सामान्यत: मैं धर्म से जुड़े किसी भी मुद्दे पर लिखने से बचती हूँ। क्योंकि धर्म का मतलब सिर्फ और सिर्फ साम्प्रदायिकता फैलाना ही रह गया है। या फिर उसके नाम पर बे वजह एक धर्म को बेचारा बनाकर वोट कमाना या फिर खुद को धर्म निरपेक्ष साबित करना। परन्तु आजकल जिस तरह मीडिया में हिन्दू मुस्लिम राग चला हुआ है मुझे कुछ अनुभव याद आ रहे हैं और उन्हें लिखे बिना मुझसे रहा नहीं जा रहा .
बात सन 1998 की है जब हम पहली बार लन्दन आये थे। नवरात्रों का मौसम था, हालाँकि किसी भी तरह के पूजा पाठ में मेरी दिलचस्पी न के बराबर है परन्तु हर तरह के त्योहार मनाने का मुझे बहुत शौक है और जहाँ तक संभव हो सके मैं उन्हें परंपरागत रूप में मनाने की कोशिश किया करती हूँ। अत: नवरात्रों में भी “कन्या पूजन” मुझे करना था। नए होने के कारण किसी से जान पहचान नहीं थी, सिवाय हमारे ही घर के नीचे रहने वाले एक हम उम्र पाकिस्तानी परिवार के, वह लड़की मुश्किल से आठवीं पास थी, पर उर्दू में शायरी लिखा करती थी और शायद यही वजह थी कि हम दोनों में जल्दी ही अच्छी बनने लगी थी। उसकी भी हमारी बेटी के बराबर ही एक बेटी थी। और पास ही रहती थी उसकी एक बहन और उसकी भी एक बेटी। अत: मैंने बिना कुछ भी सोच विचार किये झट से उसे और उसकी बहन को न्योता दे दिया कि मुझे पूजा करनी है अत: वह फलाने दिन अपनी बच्चियों को लेकर मेरे घर आ जाये। उसने भी झट से न्योता मान लिया और अष्टमी के दिन वे दोनों बहने अपनी बच्चियों को सजा संवार कर मेरे घर ले आईं। मैं उन बच्चियों को बिठा कर सारी पूजा करती रही और वे दोनों बड़े चाव और उत्साह से मेरी गतिविधियाँ देखती रहीं . फिर कुछ दिन बाद ही ईद आई और वह मेरी बेटी को ईदी देकर गई।
आज कई साल बीत गए। हम सारी दुनिया घूम कर इत्तफाक से फिर लन्दन आ गए। पर अब हमारे घर दूर दूर हैं, फिर भी उसके बच्चों के लिए मेरी ईदी हमेशा उसके यहाँ पहुँच जाती है।
मेरे दिल ओ दिमाग के किसी कोने में भी यह बात नहीं आई कि एक हिन्दू पूजा में , मैं एक मुस्लिम परिवार की बच्चियों को बुला रही हूँ, और न यह कि वह भी सामने से मना कर सकती थी। परन्तु यह एहसास मुझे इसके एक साल बाद ही तब हुआ जब यही नवरात्रे हमें अमेरिका में पड़े। वहां एक ही कैम्पस में, एक ही कम्पनी के बहुत से लोग रहा करते थे और उन्हीं में शामिल था एक भारतीय मुस्लिम परिवार बड़े ओहदे पर और उच्चशिक्षित।उनकी भी छोटी छोटी दो बच्चियां थीं।
अत: कन्या पूजन के लिए मैंने बाकी बच्चियों के साथ उन्हें भी आमंत्रित किया . तो उनका टका सा जबाब आया – “नहीं ये आपकी पूजा है न , इसमें हम अपनी बच्चियों को नहीं भेज सकते”। मुझे लगा शायद उन्होंने कुछ गलत समझा है, हो सकता है वो कुछ टोना टोटका सा समझ रही हों , मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की , कि “अरे ऐसी कोई पूजा नहीं करती मैं, बच्चियां आएँगी उन्हें खाना खिलाऊँगी, कुछ उपहार दूंगी बस। एक उत्सव है और कुछ नहीं”। परन्तु मैं गलत थी . उनका जबाब अब भी यही था – कि “है तो पूजा ही न आपकी, हम नहीं शामिल हो सकते सॉरी”।
खैर बात हमें समझ में आ गई। कुछ ही दिन बाद दिवाली थी । हम सब लोगों ने पॉट लक (जिसमें सब प्रतिभागी एक एक खाने की चीज बना कर लाते हैं) के माध्यम से दिवाली का त्योहार एक साथ मनाने का सोचा और मिल बैठ कर इस दिवाली पार्टी की रूपरेखा बनाने लगे। तभी हममें से एक ने, उसी मुस्लिम महिला से पूछा – आप आएँगी न ?क्या बना कर लायेंगीं? वह बोलीं, हाँ बताती हूँ।
अब मैंने उन्हें यह बताना उचित समझा कि – हम इस पार्टी में लक्ष्मी पूजा और आरती भी करेंगे। तो उन्हें कोई तकलीफ तो नहीं होगी ? वे तुरंत बोलीं – “नहीं .. फिर हम नहीं आयेंगे। अगर आप लोग पूजा भी करोगे तो”।
बात उनकी धार्मिक भावनाओं की थी तो हममें से कोई कुछ नहीं बोला और हमने अपने ढंग से दिवाली मना ली।
कुछ समय बाद पता चला कि उन्हें इस बात का बुरा लगा था कि उन्हें दिवाली पार्टी में शामिल नहीं किया गया।
यह बात आजतक मेरी समझ से बाहर है कि आखिर उन्हें कैसे और क्यों बुरा लगा, जबकि बुरा तो शायद हमें लगना चाहिए था।
परन्तु एक बात जरूर समझ में आई कि किसी की भी सोच का किसी धर्म से कतई कोई ताल्लुक नहीं होता। किसी का अल्पसंख्यक हो जाना यह बिलकुल भी नहीं जताता कि उसके साथ अन्याय होता है। हर जगह, हर धर्म में अलग अलग तरह के लोग होते हैं, उनसे किसी धर्म विशेष की सोच को नहीं जोड़ा जा सकता।
शिखा कोई भी धर्म संकीर्णता नहीं सिखाता बल्कि हमारी अपनी ही सोच होती है और ये शिक्षा , पद या सामाजिक स्तर से भी बदलती नहीं है . हम अपने में देख लें मैंने कई लोगों को देखा है कि कन्या भोज में दलित कन्याओं को नहीं बुलाएँगे क्योंकि कन्या पूजन करेंगे तो दलित कन्याओं का पूजन कैसे करेंगे? यही कारण है की हम इतने विशाल में विशाल नहीं देख पाते हैं .
जड़ों में ना जाने क्या भरा है के हम बचते है, साथ रहने से , साथ खाने से , विश्वास करने से … यकीन नहीं होता एक साथ दो दुनिया चलती है
अगर इबादत के लिए सर झुकाने से पहले भगवान का नाम और धर्म पूछना पड़े तो ये उस इन्सान के खुद के धर्म की मौत है |
क्या बात कही है…
है तो कड़ुवा अनुभव
पर अपवाद भी है
एक मुस्लिम परिवार ने स्कूल के फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता में
अपने लड़के को कृष्ण की पोशाक पहनाई
और वह लड़का अपने अभिनय व संवाद के बल पर प्रथम स्थान भी हासिल किया
इतना ही नही…उसके कृष्ण रूप की बड़ी फोटो आज भी उनके ड्राईंग रूम में लगी हुई है
सादर
बात भावों की हो… श्रद्धा की हो, वहां ऐसी सोच चाहे किसी की भी हो बहुत दुखी करती है…
इस सन्दर्भ में आपके अच्छे अनुभव कुछ सुकून देते हैं!
बात तो सही है बुरा तो आप सब लोगों को लगना चाहिए था। मगर हो सकता है की उनकी expectation यह रही हो की पूजा के बाद उन्हें उस पार्टी पॉटलक में शामिल किया जाना चाहिए था।
संकीर्णता ही जवाबदेह है, पहले तो धर्म के नाम पर अलग थलग जताओ और भी अलग थलग का रोना रोओ। बडी विचित्र अनुभूति होती है साम्प्रदायिक सद्भाव जब सामना संकीर्णता से होता है।
चिंतन योग्य संस्मरण!! शुभकामनाएं……
kash har koi aisa hi soche….!!!
धर्म निरपेक्ष सिर्फ कहने भर को हम रह गए हैं. कहीं न कहीं मन में धर्म की संकीर्णता बनी ही रहती है. ऐसे कई उदाहरण हैं जब हिन्दू को ईद मानते देखा है और मुस्लिमों को होली और दिवाली मानते देखा है. कई ऐसे लोग भी मिले जो अब भी छुआछूत मानते हैं और कुछ ख़ास जाति धर्म के लोगों के हाथ का बना खाना नहीं खाते हैं. पहले से अब में एक फर्क आ गया है जैसा मैंने अनुभव किया है. पहले के जमाने में खुल कर जाति धर्म की बात होती थी परन्तु सभी धर्म के लोग आपसी भाईचारे के साथ रहते थे. अब जब धर्म का राजनीतिकरण हुआ है सभी लोग खुद को धर्म निरपेक्ष बताते हैं लेकिन मन में दुसरे धर्म के प्रति कट्टरता रखते हैं. जब तक मज़हब हमारे जीवन को निर्देशित करेगा ऐसा ही होगा. जीवन के प्रति सोच बदलने की ज़रूरत है. शुभकामनाएँ.
शिखा तुम इस विषय़ पर लिखने से परहेज़ करती हो और मैं टिप्पणी करने से
फिर भी ये कहना चाहती हूँ कि धीरे – धीरे ये ज़ह्र हमारी हवाओं में घुलने लगा था लेकिन इस नई पीढ़ी से बड़ी उम्मीदें हैं मुझे कल ही मैंने एक शेर लिखा
जब हम लड़ेंगे जाति के,धर्मों के नाम पर
बच्चों को क्या सिखाएंगे, सद्भावना के अर्थ
प्रश्न ये नहीं कि वो महिला किस देश ,स्थान या धर्म से ताल्लुक़ रखती हैं ,सवाल उठता है उन की मानसिकता पर ,,,,आज भी कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें मेरे यहाँ खाने से परहेज़ है लेकिन दूसरी ओर तुम जानती हो वंदना से मेरी दोस्ती और रिश्ते कैसे हैं ,,लंबा विषय है 🙂
तुम आ रही हो न जुलाई में ???
अरे ऐसे कई वाक्यों से हमें अक्सर दो चार होना होता है…..
मेरी भी सबसे प्यारी और करीबी सहेली मुस्लिम है और अपने धर्म को बहुत कट्टरता से निभाती है मगर हमारे घर दिवाली पूजन में बाकायदा लाल चूड़ियाँ और बिंदी लगाए हाजिर हो जाती..(हम खुद शर्मा जाते):-)
35 सालों से हम दोस्त हैं(और अब हमारे बच्चे और पति भी… )
अनु
Shayad aap "Dharm" or english ke shabd 'Religion' ko eik manti hain varna aisa na likhti.
Dharma is not translatable to any other language. Dharma is from "dhri", meaning to hold together, to sustain. Its' approximate meaning is "Natural Law," or those principles of reality which are inherent in the very nature and design of the universe. Thus the term Dharma can be roughly translated to mean "the natural, ancient and eternal way."
हर कौम में संकीर्ण लोग व् खुले दिमाग व्यक्ति होते हैं , यह आपकी किस्मत है कि किससे आपका वास्ता पडा है !!
निर्भर करता है कौन कितना जुड़ना चाहता है, हम भारतीय तो अपनी बाँह पसारे सबको बुलाते रहते हैं, कोई भावनाओं का सम्मान कर हमारा मान बढ़ाता है, कोई अपमान कर देता है।
ham hinddu baahut bhole-bhale hai, islam koi dharm nahi balki arebiyan rashtrabad hai hazaro varsh hindu mar khata raha fir bhi ham islam ko samajh nahi paye.
जानती हूँ आपा ! हाँ आ रही हूँ. 28th को पहुंचूंगी
संकीर्णता तो बेशक व्यक्तिगत लक्षण है लेकिन ऐसी मज़हबी विचारधाराएँ भी हैं जिनमें ऐसे दुर्गुणों का विस्तार सामान्य हो जाता है। हर जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य है कि संकीर्णता और असहिष्णुता को अपने अंदर पनपने से रोके।
हर धर्म मे संकीर्ण या व्यापक विचारधारा के लोग होते हैं ….. ये व्यक्ति विशेष पर निर्भर है कि उसकी सोच कैसी होगी …!!मानवता परम धर्म होना चाहिए ….!!तुम्हारी सोच बिलकुल सही है ….!!
मुझे बस इतना कहना है .
धर्म नहीं है ! अरे बर्फ है , छूने से गलने वाला
नहीं धर्म वह चीज़ जला दे , छूते ही जिसको ज्वाला
इंसानों को इंसानों से , घृणा हुई ये कैसा धर्म
अरे अधर्मी ! क्यों न खोलता , हठ धर्मी की बधशाला
मानवता की कसौटी पर सब धर्मों की मान्यताओं का परीक्षण किया जाना चाहिये तब उदारता और संकीर्णता का निर्णय हो जायेगा,और यह भी कि उन आधारों पर उसके माननेवालों की मानसिकता कैसी ढाली जा रही है.
क्या बात है..बहुत खूब.
कोई भी धर्म आपस में बैर करना नहीं सिखाता ….. हर धर्म और उनके रीति रिवाजों का आदर करना चाहिए …. मन को संकीर्ण बना कर हम खुद ही उलझ जाते हैं …. विचारणीय लेख
इबादत और धर्म अपने मन की देन है ….
hoom aesa hota hai pr dhrm kabhi alag rahna nahi sikhata hai pr ham isko kaese lete hain ye ham pr nirbhar karta hai
rachana
Kya insaan dharm se hi, ishwar, allah ya god se hi mukt nahi ho sakta? Mukt ho ke dekhiye, manvata me bada hi nischaal aanand hai.
बचपन से छोटी छोटी चीजे असर करती है आप की मानसिकता बनाने में , मित्र के बेटी के स्कुल का किस्सा बताती हूँ , पढ़ने वालो में जैन और मुस्लिमो की संख्या है , एक जैन बच्ची ने मुस्लिम बच्ची के लंच बाक्स को देख कर कहना शुरू कर दिया छि छि ये नौन्वेज है गंदा है ये गंदा खाना है, तुम गन्दी हो हम तुम्हारे साथ नहीं बैठेंगे , बेचारी छोटी सी बच्ची जिसे ये कहा जा रहा था रोने लगी जब प्रिंसपल तक बात गई तो उन्होंने सभी अभिवावको को समझाया की ये तरीका नहीं है बच्चो को कोई भी बात समझाने का , इस तरह आप बच्चो में एक दुसरे के प्रति गलत बात को डाल रहे है , तो कुछ अभिवावक ने कहा की इसमे गलत क्या है हम उन्हें मना नहीं करे, तब प्रिंसपल ने कहा की क्या आप आलू प्याज खाने वालो के प्रति भी बच्चो को यही सिखाते है क्या आप आलू के चिप्स के लिए भी छि छि करना सिखाते है तब तो आप बड़ी समझदारी से बच्चो को सिखाते है की केले के चिप्स खाऊ आलू के नहीं फिर नानवेज के लिए ये भाव क्यों , आप बच्चो में खास समुदाय के लिए घृणा पैदा कर रहे है आप उन्हें न खाने के लिए वैसे ही सामान्य तरीके से समझाए जैसे आप आलू प्याज आदि के लिए बताते है , जी हा यहाँ पर घरो में बच्चो को सिखाया जाता है की उन्हें मुस्लिम बच्चो के टिफिन शेयर नहीं करना चाहिए बाकायदा नाम ले कर उन्हें मना किया जाता है , बहुत ही बेवकूफाना तरीको से जिससे बच्चो में खाने के साथ ही उसे खाने वालो से भी परहेज हो जाता है । ऐसी ही छोटी बाते बचपन से दुसरे समुदायों के प्रति लोगो में गलत बाते डाल देते है जो धीरे धीरे बढ़ते रहते है, फिर दुसरे समुदाय को भी लगता है की वो हमें पसंद नहीं करते है तो उनसे दूर रहो । ऐसे लोगो को अपने बच्चो को एक ईसाई स्कुल में पढाने से कोई परहेज नहीं होता है । चाहे खान पान हो या रहन सहन बचपन से ही बच्चो को कुछ भी सिखाते समय इस चीज का ध्यान रखना चाहिए की बच्ची असल चीज को समझे न की अपनी सहूलियत के लिए उसे किसी खास समुदाय से ही दूर रहने के लिए कह दिया जाये चाहे वो किसी भी समुदाय से हो , दूसरो की और उनकी क्रिया कलाप को प्रति हमेसा सम्मान का भाव बच्चो में पैदा करना चाहिए ।
बहुत मुश्किल है डगर ये , क्यों हमें अपनी धर्मनिरपेक्षता ढोल पीटकर प्रमाणित करनी पड़ती है , समझा जा सकता है …सच में , इतना ज्यादा हो हल्ला हो गया है कि अब चुप रहना मुश्किल हो जाता है . जाति और धर्म के मुद्दे पर किसी एक ही पक्ष से सारे समझौते करने की उम्मीद की जाए , यह न्यायसंगत नहीं है !
आप धर्म नहीं मानतीं,पूजा-पाठ भी नहीं करतीं फिर भी नवरात्रि में कन्या पूजन करती हैं…..क्यों? क्या बिना भावजगत में प्रवेश किये कर्म का कॊइ अर्थ है या फिर जो आप करती हैं वह मात्र परंपरा का निर्वाह है? वस्तुतः ‘धर्म’ सार्वभौमिक,सार्वदेशिक और सार्वकालिक है…..जाति, मजहब, सम्प्रदाय से भी ऊपर की वस्तु, अवधारणा अथवा स्रष्टि के शाश्वत नियम। धर्म विज्ञान सम्मत ज्ञान की सुढृढ़ नींव पर खड़ा है….इसीलिए वेद-शास्त्रादि उद्घोष करते हैं ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’……वे हिन्दू सुखी हों मुस्लिम सुखी हों वैसा नही कहते….वे कहते हैं ‘सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दुःख भागभवेत’…….प्राणीमात्र ही नहीं….द्यावा शान्तिः, पृथ्वी शांतिः, अंतरिक्ष शांति आदि। हम भारतीय, इसी सनातन……अनादिकाल से चली आरही शाश्वत परंपरा के अ्नुगामी हैं, जिन्हें काल विक्षेप में कतिपय कारणों से हिन्दू कहा जानें लगा। इसी के अन्तर्गत विभिन्न संप्रदाय हैं….शैव, वैष्णव, स्मार्त,शाक्त,प्रत्यभिज्ञा, आदि-आदि……..वहीं एक विपरीत ध्रुव बना जो शाश्वत मूल्यों पर नहीं राजनीतिक सत्ता की अभीप्सा से उपजा और अपनें अंदर के विरोधाभासों को नियंत्रित करनें के लिऎ सम्प्रदाय, मज़हब,पंथ का निर्माता बनता है….परिणामतः जरुथुस्त्र,मोजेस, शंकर,बुद्ध,महावीर,ईसा, हजरत मोहम्मद,नानक, दयानंद और ऒशो अपनीं विचार और क्रिया पद्धति के साथ हमारे सम्मुख उपस्थिति होते हैं……और बस हम बंट जाते हैं…..सम्प्रदाय, मज़हब, चर्च, पंथादि में। आप अत्यंत सरल,सहृदयी हैं लेकिन ऎसे सभी गुण तभी तक रहेंगे जब तक यह शरीर है। उसी प्रकार सनातन चिंतन परंपरा और उसकी उदार जीवन शैली तभी तक है जब तक यह हिंदू कही जानें वाली जाति है। इस परंपरा को माननें वाले ही नहीं रहेंगे तो यह अगाध ज्ञानराशि एक क्षण में नष्ट हो जाऎगी। कृणवंतं विश्वमार्यम का उद्घोष करनें वाली सभ्यता हजार वर्षों तक गुलाम रही है यही तो इतिहास बताता है। अस्तु नवरात्रि, वर्ष में दो बार होती है, बासंतिक और शारदीय नवरात्रि। वर्षारंभ और मध्यान्ह के प्रथम नौ दिन, कालरात्रि कहे जाते हैं, पृथ्वी खगोल में दुर्गम मार्ग से गुजरती है, ऋतु परिवर्तन, खगोलीय विपरीत उर्जाओं का संघर्षण, गुरुत्वाकर्षणादि के विभिन्न प्रभावों से उत्पन्न हलचलों के नौ दुर्गों को पार कर, धरित्री पृथ्वी, महाकाली,महालक्ष्मी और महासरस्वती रुपों से जगतपालिनी बन प्राणी मात्र की कल्याणी बनती है। इसी तथा कतिपय अन्य गुह्य विज्ञानात्मक ज्ञान के प्रतीक में शैलपुत्री आदि नवरुपों की उपासना षोड़्षोपचार पद्ध्ति से की जाती है और उसी क्रम में नौ कुमारियों को पूजनादि से धन्यवाद स्वरूप सत्कार किया जाता है। सूक्ष्म से स्थूल और अभाव से भाव की स्रष्टि होती है। अभाव का अर्थ नानइग्जिस्टेंस नही अनमेनीफेस्टेड़ है। जो कालक्रम में मेनीफेस्ट हो जाता है अपनीं ही आंतरिक शक्ति से। मानों तो देव नहीं तो पत्थर। श्रद्धा और विश्वास आपकी उपासना को फलित करें।
सिर्फ यहि एक कहानी नहि है ऐसे कई और उदारहण मिल जायेगै।
जहा पर educated people का ऐसा बर्ताव देखने को मिलता है।
सहि कहा आप नै
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(20-7-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!
मानवीय संबंधों के बीच धर्म नहीं आना चाहिए। बाकि तो सब को स्वतंत्रता है।
एक उदारमना और सौजन्यशील आलेख शिखा जी …
एक सत्य के मल्टीपल पक्ष होते है. अगर कोई एक पक्ष को ही अंतिम
सत्य मान लें तो बहुत संभावना है कि हम किसी अति की ओर सरक
जाएं … इस धरती का मूल सूत्र 'मानवकेंद्रीय' है, जो हर समय में आधुनिक
और स्वीकार्य रहा है …
हमने तो यह भी देखा है कि उतरायण और दीपावली का त्यौहार हमारा एक बड़ा
मुस्लिम समाज बिना भेदभाव के मनाए … पटाखे-फुलझड़िया दिन भर और
रात को मुस्लिम सोसाइटीयों में जलाई जाए और कभी किसी बड़े-बूढ़े को विरोध
करते न देखा। वैसे ही उतरायण की जल्दी सुबह से ही हर छोटा-बड़ा लड़के-लड़कियां
महिलाएं अपने-अपने टेरेस-धाबे पर पहुँच डी.जे. की तीव्र संगीत धुनों के साथ
आसपास के टेरेस पर हर धर्म के पड़ोसियों से हंस बोल कर पूरा दिन मनाए …
बिताए …
मेरे एक दोस्त(जो मुस्लिम) है उनकी बेटी की शादी उनके सभी हिन्दू दोस्तों
ने मिलकर ख़ुशी-ख़ुशी निपटाई … दवे भाई ने पूरी रात जाग कर किचेन की तैयारी
देखी। शाह भाई ने पूरा फाइनेंस अर्थव्यवस्था देखी …(यहाँ तक की शादी के दिन
अपने बैंक खाते से दस हज़ार के करारे नोट्स भाभी के हाथ में ला कर रखे और
कहा, "इमरजेंसी में काम आएंगे …!). मिस्त्री भाई, देसाई भाई और पटेल साहब
ने पूरा बंदोबस्त अपने हाथों में ले लिए … एक शानदार शादी संपन्न हुई.
यहां हिन्दू सोसाइटी में सत्य नारायण की कथा में साथ रहते मुस्लिम समाज
की महिलाएं कथा में शकर ले कर जाए. आरती के समय कुछ महिलाएं माथे
पर तिलक लगवाए… जिन महिलाओं को परेज़ हो वे अपना हाथ आगे बढ़ा कर
हाथ पर तिलक करवाए … बाद में जिसका कोई इस्यू तक न हो …
एक दूजे के रीतिरिवाज और प्रतीकों से सूग-घृणा तो अपढ़-कूपढ़ संकीर्ण कठमुल्ले
या कुछ वैसे ही पंडित सिखाए …
पास ही की एक मिश्र सोसाइटी में रश्मिका बहन को सात महीने में अधूरा बेटा
हुआ … तबियत बिगड़ी तो पड़ोस के इस्माइल भाई(मुस्लिम) ने रात को दो
बजे अपनी गाड़ी निकाली और पास के शहर के मशहूर अस्पताल में उन्हें दाखिल
करवाया … ज़रूरत पड़ी तो सुबह अपना खून तक दिया और सात दिनों तक पूरा
परिवार रश्मिका बहन की सेवा में लगा रहा तब तक जब तक वे कुछ स्वस्थ हो
कर आपने घर वापिस आई …
दोनों धर्मों के लोगों के बच्चों की शादियों का माहौल देखते ही बने …! इतना स्नेह-
उत्साह-उमंग कि भेदभाव का तो दूर-दूर तक आभास तक न मिले … वेडिंग कार्ड
के मिलने से लेकर शादी हो जाने तक इंतेजारी व उत्साह बना रहे …
और भी कई प्रसंग है और आए-दिन नए-नए जुड़ते भी जाए …
पढ़े लिखे और जो मुस्लिम बिलकुल भी पढ़े-लिखे नहीं है या दो-चार कक्षा तक ही पढ़े है
उन्हें दीनी तालीम जुमे की मनाज़ से पहले मौलवियों द्वारा किये गए बयानों से
मिले है …वैसे ही अपढ़ या कम पढ़ी लिखी औरतों को दीनी तालीम मिजलिस या
खत्में क़ुरान में जाकर जहां कुछ कम ही दुन्यावी पढ़ी-लिखी पर दीनी तालीम ली हुए
महिलाओं से मिले …
सनसनीखेज़ ख़बरे सभी देखने-जानने को भागे टी. वी. की ओर या रोज़ाना पेपर
मिल जाए तो पढ़ ले… टी.वी.ने कितना फ़ायदा पहुंचाया है पता नहीं पर कुछ तो
नफ़ासत जाने-अनजाने रहनसहन में देखि जाए …
मुस्लिम समाज में इल्म की जागृति बढ़ी है पर इल्म का टोटल हेतु ज़्यादातर तबक़ों
को अभी भी अस्पष्ट सा रहा है …
मुस्लिम समाज एक संकुल समाज है. हमारे हर किसी धर्म के लोगों की तरह यहाँ भी
जन्म से लेकर मृत्यु तक की एक जीवन पद्धति संस्कृति रस्म रीती-रिवाज है. शादी-ब्याह
बच्चों के जन्म की ख़ुशियाँ मेल मिलाप ख़ुशियाँ-गम माँदगी स्वास्थ्य इत्यादि… कहीं दारूण गरीबी तो कहीं-कहीं पढ़ा-लिखा मिडल क्लास और नौकरी-पेश तबका और कहीं समृद्ध व्यापारी वर्ग … पर सभी एक संयोजन बना कर जीवन व्यतीत करे … मोटे तौर पर एक निरूपद्रवी संयोजन …
यह एक सरसरी सी टिप्पणी है पर देखा भाला सत्य और तथ्य भी है उस में …
यह तो एक भावना होती है …जो हर कोई नहीं समझ पाता…कितने बदनसीब होते हैं वे लोग..कितना कुछ मिस कर देते हैं लाइफ में …खैर अपनी अपनी सोच है ….औए वह किसी पर थोपी नहीं जा सकती …
शिखा जी,आपके अनुभवों से इन्कार नही किया जासकता । इकबाल साहब ने जो कहा है वह बेशक सच है लेकिन इस पर चलने वाले कम हैं । अगर चलने लगें तो इतनी खींचतान कभी न हो ।
आपकी पोस्ट पढ़कर महर्षि तिरुवल्लुर की एक बात याद आ गयी – अपने मन को निर्मल रखना ही धर्म है …
सारगर्भित विस्तृत टिप्पणी के लिए आभार.
bahut suljha huaa satya kaha hai aapne Sangeeta ji…
जीनी जी! शिखा की तरह ही मैं भी कभी-कभी कुछ घटनाओं से क्षुब्ध हो जाता हूँ। कुछ समय बाद फिर पहले जैसा हो जाता हूँ। सच कहूँ तो लोग अपनी व्यक्तिगत सोच को न्यायसंगत ठहराने के लिये धर्म का सहारा ले लेते हैं। किसी भी तरह की कट्टरता का विरोधी होना ही चाहिये। वह पाखण्ड है जो धर्म की आड़ में लोगों के बीच दीवारें खड़ी करता है।
शिखा का अभिप्राय था कि वे धर्म के नाम पर चल रहे पाखण्ड को नहीं मानतीं। धर्म को हर कोई मानता है ..वह भी जो धर्म का घोर विरोधी है। नवरात्रि पूजन भारतीयों की प्रतीकात्मक आर्ष परम्परा का एक भाग है। ध्यान से देखा जाय तो स्पष्ट हो जायेगा कि विश्व का हर वह व्यक्ति जो सर्वकल्याणकारी भाव के साथ सत्य और निष्ठा को जीवन का मार्ग बना लेता है वह सनातनधर्म का अनुकरण करता है। यह यूनीवर्सल रिलीजन है इस पर किसी जाति या देश विशेष का कोई एकाधिकार नहीं। इसके द्वार हर किसी के स्वागत के लिये सदैव खुले हैं।
MEMORABLE MOMENT SHARED
ऊंची बात कह दी आपने तो।
दोनों पक्षों में दोनों तरह के लोग होते हैं।ऐसे अनुभव मुस्लिम भी आपको खूब सुना देंगें कि देखो हमारे और हमारे धर्म के बारे में हिन्दू क्या सोचते हैं।दोनों ही धर्मों में ऐसे बहुत से लोग हैं जो अपने बच्चों को एक दूसरे के खिलाफ गलत बातें सिखाते हैं।और दोनों के पास ही अपने इस गलत व्यवहार को उचित ठहराने के बहाने होते है।ये बात किसी एक पक्ष पर लागू नहीं होती दोनों के बारे में सच है।मेरे एक मित्र हैं सिकंदर हयात उनसे कई बार इस तरह के मसलों पर बहस होती रही है वे बताते हैं कि मुसलमानों के भीतर भी बचपन से ये बातें भर दी जाती है कि कैसे भारत में ताजमहल से लेकर लालकिला तक सब हमारा है उनके पास तो कुछ नहीं था।कैसे हिंदुओं के भीतर अहसासे कमतरी है कि उन्होंने सदियों तक हमारी गुलामी की है।जब ये बातें होंगी तो जाहिर है उनका नजरिया भी स्वस्थ नहीं रह जाएगा खासकर मूर्तिपुजा को लेकर बहुत गलत बातेँ कहीं जाती हैं।और दूसरी तरफ हिन्दू भी बच्चों को यह समझाते हैं कि कैसे मुगलों ने जुल्म किया और पाकिस्तान क्यों बना सबके लिए मुस्लिम जिम्मेदार।जरूरत इतिहास से पीछा छुड़ाने की होनी चाहिए पर वो होती नहीं।
सहमत हूँ.
जिस दिन लोगों को ये समझ में आ जाएगा कि ईश्वर तो एक ही है, बस इबादत के तरीके अलग-२ हैं, सारे भेद उसी दिन मिट जाएँगे… 🙂
धर्म वह है जो धारण किया जा सके, अगर आपके सरल, सुपष्ट विचारों को संकीर्णता के चश्मे की वजह से कोई न देख सके तो वह ना तो आपकी आस्था का धर्मावलंबी है और न ही अपनी ही आस्था का.
ये सिर्फ अपनी अपनी सोच है .. हर तरह के लोग हैं समाज में … मेरे भी कई मुस्लिम दोस्त हैं जो हर त्यौहार में कन्या पूजन में भी साथ देते हैं … हम भी उनके हर त्यौहार में जाते हैं …
सब मिलकर त्योंहार मनाएं तो उसका मज़ा ही कुछ और है
आदरणीया शिखा मैम ,सादर प्रणाम |
मजहब क्या है ? राहें *मुख्तलिफ हैं – एक मंजिल की,
मंजिल क्या है ? जहाँ सब कुछ है , मगर राहें नहीं हैं।
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* डिफरेंट /भिन्न
RELIGION HAS MEANING ONLY FOR THOSE WHO R IN D WAY ON
BT WHO HAVE REACHED D GOAL HAVE NO RELIGION
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जैसे मै अपने धर्म में परिवर्तन नही चाहता हूँ , उसी तरह किसी ईसाई , पारसी , यहूदी और मुसलमान को उसका धर्म बदलने को न कहूँ , न राय दूँ अथवा न चाहूं । सभी धर्मों में कुछ कमी हो सकती है या है ; परन्तु जैसे मै अपने धर्म में पक्का हूँ वैसे ही सभी धर्म के लोग अपने में पक्के बने रहें । यही मेरे अनुसार धर्म के समझ का सार है ।
सभी धर्म के लोग यही प्रार्थना करें कि यदि वे हिंदू हैं तो और अच्छे हिंदू बन सकें ; अगर मुस्लमान हैं तो और बेहतर / अच्छे मुस्लमान बनें और इसी तरह और बेहतर / अच्छे ईसाई , पारसी आदि आदि बनें ।
सभी धर्मों में वही कहा गया है जो मनुष्य के हित में हो और जिससे हम प्रेम , करुणा , अहिंसा , भाईचारा , एकता विश्वबंधुत्व और विश्व शान्ति की स्थापना कर सकें । जो अपने धर्म को ठीक से समझ लेता है वह निश्चित ही दूसरे धर्मों का आदर करेगा । ” जब हम अच्छा करते हैं तो हमें अच्छा अनुभव होता है और जब हम कुछ बुरा करते हैं तो हमें बुरा अनुभव होता है ; यही मेरा धर्म है ” – अब्राहम लिंकन । और – ” जब हम अच्छाई और सच्चाई के साथ अपनी आत्मा के साथ जीवन बिताते होते हैं तो वही हमारा धर्म होता है ” – एलबर्ट आइन्स्टीन ।
वाह !
पता नही लोग क्यूं नही सोचते कि राहें अलग अलग हैं मंजिल तो एक है ।
dont know how to type in hindi:(
I have seen both types of people..some who are very generous kind and broad minded but others who identify first with Islam and then country…
whatevr the social behaviour, but their affinity with Pakistani cricket team and celebrities irritates me.
धर्म कभी इंसानों को किसी दायरे में नहीं बांधता है बल्कि धर्म तो सार्वभोमिकता का पाठ पढ़ाते है ।
सच कहा आपने हर धर्म में हर तरह के लोग होते हैं
वैसे कोई भी धर्म मानव मानव में भेद करना नहीं सीखाता
सुन्दर, अच्छा लगा पढ़कर
आपके और आपके लन्दन वाली पड़ोसी के विचारों को जानकर
आपका ब्लाग सुन्दर है प्रस्तुति और रचनाओं के संदर्भ में। बधाई आपको। इसे आज ही देखा है। रचनाएं भी पढूंगा।
आज ही आपका ब्लाग देखा है। बहुत सुन्दर-प्रस्तुति बेहतर है और रचनाओं की विविधता भी। आपकी रचनात्मकता जानने का भी अवसर मिला है।
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