इस बार लंदन में ठण्ड बहुत देरी से  पड़नी शुरू हुई इसलिए अब भी अजीब सी पड़ रही है. सूखी सूखी सी. यहाँ तक कि लंदन में तो इस बार अब तक बर्फ तक नहीं पडी. पर ठण्ड ऐसी कि जैसे दिमाग में भी घुस गई हो. ग्लूमी – ग्लूमी सा मौसम फ़िज़ा में और वैसा ही मूड मन पर तारी रहता है. उसपर भारी व्यस्तताओं से भरा दिसंबर का महीना। अब हाल यह है कि करने को बहुत कुछ है पर किया नहीं जाता, कहने को बहुत कुछ है पर लिखा भी नहीं जाता। 


बोर होकर खिड़की से बाहर झांकती हूँ तो गहरा – गहरा सब नजर आता है और फिर वही स्लेटी रंग मन पर हावी हो जाता है. बेमन से लैपटॉप ऑन  करती हूँ तो याद आता है न जाने कब से ब्लॉग पर कुछ नहीं लिखा। ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि इतने इतने दिन तक ब्लॉग अछूता रहा हो. पर लिखने के लिए एक भी शब्द नहीं सूझता तो थक हार कर ऍफ़ बी खोलती हूँ तो पहली ही पोस्ट उसकी मिलती है, जिसे पढ़ना मुझे बेहद पसंद है और जिसे पढ़कर मुझे लगता है कि हिंदी अगर बची है तो इन्हीं जैसे कुछ लोगों की बदौलत बची है.  वरना उसे या तो कठोर मठाधीश कब्जाए रखते हैं या कुछ अंग्रेजीदां अपने स्वार्थ के लिए मिटाने पर तुले हैं. 


पर सोशल साइट्स पर कुछ लोगों ने इस भाषा को बड़े प्यार से सहेजा हुआ है और उनका लिखा पढ़ते ही बड़ा “फील गुड” टाइप का लगा करता है. अब इनका नाम मैं नहीं बताऊँगी क्योंकि फिर कुछ और लोग जो मुझे पसंद हैं (थोड़ा कम ) उनके नाराज हो जाने का ख़तरा है और किसी को नाराज करना मुझे बिलकुल पसंद नहीं।
वैसे भी मुझे लगता है कि यदि कोई किसी से नाराज होता है या किसी को नाराज करता है तो वह सबसे पहले अपने आप से ही नाराज होता है और फिर ढूंढता फिरता है बहाने अपने मन को मनाने के. 
तो मैं भी चुपचाप वह पोस्ट पढ़ती हूँ, एक लाइक चिपकाती हूँ और आगे बढ़ जाती हूँ. क्या है कि ऍफ़ बी का भी अपना ही एक चरित्र है. कहीं कमेंट करना शुरू करो तो लोग उसे अपना हक़ समझ कर बैठ जाते हैं फिर आपकी मजाल जो आपने उनकी एक भी पोस्ट मिस की. ताने मार मार कर आपको मार डालेंगे और आप उस दिन को कोसेंगे जिस दिन आपने पहला कमेंट किया था. 


वही शिकायतों और नाराजगी का सिलसिला चलता हुआ अबोले पर आ जाता है और यह अबोला कब ब्लॉक से होता हुआ आभासी दुश्मनी पर आ जाता है पता ही नहीं चलता। कभी कभी तो सच में लगता है कि यदि कभी फिर विश्व युद्ध लड़ा गया तो पक्का ऍफ़ बी जैसी ही किसी साइट पर लड़ा जाएगा यूँ भी चुनाव तो अब वहां लड़ा

ही जाने लगा है. सरकारें उसी पर बन जातीं हैं. यहाँ तक कि अदालतें वहीँ लग जातीं हैं और आभासी सबूतों के आधार पर अपराधी का फैसला भी वहीँ हो जाता है.यूँ होता यह सब तथाकथित आभासी है परन्तु सजा पाने वाले को सजा असली मिलती है और उसके अंजाम कभी कभी बेहद दुखद और खतरनाक हो जाते हैं. 
इसलिए बेहतर है कि बशीर बद्र की ये पंक्तियाँ ज़ेहन में उतार ली जाएँ और शांति से आगे बढ़ जाया जाए.
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो.