सामने मेज
पर
 
क्रिस्टल के
कटोरे में रखीं
 
गुलाब की
सूखी पंखुड़ियाँ
 
एक बड़ा कप
काली कॉफी
 
और पल पल
गहराती यह रात
अजीब सा हाल
है.
 
शब्द अंगड़ाई
ले
उठने को
बेताब हैं
 
और पलकें झुकी जा रही हैं.
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अरे बरसना है तो ज़रा खुल के
बरसो

किसी के सच्चे प्यार की तरह
ये क्या बूँद बूँद बरसते हो
तुम
,
सीली छत से टपकती भाप की
तरह
 
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कितना भी हरा हो घास का
मैदान

पाए जाते हैं कुछ धब्बे
सूखी घास के

उग ही आते हैं कुछ पोधे
खरपतवार से

ये जीवन भी तो कुछ ऐसा ही
है न ।
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कुछ लोग
किसी के
 जैसे नहीं
होते
 
वह होते हैं कुछ जुदा कुछ
निराले
  
पांचवी ऋतू से, नौवीं दिशा से 
या इन्द्रधनुष के आंठवे रंग
से
 
सबमें मिलकर भी सबसे अलग 
आसमां के पार जैसे एक फ़लक 
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कोई शिकवा नहीं
शर्त नहीं
शक भी नहीं। 
द्वेष नहीं 
भेद नहीं 
लेन देन भी नहीं। 
बंद होंठों की इबादत है
प्रेम मिज़ाज नहीं
एक आदत है….