सामान्यत: मैं धर्म से जुड़े किसी भी मुद्दे पर लिखने से बचती हूँ। क्योंकि धर्म का मतलब सिर्फ और सिर्फ साम्प्रदायिकता फैलाना ही रह गया है। या फिर उसके नाम पर बे वजह एक धर्म को बेचारा बनाकर वोट कमाना या फिर खुद को धर्म निरपेक्ष साबित करना। परन्तु आजकल जिस तरह मीडिया में हिन्दू मुस्लिम राग चला हुआ है मुझे कुछ अनुभव याद आ रहे हैं और उन्हें लिखे बिना मुझसे रहा नहीं जा रहा . 

बात सन 1998 की है जब हम पहली बार लन्दन आये थे। नवरात्रों का मौसम था, हालाँकि किसी भी तरह के पूजा पाठ में मेरी दिलचस्पी न के बराबर है परन्तु हर तरह के त्योहार मनाने का मुझे बहुत शौक है और जहाँ तक संभव हो सके मैं उन्हें परंपरागत रूप में मनाने की कोशिश किया करती हूँ। अत: नवरात्रों में भी “कन्या पूजन” मुझे करना था। नए होने के कारण किसी से जान पहचान नहीं थी, सिवाय हमारे ही घर के नीचे रहने वाले एक हम उम्र पाकिस्तानी परिवार के, वह लड़की मुश्किल से आठवीं पास थी, पर उर्दू में शायरी लिखा करती थी और शायद यही वजह थी कि हम दोनों में जल्दी ही अच्छी बनने लगी थी। उसकी भी हमारी बेटी के बराबर ही एक बेटी थी। और पास ही रहती थी उसकी एक बहन और उसकी भी एक बेटी। अत: मैंने बिना कुछ भी सोच विचार किये झट से उसे और उसकी बहन को न्योता दे दिया कि मुझे पूजा करनी है अत: वह फलाने दिन अपनी बच्चियों को लेकर मेरे घर आ जाये। उसने भी झट से न्योता मान लिया और अष्टमी के दिन वे दोनों बहने अपनी बच्चियों को सजा संवार कर मेरे घर ले आईं। मैं उन बच्चियों को बिठा कर सारी पूजा करती रही और वे दोनों बड़े चाव और उत्साह से मेरी गतिविधियाँ देखती रहीं . फिर कुछ दिन बाद ही ईद आई और वह मेरी बेटी को ईदी देकर गई। 
आज कई साल बीत गए। हम सारी दुनिया घूम कर इत्तफाक से फिर लन्दन आ गए। पर अब हमारे घर दूर दूर हैं, फिर भी उसके बच्चों के लिए मेरी ईदी हमेशा उसके यहाँ पहुँच जाती है।
मेरे दिल ओ दिमाग के किसी कोने में भी यह बात नहीं आई कि एक हिन्दू पूजा में , मैं एक मुस्लिम परिवार की बच्चियों को बुला रही हूँ, और न यह कि वह भी सामने से मना कर सकती थी। परन्तु यह एहसास मुझे इसके एक साल बाद ही तब हुआ जब यही नवरात्रे हमें अमेरिका में पड़े। वहां एक ही कैम्पस में, एक ही कम्पनी के बहुत से लोग रहा करते थे और उन्हीं में शामिल था एक भारतीय मुस्लिम परिवार बड़े ओहदे पर और उच्चशिक्षित।उनकी भी छोटी छोटी दो बच्चियां थीं।
अत: कन्या पूजन के लिए मैंने बाकी बच्चियों के साथ उन्हें भी आमंत्रित किया . तो उनका टका सा जबाब आया – “नहीं ये आपकी पूजा है न , इसमें हम अपनी बच्चियों को नहीं भेज सकते”। मुझे लगा शायद उन्होंने कुछ गलत समझा है, हो सकता है वो कुछ टोना टोटका सा समझ रही हों , मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की , कि  “अरे ऐसी कोई पूजा नहीं करती मैं,  बच्चियां आएँगी उन्हें खाना खिलाऊँगी, कुछ उपहार दूंगी बस। एक उत्सव है और कुछ नहीं”। परन्तु मैं गलत थी . उनका जबाब अब भी यही था – कि  “है तो पूजा ही न आपकी, हम नहीं शामिल हो सकते सॉरी”। 
खैर बात हमें समझ में आ गई। कुछ ही दिन बाद दिवाली थी । हम सब लोगों ने पॉट लक (जिसमें सब प्रतिभागी एक एक खाने की चीज बना कर लाते हैं) के माध्यम से दिवाली का त्योहार एक साथ मनाने का सोचा और मिल बैठ कर इस दिवाली पार्टी की रूपरेखा बनाने लगे। तभी हममें से एक ने, उसी मुस्लिम महिला से पूछा – आप आएँगी न ?क्या बना कर लायेंगीं? वह बोलीं, हाँ बताती हूँ। 
अब मैंने उन्हें यह बताना उचित समझा कि – हम इस पार्टी में लक्ष्मी पूजा और आरती भी करेंगे। तो उन्हें कोई तकलीफ तो नहीं होगी ? वे तुरंत बोलीं – “नहीं .. फिर हम नहीं आयेंगे। अगर आप लोग पूजा भी करोगे तो”।
बात उनकी धार्मिक भावनाओं की थी तो हममें से कोई कुछ नहीं बोला और हमने अपने ढंग से दिवाली मना ली।
कुछ समय बाद पता चला कि उन्हें इस बात का बुरा लगा था कि उन्हें दिवाली पार्टी में शामिल नहीं किया गया।
यह बात आजतक मेरी समझ से बाहर है कि आखिर उन्हें कैसे और क्यों बुरा लगा, जबकि बुरा तो शायद हमें लगना चाहिए था। 
परन्तु एक बात जरूर समझ में आई कि किसी की भी सोच का किसी धर्म से कतई कोई ताल्लुक नहीं होता। किसी का अल्पसंख्यक हो जाना यह बिलकुल भी नहीं जताता कि उसके साथ अन्याय होता है। हर जगह, हर धर्म में अलग अलग तरह के लोग होते हैं, उनसे किसी धर्म विशेष की सोच को नहीं जोड़ा जा सकता।