इस पार से उस पार 

जो राह सरकती है
जैसे तेरे मेरे बीच से 
होकर निकलती है
एक एक छोर पर खड़े
अपना “मैं “सोचते बड़े
एक राह के राही भी
कहाँ  “हम” देखते हैं.


निगाहें भिन्न भिन्न हों
दृश्य फिर अनेक हों
हो सपना एक ,फिर भी
कहाँ संग देखते हैं
रात भले घिरी रहे
या चाँदनी खिली रहे
तारों में ध्रुव तारा कहाँ
सब देखते हैं.