बोर होकर खिड़की से बाहर झांकती हूँ तो गहरा – गहरा सब नजर आता है और फिर वही स्लेटी रंग मन पर हावी हो जाता है. बेमन से लैपटॉप ऑन करती हूँ तो याद आता है न जाने कब से ब्लॉग पर कुछ नहीं लिखा। ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि इतने इतने दिन तक ब्लॉग अछूता रहा हो. पर लिखने के लिए एक भी शब्द नहीं सूझता तो थक हार कर ऍफ़ बी खोलती हूँ तो पहली ही पोस्ट उसकी मिलती है, जिसे पढ़ना मुझे बेहद पसंद है और जिसे पढ़कर मुझे लगता है कि हिंदी अगर बची है तो इन्हीं जैसे कुछ लोगों की बदौलत बची है. वरना उसे या तो कठोर मठाधीश कब्जाए रखते हैं या कुछ अंग्रेजीदां अपने स्वार्थ के लिए मिटाने पर तुले हैं.
वैसे भी मुझे लगता है कि यदि कोई किसी से नाराज होता है या किसी को नाराज करता है तो वह सबसे पहले अपने आप से ही नाराज होता है और फिर ढूंढता फिरता है बहाने अपने मन को मनाने के. तो मैं भी चुपचाप वह पोस्ट पढ़ती हूँ, एक लाइक चिपकाती हूँ और आगे बढ़ जाती हूँ. क्या है कि ऍफ़ बी का भी अपना ही एक चरित्र है. कहीं कमेंट करना शुरू करो तो लोग उसे अपना हक़ समझ कर बैठ जाते हैं फिर आपकी मजाल जो आपने उनकी एक भी पोस्ट मिस की. ताने मार मार कर आपको मार डालेंगे और आप उस दिन को कोसेंगे जिस दिन आपने पहला कमेंट किया था.
वही शिकायतों और नाराजगी का सिलसिला चलता हुआ अबोले पर आ जाता है और यह अबोला कब ब्लॉक से होता हुआ आभासी दुश्मनी पर आ जाता है पता ही नहीं चलता। कभी कभी तो सच में लगता है कि यदि कभी फिर विश्व युद्ध लड़ा गया तो पक्का ऍफ़ बी जैसी ही किसी साइट पर लड़ा जाएगा यूँ भी चुनाव तो अब वहां लड़ा
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो.
इस बार तो हमारे दुबई में भी ठण्ड पड़ रही है … मस्त मौसम है … हर चीज का मज़ा आ रहा है ब्लोगिंग का भी … सहमत हूँ की भाषा को कुछ अच्छे ब्लोगेर्स ने भी अच्छे से संभाला हुआ है … शिकायतें नाराजगी चलती रहती है … युद्ध भी होते रहते हैं फेसबुक पर तो ख़ास कर … नए मिजाज के शहर की तरफ तेज़ी से जमाना कदम बढ़ा रहा है …
ऍफ़ बी के तज़ुर्बे और ये स्याह स्याह सा मन । फिर भी यूँ फ़ासला न बनाओ नए मिज़ाज़ के शहर में मुझ जैसे बाशिंदे भी बसर करते हैं ।
सुंदर प्रस्तुति
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा – 1866 में दिया गया है
धन्यवाद
अच्छा लगा आपको पढ़ना ….
आभासी दुनिया के मिजाज पर सटीक नजर!
सब कुछ आभासी कहने को मगर वास्तविक सी ही खुशियां और नफ़रत भी देता है!!
हूँम्म्म्म्म्म … सच्ची कही ! मैं भी न ……जब जंगल जाता हूँ तो थोड़ा फ़ासला बना कर रखना पड़ता है …….मैं कभी शेर का लंच / डिनर नहीं बनना चाहता । ..और पता तो है न ….आदमियों की दुनिया तो और भी ख़तरनाक है …..
बहुत सही…होता है ऐसा फ़ेसबुक पर :).
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अनुपम….. उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई…
नयी पोस्ट@मेरे सपनों का भारत ऐसा भारत हो तो बेहतर हो
मुकेश की याद में@चन्दन-सा बदन
मस्त मौसम है…सुंदर प्रस्तुति
Recent Post शब्दों की मुस्कराहट पर मेरी नजर से चला बिहारी ब्लॉगर बनने: )
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