जबसे भारत से आई हूँ एक शीर्षक हमेशा दिमाग में हाय तौबा मचाये रहता है “सवा सौ प्रतिशत आजादी ” कितनी ही बार उसे परे खिसकाने की कोशिश की.सोचा जाने दो !!! क्या परेशानी है. आखिर है तो आजादी ना. जरुरत से ज्यादा है तो क्या हुआ.और भी कितना कुछ जरुरत से ज्यादा है – भ्रष्टाचार  , कुव्यवस्था, बेरोजगारी, गरीबी , महंगाई , लापरवाही, कामचोरी, आदि आदि .ऐसे में आजादी भी ज्यादा मिल जाये तो क्या बुरा है. 
अब देखिये उसी के चलते हाल में हमारे कोयला मंत्री जी ने सारे आम आपत्तिजनक बयान दे डाला. आखिर अभिव्यक्ति की आजादी जो है हमारे यहाँ.कोई भी, कहीं भी, किसी को भी, बिना सोचे समझे कुछ भी कह सकता है.वो तो उनकी भलमनसाहत थी कि उसके बाद उन्होंने माफी मांग ली. नहीं भी मांगते तो क्या फरक पड़ता आखिर मजाक करने की भी आजादी है और हमारे नेताओं का तो सेन्स ऑफ़ ह्यूमर वैसे भी काफी मजबूत है इस मामले में ।  जैसे बोफोर्स ,चारा आदि घोटाले लोग भूल गए ऐसे ही कोयला घोटाला भी भूल जायेंगे  क्यों नहीं ..आखिर भूलने की भी आजादी है हमारी जनता को.अब तो लगता है कि कुछ कहावतों को बदलने की भी आजादी लेनी पड़ेगी – जैसे – कोयले की दलाली में हाथ काले होना ..अब शायद होगा कोयले की दलाली में हाथ ही क्या दिल दिमाग सब काले होना.


यूँ इस आजादी के नमूने नेताओं के बयानों और कार्यकलापों में ही नहीं देखने में आते जगह जगह हर क्षेत्र में देखने को मिल जाते हैं.पता चला कि यू पी के एक शहर का रेलवे प्लेटफोर्म इसलिए इतना गन्दा रहता है क्योंकि वहां के कर्मचारियों ने उसकी सफाई का ठेका किसी और को ४०००रु  में दे रखा है और बाकी तनख्वाह(१५०००रु ) घर में बैठकर आराम से खाते हैं. आखिर आजाद हैं वो भी. सरकार को क्या उन्होंने तो तनख्वाह दे दी. अब उसका वो जो भी करें .और दूसरे ठेकेदार भी आजाद, उन्हें कौन सा सरकार ने रखा है. काम करें ना करें.और सरकार भी आजाद उन्होंने तो अपना काम किया, कर्मचारी नियुक्त किये, वेतन भी दिया अब और वो क्या कर सकते हैं.बाद में इसकी चर्चा एक मित्र से की तो पता चला ये तो चतुर्थ दर्जे के कर्मचारी हैं/ यह काम तो एक राज्य के अध्यापक तक करते हैं(अपना पढाने का काम किसी और को ठेके पे दे देने का). किसी तरह बात पचाई आखिर आजाद देश के नागरिक तो सभी हैं. हमने भी सोचा छोडो यार हम भी थोड़ी आजादी ले लें दिमाग से, और घूम आयें कहीं.सोचा भारत की शान ताज महल देख आया जाये. यूँ पहले भी कई बार देखा था पर अब तो ७ आश्चर्यों में भी शुमार हो गया है शायद  छठा  कुछ अलग हो.

परन्तु शहर में घुसते ही हर तरह की आजादी बिखरी हुई मिली .सड़क पर फैले कचरे के रूप में, कहीं भी खुदी हुई बंद सड़क के रूप में, सड़क बंद के होने पर किस रास्ते जाना है उसकी कोई सूचना के ना होने के रूप में, ऑटो, रिक्शा , ऊँट गाड़ी,  घोड़ा गाड़ी सब मन मर्जी के पैसे मांगने के रूप में ..सब के सब आजाद. हर तरफ आजादी ही आजादी बेशुमार.
अब आप अगर इस आजादी के आदी हैं तो निभा लेंगे नहीं तो मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी की तर्ज़ पर आपको इसे एन्जॉय करने के अलावा कोई चारा नहीं है.सो हमभी इसे एन्जॉय करते ताज की टिकट खिड़की तक पहुंचे जहाँ कम से कम चार तरह की पंक्तियाँ थीं सो वक़्त कम लगा पर उसके बाद ताज में घुसने के लिए २ पंक्तियाँ एक पुरुष के लिए जो बेहद लम्बी थी और एक महिलाओं के लिए जो बहुत ही छोटी थी.पहली बार अपने महिला होने पर सुकून मिला और पहुँच गए तुरंत चेक पोस्ट तक.जहाँ एक टॉर्च जैसी चीज को सिर्फ आपके शरीर पर घुमाया जा रहा था. पर ये क्या…वहां ड्यूटी तैनात महिला ने भी अपनी काम करने की आजादी को अपनाया और बड़े रौब से बोलीं.. इस बच्चे को जेंट्स (११ साल का लड़का ) की लाइन में भेजिए. मैं इसकी चेकिंग नहीं कर सकती.हम हैरान परेशान कि बच्चे को अकेले कम से कम १ घंटे की  पुरुषों  की पंक्ति में अकेले हम कैसे भेज दें उसपर सूर्य महाराज भी पूरी आजादी से चमक रहे थे. और जब १४ साल से कम उम्र के बच्चों की टिकट नहीं है तो उन्हें अपने अविभावक के साथ किसी भी पंक्ति में लगने का अधिकार होना चाहिए. फिर बेशक आप चेकिंग के समय उन्हें दूसरे कूपे में भेज दें. सारी दुनिया में यही होता है. और यहाँ तक कि दिल्ली मेट्रो तक में यही देखा हमने. जहाँ पुरुष , महिलाओं की पंक्तियाँ बेशक अलग थीं पर नाबालिक बच्चों को अपने साथ रखने का अधिकार तो था.पर वहां वो महिला कुछ ज्यादा ही आजाद थीं. हाथ खड़े करके एलान कर दिया मैं जेंट्स की चेकिंग नहीं करुँगी. हमें पहली बार अपने बच्चे का जेंट्स (बड़े हो जाने का ) होने का एहसास हुआ .डर गए कहीं अभी ये मोहतरमा हम पर कोई और इल्जाम ना ठोक दें. तभी एक सुरक्षाकर्मी को हमारी स्थिति पर तरस आया और वह बच्चे को दूसरी तरफ पुरुष सुरक्षा जांच के लिए ले गया यह कहता हुआ कि आइन्दा नियमों का ध्यान रखियेगा.हमने उसे कृतज्ञता से देखा और यह भी कि कुछ विदेशी बड़े आराम से बिना पंक्ति के सुरक्षा जांच के लिए पहुँच गए. आखिर अथिति देवो भव: को मानने वाला है देश हमारा . और ये सवा सौ प्रतिशत आजादी भी उन्हीं  की देन हैं तो इतना हक़ तो उनका बनता ही है .मन में एक ख़याल आया कि क्या अपना पासपोर्ट दिखाने से हमें भी वह हक़ मिल सकता था? अब बेशक आपको वो विदेशी वाला टिकट नहीं मिले पर और दूसरी बहुत सी सुविधा थीं जिनपर अपनी आजादी का प्रयोग करके हमने गौर ना करने की भूल की थी .जैसे बाहर कुछ लोग बड़ी ही निर्भीकता से कहते पाए गए थे देख लीजिये साहब .लाइन बहुत बड़ी है हमें दीजिये कुछ पैसे बिना लाइन के अन्दर पहुंचा देंगे. वर्ना बहुत कड़ी धूप है १ घंटा खड़ा रहना पड़ेगा परेशान हो जायेंगे अन्दर पानी भी नहीं मिलता. मुझे समझ में नहीं आया कि यह प्रशासन के लोग हैं या दलाल ताज दिखाने ले जा रहे हैं या उससे डराने.और स्थानीय पुलिस और सुरक्षा कर्मियों की सुरक्षा में घिरे यह देवदूत आजाद देश में पूरी तरह आजाद होने का जीता जागता सबूत पेश कर रहे थे.अब आपने यह सुविधा नहीं ली तो भुगतिए.उसके बाद वहां मौजूद पानी,जलपान आदि पर भी इसीतरह की कुछ आजादियाँ थीं. जितना सामान दुकानों के अन्दर नहीं था उससे ज्यादा बाहर फैला पड़ा था और साइड में पड़े कुछ कूड़े दान भी अपनी आजादी का जश्न मना रहे थे. 


वहां हमने मान लिया कि उत्तर प्रदेश में कोई रोक टोक किसी चीज पर नहीं है वहां हाथी जैसे खूबसूरत पशु के साथ जिन्दा इंसानों के बुत बड़े शान से खड़े कर दिए जाते हैं. उनपर करोड़ों फूंका जाता है. तो यहाँ की साफ़ सफाई या रख रखाव के लिए पैसा भला कहाँ से आएगा अब पैसा कोई पेड़ पर तो उगता नहीं. महामहिम ने भी कह दिया है.परन्तु फिर हमें बताया गया कि दुनिया की सबसे खूबसूरत इस इमारत  के परिसर की देखभाल का जिम्मा उत्तर प्रदेश सरकार का ना होकर ,केंद्र सरकार का है. अब एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि जब दिल्ली मेट्रो में लोगों की भीड़ को छोड़कर सभी व्यवस्थाएं बेहतरीन ढंग से काम कर सकती हैं तो फिर देश के सर्वाधिक प्रसिद्द जगह पर व्यवस्था का यह हाल क्यों.पर शायद यही विभिन्नता हमारे देश की खासियत है यहाँ कोस कोस पर पानी और वाणी ही नहीं इंसान और व्यवस्था भी बदल जाती है.