सफ़ेद रंग का लम्बा वाला लिफाफा था और मोती से जड़े उसपर अक्षर. देखते ही समझ गई थी कि ख़त पापा ने लिखा है. पर क्या???? आमतौर पर पापा ख़त नहीं लिखा करते थे.बहने ही लिखा करतीं थीं और उनके लिफाफे गुलाबी,नीले ,पीले हुआ करते थे. कोई जरुरी बात ही रही होगी. झट से खोला था तो दो बड़े बड़े पन्ने हाथ आ गए थे, धक् से रह गया दिल, क्या हो गया …इतना लम्बा पत्र…. बिना सांस लिए पढ़ डाला था पर वो पत्र कहाँ…भावनाओं की नदी थी. जैसे प्रत्येक पंक्ति एक कवित , वैरी अन यूजुवल  टू पापा …”छ: बजने को आये हैं बाहर चिड़िया  की चहचहाहट  के साथ तुम्हारी यादों की टीस भी शोर मचाने लगी है,यूँ ही तो तुम्हारी किलकारियां गूंजा करती थीं कभी. अब और लिखा तो ये बाकी लिखे शब्द भी धुल ना जाएँ इसलिए बंद करता हूँ…  तुम्हारा पापा.” इन आखिरी पंक्तियों के साथ ख़त मोड़ते  हुए सारा दृश्य सामने चलने लगा था. जरुर किसी टेंशन की वजह से आधी रात नींद खुल गई होगी उनकी. कोई ऑफिस की परेशानी होगी.. . चहलकदमी करते हुए सोच रहे होंगे कि कैसे किसी दुश्मन को अपना बनाया जाये.अजीब सा फलसफा था उनका, कि अगर कोई तुमसे चिढ़ता है तो चिढ़ से उसका जबाब मत दो. दुश्मन को प्यार से वश में करो. यदि कोई तुम्हें नीचा दिखाना चाहता है तो बदले में उसे गालियाँ ना दो बल्कि अपना कद इतना ऊंचा कर लो कि तुम्हारी ओर  नजर उठाकर देखने में सामने वाले की गर्दन ही अकड़ जाये.. .और बिलकुल यही किया करते थे वे. उनके मातहत उन्हें पूजा करते थे और अधिकारियों को उनकी लत सी लग जाती. हाँ कभी कभार कोई साथी जरुर जलन वश चिढ जाता तो वे मौका तलाशते रहते कि कब कैसे उसकी मदद की जाये कि उसकी भावनाए  बदल जाये.,और उसे अपना बनाकर ही चैन लेते. यही स्वाभाव था उनका ...

तभी मम्मी की नीद खुल गई होगी पूछा होगा ” क्यों टहल रहे हो रात को २ बजे ? तो झट से बोले होंगे “आज डिनर में सब्जी ठीक नहीं बनाई तुमने , गणेश (नौकर)से बनवा दी थी क्या ?( जबकि वे जानते थे खाना मम्मी खुद ही बनाती थीं हमेशा),सैंडविच खाने का मन कर रहा है खीरा टमाटर वाला.खुन्खुनाती मम्मी उठ गई होंगी और ऊनी गाउन लपेट मुस्कुराती आ गई होंगी रसोई में “सीधे सीधे नहीं कह सकते कि भूख लग आई है.” और ब्रेड की साइड करीने से काट कर तरीके से सैंडविच  बनाकर  दिया होगा.पापा को हर काम सुव्यवस्थित ही चाहिए होता है. जरा भी टेढ़ा – मेढ़ा  नहीं. यहाँ तक कि दरवाजे की चिटकनी लगा कर उसे अन्दर मोड़ना जरुरी होता था.वर्ना यह पहचान थी एक लापरवाह और काम अधूरा छोड़ देने वाले व्यक्तित्व की. मम्मी तो फिर सो गई होंगी आकर.सैंडविच  चबाते हुए अचानक याद आ गई होगी मेरी, और भावावेश  में यह ख़त लिख डाला होगा,साथ ही लिफाफा तुरंत चिपकाकर रख लिया होगा ऑफिस के बैग में. पता था मुझे, घर में किसी को बताया भी नहीं होगा ऐसे ही हैं वे..  अपनी भावनाएं दिखाना जरा भी पसंद नहीं उन्हें..फिर मम्मी को रात  को उठाकर सैंडविच बनवाया था, इस अपराधबोध को मिटाने के लिए चाय बना कर मम्मी को दी होगी और दोनों बहनों का टिफिन भी पैक कर दिया होगा….
पता नही किस माटी के बने हैं मेरे पापा अचानक होंठ फ़ैल गए मुस्कराहट में. एक तरफ शौक़ीन ,जिंदादिल ,गुस्सैल  और बेहद प्रेक्टिकल और दूसरी ओर गहन फिलॉसफर ,बेहद संवेदनशील, कवि ह्रदय .पता ही नहीं चलता था कब किस करवट बैठेंगे.जहाँ एक ओर लोगों से घिरे रहने का , अपनी तारीफें सुनने का शौक था वहीँ दूसरी ओर जबरदस्त आलोचना सहने की शक्ति थी ,और अद्भुत क्षम्य क्षमता…पल भर में मोम सा दिल पिघल जाता था...मम्मी भुनभुनाती रहती थीं “कोई एक दिन  बेच खायेगा हमें तो”. और वो हंस दिया करते ठहाके मारकर ..”अरे अब क्या  बिकेंगे… ..मेरठ में पढता था तब  रेखा (फिल्म अभिनेत्री ) का प्रोपोजल आया था.पर पढाई की वजह से मना करना पड़ा” …और वहां खड़े सब उनके इस अंदाज पर खी खी कर हंस दिया करते और मम्मी अपना गुस्सा भूल कर गर्दन झटका दिया करतीं.



वैसे और लोग ही क्या ..हम भी आँख बंद करके आश्रित रहा करते थे पापा पर ,असंभव तुल्य ही काम क्यों ना हो बस कान में डाल दो पापा के और निश्चिन्त सो जाओ ..हो ही जायेगा वो भी पूर्ण व्यवस्थित तरीके से .
वैष्णो  देवी की यात्रा पर गए थे एक बार हम,साथ में छोटी सी ५ साल की बेटी ,वहां की व्यवस्था का कोई अंदाजा तो था नहीं. वैसे भी अब तक सारे भारत के तीर्थ पापा के साथ किये थे तो कुछ कभी समझने की जरुरत नहीं महसूस हुई थी .परन्तु ऊपर दरबार में पहुँच कर देखा तो पाया कि वहां रहने के लिए इस तरह कमरे नहीं मिला करते लाइन इतनी लम्बी है ..टोकन ले लीजिये और वहीँ कहीं लेट जाइये सारी रात, सुबह तक शायद नंबर आ ही जायेगा दर्शनों का  ..सुनकर सन्न रह गए हम. छोटी सी बच्ची के साथ इतनी ठण्ड में ये कैसे हो सकता है …और सुबह की तो वापसी की ट्रेन भी है जम्मू से.पतिदेव  ने कहा तुम यहाँ बैठो मैं पता करता हूँ किसी से .वहां पत्थर पर बैठ जाने कैसे ज़हन में आया ..”काश पापा होते.. बस एक फ़ोन करने भर की देरी थी.सब कुछ अरेंज हो जाता.” ख्याल अभी गए भी नहीं थे कि जाने कहाँ से एक सज्जन प्रकट हुए, कहने लगे कहाँ से आये  हैं आपलोग माँ के दर्शन के लिए? हमने जबाब दिया तो उन्होंने एक वी आई पी  पास हमें पकड़ा दिया कि मैं यहाँ हर २-३ महीने में आता हूँ मेरे पास आज ये एक्स्ट्रा है आप यह ले लो और हाथ मुँह धोकर दर्शन के लिए चले जाओ .मैं फटी फटी आँखों से देख रही थी बस. उन्हें धन्यवाद भी पति ने आकर किया और हम जड़वत से  दर्शन कर आये आधे घंटे में ही.वापस जम्मू लौटकर एक होटल में शरण ली. बाहर बालकनी  से नजरें अनानयास ही  आस्मां की और उठ गईं एक सितारा टिमटिमाता दिख रहा था होंट स्वत:  बुदबुदा उठे  “थैंक्स पापा”… जैसे जबाब आया ” पागल है बिलकुल ..दुनिया घूम आई पर जरा जरा सी बात पर परेशान हो जाती है..” खुले होंठ फ़ैल गए मुस्कराहट से….
आज छ: फरवरी है. एक बार फिर पलके उठ गई हैं आस्मां पर , कोई तारा फिर दिखा है ..और ये होंठ फिर खुल गए हैं ” हैप्पी बर्थडे पापा……..

मैं और मेरे पापा.