आज हिंदी दिवस है.और हर जगह हिंदी की ही बातें हो रही हैं .मैं आमतौर पर इस तरह के दिवस या आयोजनों पर लिखने से बचती हूँ पर आज कुछ कहे बिना रहा नहीं जा रहा.आमतौर पर हिंदी भाषा के लिए जितने भी आयोजन होते हैं उनमें हिंदी को मृत तुल्य मान कर शोक ही मनाते देखा है.एक हँसती खेलती भाषा को लाचार, अधमरी और मृतप्राय बनाकर कटघरे में ला खड़ा कर दिया जाता है और दोनों तरफ हिंदी के रखवाले वकील बन खड़े हो जाते हैं बहस करने. बहस दर बहस होती है. हिंदी के स्वरुप को लेकर, इसमें प्रयुक्त शब्दों को लेकर. मेज ठोक ठोक कर कहा जाता है कि हिंदी के शब्दों को क्यों सहज किया जाना चाहिए? क्यों उसमें किसी भी और भाषा के शब्दों को शामिल किया जाना चाहिए. तर्क दिया जाता है कि अंग्रेजी भाषा के लिए तो उसे सहज करने की बात नहीं करते  हम. और इन सबके बीच भाषा हंसती हुई सोचती है. वाह रे मेरे पालनहारो! तुमने मुझे समझा ही नहीं. बस लकीर के फ़कीर बने एक लकीर को पिटे जा रहे हो. भाषा का उत्थान उसे एक सिमित दायरे में सिकोड़कर रखने में नहीं बल्कि उसे सम्रद्ध करने में है. अंग्रेजी का तर्क देने वाले क्या यह नहीं जानते कि जो अंग्रेजी आज प्रचलन में है वह किन किन रास्तों से गुजर कर आई है ? उसके शुभचिंतकों ने तो उसे समय के साथ बदलने में या उसमें दूसरी भाषाओँ के शब्द समाहित करने में कोई गुरेज नहीं की.
दूसरी  भाषा के शब्द शामिल करने से भाषा रूकती नहीं है बल्कि ज्यादा तेज़ी से चलती है. औरों की बात मैं नहीं जानती. अपनी कहती हूँ. मैं तीन अंतर्राष्ट्रीय भाषाएँ जानती हूँ और कई बार अपने किसी भाव को व्यक्त करने के लिए एकदम उपयुक्त कोई शब्द  मुझे एक भाषा में नहीं बल्कि दूसरी भाषा में मिल जाता है. कभी कभी किसी भाव को व्यक्त करने के लिए कोई शब्द मुझे तीनो में से किसी भी भाषा में नहीं मिलता फिर मुझे लगता है काश कुछ और भाषाएँ भी मुझे आती होतीं तो इस भाव को एकदम सटीक शब्द मिल जाता शायद.
शेक्सपियर  का साहित्य इंग्लैंड में आज भी स्कूलों में उसी भाषा में पढाया जाता है जिस में वह लिखा गया.पर आम बोलचाल में उस भाषा को उपयोग नहीं किया जाता और ना ही भाषा की शुद्धता के नाम पर ऐसा करने की जिद की जाती है.तो क्या इससे उनकी भाषा अशुद्ध हो गई? या उसके विकास में कोई बाधा आई? आज भी अग्रेजी भाषा को जानने वाला, पढने वाला एक तबका एक अलग ही अंग्रेजी भाषा का (क्लिष्ट ) उपयोग करता है और उसमें रूचि रखने वाले हम आप जैसे कई लोग उन शब्दों को समझने के लिए शब्दकोष खोलते हैं. धीरे धीरे वही शब्द हमारी भाषा में समाहित से हो जाते हैं और हमें किलिष्ट नहीं लगते.पर आम लोगों को ऐसा ना करने पर दुत्कारा नहीं जाता. साहित्य की और आम बोलचाल की भाषा हर देश स्थान में अलग होती है और शायद यही अंग्रेजी की उन्नति का राज़ है .
देखा जाये तो हमारी हिंदी में भी ऐसा होता है. हिंदी साहित्य या शिक्षण से जुड़े लोग एक अलग हिंदी का प्रयोग करते हैं और उनमे रूचि रखने वाले या उनके संपर्क में आने वालों को उन शब्दों को सीखने या समझने में कोई गुरेज नहीं होता.तो क्या बेहतर यही नहीं कि उन्हें अपना काम करने दिया जाये और आम लोगों को सीधे भाषा की क्लिष्टता पर भाषण देने की बजाय उसके सहज रूप में रूचि जगाई जाये जिससे वह उस भाषा के साहित्य को पढने में रूचि ले. जब वह ऐसा करेगा तो उन शब्दों को भी समझना चाहेगा, जब वह उन्हें जानेगा तो सहज ही वह शब्द उसकी अपनी भाषा में  जायेंगे और धीरे धीरे जुबान पर आते वक़्त वह शब्द किलिष्ट नहीं लगेंगे. परन्तु उसके लिए पहले जन साधारण की रुचियों से और उनकी क्षमताओं से भाषा को जोड़ना बहुत जरुरी है.
मुझे याद आ रहे हैं, हाल ही में हिंदी सम्मलेन में एक युवा वक्ता गगन शर्मा के कहे शब्द.कि “हम अपनी भाषा और शिक्षा के लिए आज लार्ड मेकाले को जमकर गालियाँ देते हैं परन्तु उसके जाने के बाद स्वतंत्र हुए हमें ६५ साल हो गए. फिर हमें कौन मजबूर कर रहा है कि हम उसी व्यवस्था को ढोए जाएँ? हमने परमाणु बम बना लिया पर एक मेकाले नहीं बना पाए. हम अपने ज्ञानी ध्यानी होने का अपनी भाषा के सम्रद्ध होने का दम भरते हैं तो क्या हममे क्षमता नहीं कि हममे से कोई एक हमारा अपना नया मेकाले पैदा हो सके”. 
आज जरुरत इसी सोच की है. जो हो गया उसे रोते रहने की बजाय जो हो रहा है उसे सकारात्मक रूप से देखने की है.या फिर एक गीत की यह पंक्तियाँ हमारे चरित्र पर सही बैठती हैं.?
ये ना होता तो कोई दूसरा गम होना था.
हम तो वे हैं जिन्हें हर हाल में बस रोना था.