभी तो ऐसा लगता है की ये दिन ज्यादा दूर नहीं है.
यह तो भविष्य के गर्भ में है ,प्रस्तुति के लिए आपको धन्यवाद.
अनुरोध है कि प्लीज प्लीज २०५० और ३०५० को यहाँ भी हमें पढ़ायें !
agar aise haalat honge to fir
" mera bharat mahaan "
agar aise haalat honge to fir
" mera bharat mahaan "
बड़ा प्यारा लगा यह आकलन ! समय चक्र का, कम शब्दों में स्पष्ट वर्णन बहुत प्रभावी बना है….. बधाई शिखा !
सब समय का खेल है भविष्य मे क्या हो किसे पता
अनतः मेरा भारत महान
अपना देश ही सबसे बढ़िया……..बढ़िया लिखा है आपने
क्या सच में तुम हो???—मिथिलेश
मध्य-प्रदेश में रहते हुए हमें यहाँ कदम-कदम पर कमियाँ और अव्यवस्थाओं का बोलबाला दिखता था । फिर जब बिहार और उत्तर प्रदेश में जाना हुआ तो लगा अरे इनकी तुलना में अपना प्रदेश तो स्वर्ग समान है । क्या ऐसा ही कुछ संदेश आपकी इस पोस्ट में भी नहीं दिख रहा है ?
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
2050 का तो कह नहीं सकता, 3050 में मैं नहीं रहूँगा!
हा हा हा….
आशीष
—
लम्हा!!!
यही सारी स्थितियां आने वाले कल में यहाँ भी आने वाली हैं. हाँ ये और बात है कि अपने देश में अभी भी बाहर से बेहतर स्थिति मान सकते हैं. बढती हुई फीस और नौकरी के लिए फाइल लिए बच्चे क्या कम हैं? ये स्थिति आने वाले कल में सभी जगह होने वाली है. लेकिन अपनी धरती को छोड़ कर विदेशी धरती का मोह और फिर ये सब झेलना आसान नहीं है. समय के साथ सामाजिक, आर्थिक , और सांस्कृतिक परिस्थितियों ने सब कुछ बदल दिया है और इतने लम्बे अंतराल में क्या होगा? इसकी कल्पना की तो जा सकती है. उसको कोरी कपोल कल्पित तो नहीं कहा जा सकता है.
सपने या सोच ही हकीकत में बदलते है…:)
हो सकता है ये इत्तेफाक से सोची हुई बात सच हो जाये..:)
वैसे कल्पना है अच्छी..फिर आपके पेश करने का अंदाज तो निराला होता ही है..:)
इतिहास अपने आपको दुहराता ही हैं ..इसलिए यह कल्पना कभी यथार्थ भी हो सकती है , कोई अतिश्योक्ति जैसा नहीं लगा ….फिलहाल तो भय सर्द लहर सा कम्पित कर रहा है इस कल्पना को पढ़ कर !
यदि मै सही हूँ तो ये प्लूटो का दर्शन था की राज्य को बच्चो के जन्म पर नियंत्रण रखना चाहिए और केवल योग्य यानि शारीरिक और मानसिक रूप से श्रेष्ठ महिला और पुरुष को ही मिल कर बच्चो को जन्म देना चाहिए जिसकी परवरिश राज्य करेगा | बच्चो के जन्म पर नियंत्रण तो चीन में है ही और नियम और कायदे पहले से हर जगह सख्त ही होंगे | आप जो बात लन्दन के लिए कह रही है वैसा ही कुछ हाल मुंबई का भी है देश के छोटे छोटे शहरों और गांव से आये लोगो की हालत मुंबई में कुछ ऐसी ही है | यदि भारत में लोगो ने जनसँख्या पर नियंत्रण नहीं लगाया तो यहाँ के हालत आप की कहानी से भी ज्यादा बत्तर हो जायेंगे हमारे जीते जी |
लोग कहते हैं वक़्त दोहराता है खुद को…. अब पता नहीं दोहराएगा या नहीं खुद को लेकिन जहान जिन्दगी की जरूरतें पूरी होंगी वहां लोग कहीं भी जायेंगे…ये दिन शायद अब दूर नहीं हैं..हम भागते हैं वेदेष विदेश के भागते हैं हमारे यहाँ…दरअसल दूर के ढोल सुहावने होते हैं..हर जगह की अपनी FESILTI है …. जिसको जो पसनद आये…अच्छी समीक्षा किताब की…. वर्तमान की समस्याओं को केंद्र में रख कर की है
सशक्त समीक्षा। पुस्तक पढने की इच्छा जाग उठी। कुछ कहानियाँ हमे भी पढवायें। शुभकामनायें।
जिस परिवेश में जो रहता है, वहां की जीवन शैली और आगामी परिवर्तनों को भलीभांति लक्ष्य कर सकता है, दिव्या जी ने किया भी. बढिया समीक्षा.
वक़्त का पहिया घूमता ही घूमता है…भले अंतराल लम्बा हो….
मुझे पश्चिमी देशों ने कभी आकर्षित नहीं किया है…कभी नहीं लगा कि वहां रहना स्टेटस वाली बात है…
यह और बात है कि इस एक जीवन में पृथ्वी के अधिकाधिक भूभागों को देख घूम आने की इच्छा होती है….पर घूम फिरकर अपना घर तो अपना देश ही है….
भारत — –भारत है भारत जिसकी कोई तुलना नहीं —
दिव्या माथुर जी की कहानी हम तक पहुँचने के लिए आभार|
कुछ नी हो सक्ता.
आशीष जी ने सही कहा …
आपका ये आलेख आंखे खोलने के लिए पर्याप्त है पश्चिम की ओर रुख करने वालो के लिए …
अब विदेशों में कुछ नहीं रखा …..
अभी हाल ही में मेरे ताऊ के बेटे भइया भाभी आये थे वे भी यही बता रहे …
कि अब तो इंग्लैण्ड भी इंडिया बना पड़ा है जगह जगह कचरे के ढेर …
न साफ न सफाई ….बेरोज़गारी अलग ….
अच्छा करती हैं इस तरह की post लिख कर …
विदेशों का moh karne walon को sabak तो milega thoda …..
क्या एक बार फिर वह समय आने वाला है जब सुख सुविधाओं की खोज में लोग एक बार फिर पूरब की ओर रुख करेंगे.?…..करने ही लगे हैं ऑलरेडी….
बाप रे बाप..
ऐसा भी हो सकता है क्या
aapka blog pasand aaya..umda lekhan Shikha ji..
स्तिथि भयावह है पर फिलहाल इस पर कुछ कहना जल्दबाजी होगी, ऐसी ही एक भविष्य पर आधारित कहानी मैंने भी लिखी है.. पर वो पूरी तरह से भारतीय सन्दर्भ पर है.. मैं इस स्तिथि से रिलेट नहीं कर पा रहा हूँ.. इसलिए कुछ कहूँगा नहीं..
its quite horrifying to imagine what the writer has written in her story of 3050,but the best thing is that it will be great to read about it in hindi lit. thanks for the review
@शीखा वार्ष्णेय,
संक्षिप्त सी समीक्षा पठनीय रही, जिसके विन्यास ने बहुत संवेदनशील, यथार्थपरक व भयावह जानकारियाँ
उपलब्ध कराई… फ़िर शीखा वार्ष्नेयी सरोकार भी स्पर्शी …
एक आँखों देखा निष्कर्ष वहां का कि कितनी ही विषमताएं, दिक्कतें, घुटन, मजबूरियां और विफलताएं क्यूँ
न हो, हमें अपने देश में ही उनका हल ढूंढना है, जीने के रास्ते खोज निकालने हैं… …
दूसरी ओर, हमारे यहाँ भी हम देख रहे हैं, कैसे हमारा भरा-पूरा समाज money oriented हो गया है…होता
जा रहा है, और यह सैलाब बहुत ऊपर से लेकर हमारे समाज के बहुत नीचे के तबक़ों तक जा पहुंचा है. जैसे सारी
नैतिकताएं पैसे के आगे हास्यास्पद, उपहास पात्र बन गई है/ दिख रही है. बिना नैतिकता वाले 'अच्छे भविष्य' की
ओर जैसे हम अग्रसर हुए जा रहे हैं…जहाँ मानवता, परस्पर विश्वास, संवेदनशील सामाजिकता, दोस्ती इत्यादि की
जरूरत ही न हो…
शिखा जी बहुत देर से आया इस पोस्ट पर .. पूर्व और पश्चिम की बहस हमेशा ही चलती रहेगी.. वैसे आपकी पुस्तक समीक्षा सरस और प्रभावशाली है… पूर्व अपनी संस्कृति, भाषा और देशजपन पर गर्व करता रहा है जो उसके विकास में बाधक बना… तमाम प्रगति के बाद भी अभी पूरब के कई देशों को, भारत सहित. लम्बी दूरी तय करनी है.. लेकिन यदि विकास के मानक ही आने वाले समय में बदल जाएँ तो बात दूसरी होगी… जोर्ज ओरवेल की १९८४ पचास के दशक के आसपास ही सच दिखने लगी थी…
शिखा जी ,
चिंतनपरक लेख और कहानी का विषय चिंतनीय अवश्य है किन्तु वास्तव में अपने भारत में भी कुछ अच्छा सा होता नहीं दिख रहा | हाँ , इस बात पर जरूर गर्व किया जा सकता है ,,,,,,' अपना देश तो अपना ही है , वह चाहे जिस जिस भी हाल में हो '
सबसे पहले तो हार्दिक धन्यवाद ऐसी लेखिका और उनके दूरदर्शी विचारों से मिलवाने के लिए…
और स्थिति देखकर तो यही परिस्थिति बनने का पूरा-पूरा योग है…
मस्त है… 🙂
आपका ये आलेख आंखे खोलने के लिए पर्याप्त है पश्चिम की ओर रुख करने वालो के लिए .
कुल मिलाकर अच्छा आलेख.
सच तो है जिस तरह से आज इले क्ट्रानिक उपकरणों का उपयोग हो रहा है वः भी तो कल्पना के बाहर ही था से उसी तरह जिन चीजो का कहानी में जिक्र है सब कुछ संभव है |
आज तो भारत में भी बीमार पड़ना , प्रसव करवाना जब तक बड़ी कम्पनी में है ,बीमा है तभी सुलभ है वर्ना थोड़े समय बाद यही कहेगे इससे तो गाँव में ही दाई के हाथो होजाता प्रसव |
bahut achchchaa wishleshan
sateek report ye tasweer prawaasiyon ke dukh dard ko ukertee hai real story… congratts
मेरा इसी विषय पर तीन वर्ष पूर्व राजकमल प्रकाशन से एक उपन्यास प्रकाशित हुआ है जिसमें मैंने 2150 के विश्व की कल्पना की है। नाम है सैलाबी तटबंधं।
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