हमारे समाज को रोने की और रोते रहने की आदत पढ़ गई है . हम उसकी बुराइयों को लेकर सिर्फ बातें करना जानते हैं, उनके लिए हर दूसरे इंसान पर उंगली उठा सकते हैं परन्तु उसे सुधारने की कोशिश भी करना नहीं चाहते .और यदि कोई एक कदम उठाये भी तो हम पिल पड़ते हैं लाठी बल्लम लेकर उसके पीछे और छलनी कर डालते हैं उसका  व्यक्तित्व , कर डालते हैं  चीर फाड़ उसके निजी जीवन की और उड़ा देते हैं धज्जियां उसकी कोशिशों की.शायद हम देखना ही नहीं चाहते अपने समाज का शर्मनाक चेहरा. क्योंकि अब ऐसे ही उसे देखने की आदत पड़  गई है हमें.क्योंकि अगर वह ऐसा ही नहीं रहा तो हम चर्चाएँ किसपर करेंगे,अपने स्वार्थ के लिए मुद्दे किसे बनायेंगे.या फिर आदत है हमें हर बुराई के लिए नेताओं की तरफ उंगली उठा देने की और जब बात हमारी अपनी या हमारे अपनों की होती है तो नकार देते हैं हम. और उधेड़ने बैठ जाते हैं बखिया उसकी,जो कोशिश करता है आइना दिखाने की.
आजकल एक नया शो टीवी पर शुरू हुआ है “सत्यमेव जयते” – अभी एक ही किश्त आई कि हर तरफ हाहाकार मच गया. शायद बहुतों को अपने चेहरे उसमें नजर आने लगे या फिर भविष्य की किसी किश्त में नजर आने का खतरा मडराने लगा. और हो गई शुरू आलोचनाएँ.
माना कि इस शो का संचालन एक सेलिब्रेटी. मोटी  रकम लेकर कर रहा है. तो क्या ? वह अपना काम कर रहा है .क्या उससे उस मुद्दे की गंभीरता कम हो जाती है? क्या  बुराई है अगर जनता को एक स्टार की बात समझ में आती है. पूरी दुनिया स्टार के कपडे , रहन सहन और चाल ढाल तक से प्रभावित हो उसे अपनाती है .तो यदि एक स्टार के कहने से समाज में व्याप्त एक  घिनौनी  बुराई पर प्रभाव पढता है, उसमें कुछ सुधार होता है तो इसमें गलत क्या है.? आखिर मकसद तो मुद्दे को उठाने का और उसमे सुधार लाने का होना चाहिए ना कि इसका कि उसे उठा कौन रहा है.
तर्क दिए जा रहे हैं कि क्या उसका संचालक खुद इतना संवेदनशील है जितना वो शो के दौरान दिखा रहा है. बात उसके अपने निजी जीवन के संबंधो तक जा पहुंची है. अजीब बात है .यदि कोई अपने निजी जीवन में आपसी सहमति  से एक विवाह से तलाक  लेकर दूसरा विवाह कर लेता है तो हम उसे बिना जाने समझे असंवेदनशील का तमगा पहना देते हैं. यदि उनकी एक फिल्म में उनके द्वारा कहे गए संवाद गलत थे, तो यह कहाँ का इन्साफ है कि उनके दूसरे कार्यक्रम में कहे गए अच्छे सार्थक संवादों को भी उसी नजर से देखा जाये .
रात दिन जेवरों से लदी- फदी,  मेकअप  और महँगी  साड़ियों में लिपटी पल पल षड्यंत्र रचती सास बहुयों के बेहूदा कार्यक्रमों में  करोड़ों खर्चा किया जाये तो किसी को कोई तकलीफ नहीं होती. परन्तु एक गंभीर मुद्दे को उठाने के लिए महंगा कार्यक्रम बनाया जाये तो तो उस पर संवेदनाओं को बाजार में बैठाने का  इल्ज़ाम  लगाया जाने लगता है.वाह धन्य हैं हम और धन्य है हमारी संवेदनाएं जो लाखों मासूमो की दर्दनाक हत्या से बाजार में नहीं नीलाम होती, बल्कि इस बुराई को हटाने के लिए उठाई गई आवाज़ से बाजार में बिक जाती है.
माना की आमिर खान एक अभिनेता हैं, और वह अभिनय ही कर रहे हैं, कोई सामाजिक क्रांति नहीं लाने वाले परन्तु उनके कार्यक्रम के माध्यम से यदि एक भी दरिंदा इंसान बन पाता है. एक भी माँ की कोख बेदर्दी से कुचलने से बच जाती है तो उसके लिए उनके करोड़ों  का खर्चा मेरी नजर में तो जायज़ है.